सांप्रदायिकता का कलंक!

आज देश में सांप्रदायिक समरसता, परस्पर सद्भाव की महत्ती जरूरत है। सरकार को चुनावी लाभ-हानि के तुच्छ गणित से ऊपर उठकर सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाले तथाकथित धार्मिक संगठनों के खिलाफ बिना किसी भेदभाव के कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। यदि सांप्रदायिकता के जहरीले नागों के फन जल्द नहीं कुचले गये तो ये देश के लिए घातक साबित होंगे….
धर्मपाल धनखड
प्रे म और सौहार्द के प्रतीक रामनवमी के त्यौहार पर सांप्रदायिक हिंसा होना सभ्य भारतीय समाज के लिए शर्म का विषय है। नि:संदेह इस घिनौनी करतूत को अपने-अपने धर्मों पर अतिरिक्त गर्व करने वाले कट्टरपंथियों ने अंजाम दिया है। रामनवमी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाने वाला पर्व है।

लेकिन पिछले कुछ बरसों में शांति और पवित्रता के साथ मनाये जाने वाले त्यौहारों पर हुड़दंगबाजी और उन्माद हावी होता जा रहा है। इसके चलते त्यौहार को मनाने का असली मकसद खत्म हो जाता है। वहीं, त्योहार की आड़ में जबरन विवाद पैदा करके धर्म रक्षा के नाम पर बेरहमी से मानव रक्त बहाया जाता है और लाखों करोड़ों की सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को आग में स्वाहा कर दिया जाता है।

सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसने वाले लोग बरसों तक इनका दंश झेलने को अभिशप्त हो जाते हैं। इसकी टीस कई पीढ़ियों तक महसूस की जाती है। दंगों के पीछे राजनीति और धर्म के ठेकेदारों का हाथ जरूर होता है। भले ही शुरूआत मामूली कहासुनी से हो, लेकिन राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले आग में घी डालने का काम करते हैं। राजनीतिक पार्टियां अपना फायदा देखती हैं और अंजाम आम जनता को भुगतना पड़ता है।
राम नवमी के मौके पर झारखंड, मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, बिहार, बंगाल और गोवा समेत कई राज्यों में शोभा यात्राओं पर पथराव की घटनाएं हुईं। नि:संदेह इन हिंसक घटनाओं के पीछे कट्टरपंथियों का ही हाथ है। पिछले कुछ अर्से से देश में उग्र हिंदुत्व के समर्थक, मुस्लिम समुदाय के खिलाफ खुलेआम जहर उगल रहे हैं, तो दूसरी तरफ के कट्टरपंथी भी उनके मकसद को पूरा करने के लिए तैयार रहते हैं।

पिछले साल दिसंबर में हरिद्वार और छत्तीसगढ़ में हुई धर्म संसदों में खुलेआम हिंदुत्व के धर्म ध्वज वाहक कथित संतों ने अन्य धर्मों और खास तौर पर मुस्लिमों के प्रति भड़काऊ बयानबाजी की थी। इस पर क्रिया की प्रतिक्रिया भी हुई। अर्थात दूसरी तरफ से भी जहरीले बयान दिये गये। बयानवीरों का मकसद पांच राज्यों में होने वाले चुनाव के लिए मतदाताओं का ध्रुवीकरण करना और अपने राजनीतिक आकाओं की नजरों में आना था।

इसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। इसी मकसद से कर्नाटक के हिजाब विवाद को भी अनावश्यक तूल दिया गया था। जिन राज्यों में रामनवमी पर हिंसा हुई है, उनमें से दो में इस साल के अंत और तीन में अगले साल के मध्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसे संयोग तो कतई नहीं माना जा सकता। जाहिर है कि ये सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।

दो अप्रैल को राजस्थान के करौली में भड़के दंगे से इसकी शुरूआत हुई थी। यहां भी प्रशासन मूक दर्शक बना रहा। राजस्थान में भी मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के साथ अगले साल चुनाव होने हैं। इसलिए पहले से ही सांप्रदायिक तनाव फैलाने की साजिश की जा रही है। एक बात साफ है कि जहां-जहां दंगे हुए वहां पुलिस प्रशासन विफल रहा है।

अगर एतिहात बरती जाती तो दंगों की साजिश को विफल किया जा सकता था। उदाहरण के तौर पर हम मध्यप्रदेश के खरगोन की घटना को लें तो वहां पर हिंसा भड़कने से करीब पांच घंटे पहले दो गुटों में झड़प हुई थी। मामला बातचीत के जरिये शांत करवा दिया गया। यदि प्रशासन सतर्कता बरतता तो इस अनहोनी को टाला जा सकता था। दूसरी तरफ, दंगे को रोकने में नाकाम रहने वाले प्रशासन ने दंगे के बहाने कर्फ्यू की आड़ में बुलडोजरी न्याय देना शुरू कर दिया।

जुलूस पर पथराव करने वालों के अवैध निर्माणों को गिरा दिया। अब सवाल उठता है कि यदि ये निर्माण अवैध थे तो इन्हें पहले क्यों नहीं हटाया गया! क्या इन्हें हटाने के लिए जिला प्रशासन और मध्यप्रदेश सरकार दंगे भड़कने का इंतजार कर रहे थे? इसी प्रकार अन्य प्रदेशों में भी हिंसक घटनाएं हुई, उन्हें पुलिस प्रशासन सजगता और सतर्कता से टाल सकता था।

लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति और स्पष्ट शासकीय निर्देशों के अभाव मे ऐसा नहीं हो सका। हिंसक घटनाओं के बाद राजनीतिक दलों और तथाकथित धार्मिक संगठनों के नेताओं को रोटियां सेंकने का सुनहरा मौका मिल गया। एक दूसरे को दंगों के लिए दोषी ठहराने की बयानबाजी जारी हैं। फसाद के असल कारकों और कारकूनों की जानकारी पुलिस प्रशासन व सरकारों को हैं, लेकिन कार्रवाई के नाम पर महज लीपापोती का खेल खेला जाता है।
आज देश राजनीतिक और सामाजिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। देश के समक्ष महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक चुनौतियां विकराल रूप धारण किये हैं। विश्व के अनेक देश महामारी के बाद आर्थिक रूप दिवालिया हो चुके हैं। कॉर्पोरेट जगत के अगुआ एक-एक करके बैंकों का धन लेकर विदेश भाग रहे हैं। भ्रष्टाचार का दानव देश को खोखला कर रहा है।

पड़ोसी दुश्मन देश मौके की ताकत में हैं। मित्र देशों का झुकाव भी दुश्मन की तरफ बढ़ रहा है। यूक्रेन युद्ध के चलते पूरा विश्व दो धड़ों में बंट रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ बेमानी हो चुका है। तमाम देशवासी एकजुट होकर इन चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए चंद स्वार्थी लोग देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने की साजिशें रच रहे हैं।

आज देश में सांप्रदायिक समरता, परस्पर सद्भाव की महत्ती जरूरत है। सरकार को चुनावी लाभ-हानि के तुच्छ गणित से ऊपर उठकर सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाले तथाकथित धार्मिक संगठनों के खिलाफ बिना किसी भेदभाव के कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। यदि सांप्रदायिकता के जहरीले नागों के फन जल्द नहीं कुचले गये तो ये देश के लिए घातक साबित होंगे।

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