लाख घृणा के बावजूद यत्र-तत्र हिटलरी मानसिकता जिंदा है। वह कभी यूक्रेन जैसे देशों में नरसंहार कराती है तो कहीं धर्म और नस्ल भेद के नाम पर बजबजाते नये-नये नर्क गढ़ती है। वहीं, ईश्वर और संस्कृति के नाम पर गैर इंसानी रवायतें गढ़ती हैं, तो कहीं विश्व गुरु बनने की सनक पैदा करती है…
वीरेंद्र सेंगर
समय की बलिहारी है। समय काल बदलता है, तो बहुत कुछ बदल जाता है। समय थमता नहीं है। आगे बढ़ता रहता है। कभी थक कर बैठता नहीं। दिन भर ड्यूटी पर रहता है, एकदम चौकस। बस, डंका नहीं बजवाता कि रोज 18-18 घंटे काम करता है। जबकि सच्चाई है कि वह 247 काम करता आया है, युगों से। सबकी खबर लेता है। दुनिया में बड़े-बड़े पराक्रमी आए और चले गए। सिकंदर भी आये, हिटलर भी आये। बस, किस्सों का मंजर छोड़ गए। दुनिया का सभ्य समाज हिटलरों से घृणा करता रहेगा।
सिकंदरों की बहादुरी की गाथाएं चलती रहेंगी। लाख घृणा के बावजूद यत्र-तत्र हिटलरी मानसिकता जिंदा है। वह कभी यूक्रेन जैसे देशों में नरसंहार कराती है तो कहीं धर्म और नस्ल भेद के नाम पर बजबजाते नये-नये नर्क गढ़ती है। वहीं, ईश्वर और संस्कृति के नाम पर गैर इंसानी रवायतें गढ़ती हैं, तो कहीं विश्व गुरु बनने की सनक पैदा करती है।
विज्ञान और तकनीक का युग है। लेकिन इसकी यात्रा भी निर्बाध नहीं है। ढोंग और पाखंड भी नए-नए अवतार में इसे चुनौती देता रहता है। जहां पाखंडी धर्म, सत्ता के मर्म से नाजायज रिश्ते बना लेता है, वहां विज्ञान की सत्ता कमजोर होने लगती है। विकास चक्र की रफ्तार सुस्त होने लगती। पुरातन और जाहिल रवायतों की दुहाई का जयकारा लगता है। लोगों के दिमाग कुंद और जहरीले बनाये जाते हैं। कुछ मक्कार गिरोह स्वघोषित पुरोधा बन जाते हैं। कभी ब्रह्म ज्ञानी तो और कभी मौलाना बनकर लोगों के दिमाग बंधुआ बनाते हैं।
पाखंडी अनुलोम विलोम की यह प्रतिस्पर्धा जारी है। इसके बावजूद कि विज्ञान अब अपने डैने अंतरिक्ष तक रोज बढ़ा रहा है। इस सतत यात्रा में हम भी शामिल रहे हैं। इधर, जैसे युग करवट का दौर शुरू हुआ है। पुरातन संस्कृति के नाम पर बड़े-बडे़ स्वयंभू आ गये हैं। वो सीधे-साधे लोगों के दिमाग में ये बैठा रहे हैं कि हमें विकसित मुल्कों से सीखने की जरूरत कहां है! हम युगों-युगों से विश्व गुरु रहे हैं।
फिर से विश्व गुरु बनने की राह पर हैं। बस राज सत्ता सेक्यूलरों के हाथ में दोबारा नहीं जानी चाहिए। 60-70 साल सत्ता इन्हीं विधर्मियों के साथ में रही। इसी से गौ माता की महिमा घटी है। उसे निर्ममता से काटा गया। उसका शाप लगता रहा। ऋषि-मुनियों की परंपरा पर चोट होती रही। जबकि इनके ज्ञान से हमने पुण्य भारत भूमि में युगों पहले पुष्पक विमान बना लिये थे।
परमाणु की ताकत खोज ली थी। वेदों-उपनिषदों में विज्ञान के सूत्र रहे हैं। इन्हें ही चुराकर गोरों ने नये-नये आविष्कार के दावे किये। हमारे यहां प्रत्यारोपण की सर्जरी विज्ञान था। गणेश जी के कटे सिर पर हाथी का सिर लगाया गया था। आज हाथी सिर वाले गणेश जी की मान्यता पूरे विश्व में है। हम अपना पुराना गौरव भूल गये हैं। इसे फिर से याद करने का स्वर्णिम काल है।
आओ चलें, लौट चलें। उसी के लिए समर्पित हो जायें। भूल जाएं! पानी, बिजली, रोजगार और महंगाई जैसी नश्वर समस्याएं। यह तय करना है कि सतयुग की ओर कौन लोग और कौन विचार आगे ले जायेगा?
मैं दावे से कहता हूं कि पिछले सात-आठ साल से विकास का नया युग शुरू हो चुका है। नये दौर में सड़ी-गली तमाम मान्यताएं टूटती हैं, तो सेक्यूलरों के गैंग चीख पुकार मचाते हैं।
यही कि दईया ये दईया लोकतंत्र खतरे में है। संविधान डेंजर जोन में आ गया है। मनुस्मृति का जाहिल दौर लौटाने की कोशिश हो रही है। वो तो गनीमत यही कि इस महादेश की बहुसंख्यक जनता गौ माता की तरह भोली-भाली है। वह भी बगैर सींग के। आस्था की ललक इतनी है कि शीश नवाने के लिए उसे खास मंदिर की जरूरत नहीं होती।
गांव-गांव, देहरी-देहरी अनंत देवता हैं। कुछ के तो आकार भी नहीं हैं। कुछ ग्राम्य देवता हैं, तो कोई ताल्लुका का बड़ा देव। समय के साथ नये देवी-देवता अवतरित होते रहते हैं। संतोषी माता हाल का अवतरण रहा।
लेकिन वही देव ज्यादा दीर्घकालिक लोकप्रिय होता है, जो समय के हिसाब से मनौती पूरी करने की कुव्वत रखता है। ऐसा विश्वास दिला दिया गया हो।
अब तो एक दबंग कुनबा पार्टी का दौर है। वो देश को विश्व गुरु बनाने जा रही है। उसके करोड़ों गण ये बताने के लिए निकल पड़े हैं, कि क्या-क्या नहीं खाना है? क्या नहीं पहनना है? भारत को पुराना खांटी गौरव लौटाना ही है। सो, जो नारों से नहीं मानेगा, वो दंड से मानेगा।
मांस भक्षण नहीं चलेगा। जेएनयू वालों के सिर भी फोड़े जायेंगे। कानून जायेगा तेल लेने। पत्रकार भी ज्यादा सवाल करेंगे? साहेब के चुने चारणों की आलोचना करेंगे, तो नंगे किये जायेंगे। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के एक थाने में दिगंबर रैली याद कर ले। जनबा ये दिगंबर काल है।