मालिक और सेवक संवाद!

बात। भाई जी! आप मीडिया वाले हमारे साथ हो। दिल्ली से लखनऊ तक यही गनीमत है। वर्ना यह दलित, ओबीसी और मुसलमान, विश्वास के काबिल नहीं हैं। ससुरों! को चाहे जितना दो, खुशामद करो। लेकिन पूछ टेड़ी ही रहती है। मैंने कहा, हद हो गई। वोट के लिए हाथ जोड़ते भी हो और कुत्ता मानते हो। एक ने सफाई दी, सर हम कुत्ता नहीं कहते, पूछ का टेढ़ा होना, गंवई कहावत है…

वीरेंद्र सेंगर
मौसम चुनाव का हो, तो लोकतंत्र ठेठ जमीन पर उतर आता है। कंगाल चिरखू लाल भी मालिक बन जाते हैं। अरबपति नेता जी भी दोनों हाथ जोड़ कर, चिरखू जी! राम-राम कहते नजर आते हैं। बात रामपुर (उत्तर प्रदेश) के एक गांव की है। सड़क किनारे ही गांव बसा है। एक चौपाल में मजमा लगा था।

एक महिला दहाड़ मार रही थी। नेताजी कुछ फिल्मी स्टाइल में बोले जा रहे थे। ना नेताजी रुक रहे थे और ना स्यापा करने वाली दीन-हीन सी युवा औरत। नजारा किसी रंगशाला का लगा, तो मैंने भी गाड़ी रुकवा ली। आखिर चुनावी मौसम की थाह लेने को ही मन डोल रहा था।
भीड़ रही होगी करीब सौ बंदों की। चार-पांच बंदिया भी थीं। बस्ती दलितों और मुसलमानों की है। फूल वाली पार्टी का काफिला है। तीन सांसद हैं और भगवा पटका डाले करीब बीस-तीस पट्ठे हैं। तीन लग्जरी गाड़ियों में पधारे हैं। एक सांसद जी मुझे पहचानते हैं। जोर से जय श्रीराम की गुहार लगाते हैं।

मैं भी राम-राम कह कर उनका मान रखता हूं। दूर से ही कहते हैं, अरे! आप यहां? मैं हंसोड़ लहजे में कहता हूं, क्या आपको अच्छा नहीं लगा? मैं तो आपके राम काज में बाधा नहीं हूं। वे चतुराई से जवाब देते हैं, नहीं, आप तो आधुनिक नारद के कुनबे के हो। कहीं भी जा सकों। इशारे से बता देता हूं, आप अपना राम काज जारी रखिए।
वे अपने राम काज में फिर जुट जाते हैं।

आप सोच सकते हैं कि अजब घन चक्कर हैं, चुनावी काज को राम काज कहे जा रहा है। आखिर राम जी की भी कोई मयार्दा है न? तो सफाई दे दूं। बड़े सांसद जी की गाड़ी के पीछे एक पोस्टर चस्पा था। जिस में दर्ज था, ये चुनाव प्रचार नहीं, राम काज है। योगी सरकार को फिर लाना है।

राम काज का पताका और फहराना है।
सभी लोग कुर्सियों में बैठे थे। कह सकते हैं कि चौपाल, पहले से नियोजित थी। भगवा झंडे लगे थे। मिठाई के करीब दो सौ डिब्बों का ढेर भी नजर आ रहा था। तस्वीर साफ थी, आओ सुनो और मिठाई पाओ वोट का ठोस वायदा करो, तो समय आने पर मुट्ठी भी गर्म होगी। राम राज का अलौकिक आनंद भी एकदम मुफ्त। ये बात मैं हवा में नहीं कह रहा हूं।

विद्या माता की कसम खाकर कहता हूं कि काफिला जाने के बाद मुझे यह दिव्य ज्ञान सभा के स्थानीय आयोजकों ने ही दिया था। चूंकि सांसद जी कह गये थे कि ये हमारे मित्र पत्रकार हैं। सच्चे राजपूत हैं। मैं कुछ कहता, इसके पहले नेताजी कार में बैठकर रवाना हो लिये। मैं अपना क्षोभ जताकर भी क्या करता? नेताजी! सरासर मुझे नंगा कर गए थे।

वहां भगवा समर्थकों को लगा कि वे भगवा राष्ट्रवादी पत्रकार ही होंगे। बड़े विश्वास से अंदर की बात बताने लगे। बस, यह पूछते ही कि क्या माहौल है? एक बोला, आप तो अपने हो, क्या छिपाना? यही कहा, बता डालो। अंदर की बात। भाई

जी! आप मीडिया वाले हमारे साथ हो। दिल्ली से लखनऊ तक यही गनीमत है। वर्ना यह दलित, ओबीसी और मुसलमान, विश्वास के काबिल नहीं हैं। ससुरों! को चाहे जितना दो, खुशामद करो।

लेकिन पूछ टेड़ी ही रहती है। मैंने कहा, हद हो गई। वोट के लिए हाथ जोड़ते भी हो और कुत्ता मानते हो। एक ने सफाई दी, ह्यसर हम कुत्ता नहीं कहते, पूछ का टेढ़ा होना, गंवई कहावत है।
मैंने सवाल दागा, मुस्लिम बस्ती में आने की हिम्मत जुटा लेते हो? जवाब मिला, सर! गरीब की न कोई जाति होती है न धर्म। मुट्ठी गरम करो। वोट के एक दिन पहले खर्ची लिफाफा और दारू बंटवा दो। राम कसम! वोट हमारे बाप के। हम तो 2017 और 2019 में आजमा चुके हैं।

इस गांव के सारे वोट हमारी ही झोली में गए थे। युवा कार्यकर्ता ने बड़े आत्मविश्वास से कहा। मैंने प्रति प्रश्न किया, दलित वाले माया के लिए अपनी माया बहन को छोड़ दें, लेकिन मुसलमान कैसे वोट करेगा? एक ने तुरंत जवाब दिया, सर! आप लोगों को भी जमीनी सच्चाई नहीं पता कि पैसे में बहुत दम होता है? ये अल्लाह को हाजिर नाजिर करके हमसे लेते हैं और वोट भी देते हैं।

लेकिन अब मौसम बदला-बदला सा है। ये मुंह पर कह रहे हैं, वोट फूल को नहीं देंगे। अल्लाह के घर भी जवाब देना है। दलितों का भी यही हाल है। पैसे भी लेंगे वोट भी नहीं देंगे।
इस बीच चिल्लाने वाली महिला आ गई। पूछा, इतनी जोर से रो क्यों रही थीं? बोली, हजूर, इंसाफ मांग रही थी। पिछले एक महीने से बुर्का पहनकर इनके लिए काम कर रही हूं। 50 हजार मेहनताना तय हुआ था।

आधी रकम भी नहीं दी। इसलिए इनकी इज्जत उतारने आई थी। रोना तो बस ड्रामा था। चिरखू लाल प्रधान बोले, हम गरीब भी चुनावी मौसम में मालिक बन जाते हैं। दीन हीन मालिक। सेवकोंसे कुछ मोटा पाने की आस है। इस कंगाली के दौर में।

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