अब तो प्रचंड सरकार है। वही सरकार हुजूर है। वही संविधान है। क्योंकि ये चुनी हुई सरकार है। ये जुमला इस दौर में कुछ ऐसे उछाला जाता है, मानो पहले की सरकारें आसमान से टपक पड़ती थी। वे चुनी हुई नहीं होती थी? ये प्रहसन खुलेआम होता है। बार-बार दोहराया जाता है। हम मीडिया के बाबू! उफ् तक नहीं करते। जैसे पत्रकार नहीं, हम दिहाड़ीदार मजदूर हो गए हैं…
वीरेंद्र सेंगर
चुनाव की घोषणा होते ही, चुनाव आदर्श आचार संहिता का बिगुल बज जाता है। वही शासन होता है और वही प्रशासन। लेकिन गजब की फुर्ती आ जाती है। सब जगह आदर्श की एक्सप्रेस गाड़ी दौड़ने लगती है। पुलिस में फुर्ती आ जाती है। जिन नेताओं के सामने वे एक दिन पहले तक खड़े होकर जी हजूरी! करने में थकते नहीं थे, उन्हीं नेताओं के चुनावी पोस्टर बड़ी बेरहमी से फाड़ने लगते हैं।
चौराहों पर दो नंबरी पैसे से खड़े किए गए होर्डिंग्स हटाए जाते हैं। नगर निगम और परिषदों की कचरा गाड़ी उन्हें कूड़ा-करकट की माफिक लाद लेती हैं। वहीं वर्दीधारी जो दिन रात सुविधा शुल्क की वसूली करके वैध-अवैध शराब बिकवाते हैं। स्मैक, गांजा व चरस न जाने क्या क्या? वो नये कर्तव्य बोध से लैस हो जाते हैं।
छापे पड़ जाते हैं। जिससे मीडिया की सुर्खियां बनें कि आपकी आदर्श पुलिस ने घंटों में कितने लाख और कितने करोड़ का माल जब्त कर लिया। अजब! महिमा है चुनावी पर्व की। यह रंगारंग परिदृश्य हम दशकों से देखने के आदि हो गए हैं। एक ऐसी हकीकत, जो नाटक होते हुए भी सच के तौर पर फैलाई जाती है।
अरे! भाई चुनाव में ही आदर्श आचार संहिता की जरूरत क्यों हो जाती है? आदर्श प्रशासनिक व्यवस्था तो हर दिन चाहिए। लेकिन नहीं, बस आदर्श आचार की जरूरत पांच साल में महज कुछ दिनों के लिए होती है। वह भी जब चुनाव आयोग, चुनाव की तारीखों का ऐलान करे।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ ऐसे प्रहसन खुलेआम होते हैं। सभी जानते हैं कि दिल्ली में बैठे सत्ता आकाओं के इशारे पर सब कुछ फिक्स होता है। पहले कुछ लोकलाज भी रहती थी। कांग्रेस के दौर में लाज का पर्दा पड़ा रहता था। लेकिन अब नये हुक्मरानों का दौर है। वे काफी पारदर्शी हैं। झीनी-बीनी चदरिया भी हट गई है। खुला खेल फरुर्खाबादी हो गया है। एकदम नंग-धड़ंग लोकतंत्र। रिकार्ड पारदर्शी!
डंके की चोट पर सत्ता की दादागिरी का दौरा है।
बंदे, तर्क देते हैं कि चुनी हुई सरकार के कहने पर सब कुछ होता है, तो इसमें बुरा क्या है? यह लोकतंत्र का नया दौर है। शायद यही ‘न्यू इंडिया’ है। यानी बेशरमी भी करो, तो डंके की चोट पर। नेतागण अब पूरे पांच साल चुनावी मोड में होते हैं। सत्ता वाले ढूंढ-ढूंढ कर अपने वफादारों और हुकम के पुतलों को चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं में फिट कराते हैं।
यह तमाशा सालों से चल रहा है। अब तो प्रचंड सरकार है। वही सरकार हुजूर है। वही संविधान है। क्योंकि ये चुनी हुई सरकार है। ये जुमला इस दौर में कुछ ऐसे उछाला जाता है, मानो पहले की सरकारें आसमान से टपक पड़ती थी। वे चुनी हुई नहीं होती थी? ये प्रहसन खुलेआम होता है। बार-बार दोहराया जाता है। हम मीडिया के बाबू! उफ् तक नहीं करते। बड़े प्रेम से उनके ये बदबूदार जुमले फैलाते रहते हैं।
कोई सवाल नहीं करते। जैसे पत्रकार नहीं, हम दिहाड़ीदार मजदूर हो गए हैं।
इसके बाद भी मीडिया, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यानी खंभा बना हुआ है। चारों! स्तंभ से सही वाली फीलिंग नहीं आती। मुझे लगता है खंबा सही है, वह भी बगैर आत्मा वाला। अपने चार दशक के अनुभव से कह सकता हूं कि ‘न्यू इंडिया’ में मीडिया की आत्मा अब सत्ता के पास और मीडिया मालिकों की पूरी बंधक हो गई है।
ये खेल अजब है! डंके की चोट पर प्रहसन देखिए! लाज की चदरिया हट गई है। ‘किंतु-परंतु’ की जगह नहीं है। ‘मीडिया हाउस’ के मालिकों के मालिक वे हैं, जो सरकार के आका हैं। मिजाज पूरा बदल गया है। चुनावी दौर के पहले मीडिया मालिकों के लिए सरकार अरबों रुपए का विज्ञापन बांटती है। टीवी चौनलों में तो एंकर-एंकरनियां सरकारी भोंपू हो जाते हैं। इनका काम सरकार के गुणगान करना ही नहीं होता, बल्कि विपक्षी नेताओं के चेहरे पर रोज कालिख भी पोतनी होती है। जो जितना बेशर्म, बहुत ना बड़ा पत्रकार।
जनाब! ये नया दौर है। सत्ता का नया मिजाज है। यदि अपना आसमानी विकास करना है, तो पत्रकारिता की पुरातन परंपराएं भूल जाइए। सत्ता से सवाल नहीं कीजिए, वर्ना आपका विकास खतरे में पड़ जाएगा। यही हाल चुनावी मशीनरी का है। लोग भूतपूर्व मुख्य चुनाव टीएन शेषन का नाम लेते हैं।
उनके दौर में सत्ता पुरुष भी कांपते थे। क्योंकि वे बेचारे संवैधानिक पर्दे के अमलदार थे। अब सब कुछ पारदर्शी है। यानि निर्वस्त्र है। अगर ये नंगापन चुभता है, तो आप पुरातनपंथी हैं। अपने समय से पीछे हैं। ‘आदर्श’ तो जुमला हो गया है। सिर नहीं धुनिए। राष्ट्रीय प्रहसन में किरदार बन जाइए। बस, मौजा ही मौजा रहेगी। जयहिंद।