टीकाकरण की चुनौतियां

तीसरी लहर की संभावना के मद्देनजर डब्ल्यूएचओ ने दिए निर्देश

भारत में वैक्सीन वितरण की वैतरणी पार करना आसान नहीं

आलोक भदौरिया

नई दिल्ली। बेल कोरोना वायरस एक बार फिर सिर उठा रहा है। कई देशों ने इससे निपटने की पुख्ता रणनीति बना ली है। लेकिन, भारत में टीकाकरण की स्पष्ट नीति का अभाव है। दूसरा टीका कब लगना है, कौन पात्र हैं, इस पर निर्णय अब तक हो नहीं पाया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी देशों से सतर्कता बढ़ाने को कहा है। क्या हम तीसरी लहर के संभावित संकट से निपटने के लिए तैयार हैं?
पहली लहर के बाद इसके खात्मे की घोषणाएं जोर-शोर से कर दी गई थीं। दावोस में हुए सम्मेलन में भी कोरोना पर जीत की घोषणाएं दोहराई गई थीं। लेकिन, बाद में क्या हुआ? दूसरी लहर ने हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल दी। महामारी से निपटने के लिए यह तैयार नहीं थी। तमाम कमियां सामने आईं।
सवाल उठता है कि इन कमियों से निपटने के लिए बाद में क्या तैयारियां की गई? हम कितने सतर्क हुए? याद करें कि पिछली गर्मियों में आई लहर के दौरान आक्सीजन की किल्लत की खूब सुर्खियां बनीं थीं। अस्पतालों में वेंटीलेटर की बड़े पैमाने पर कमियां और इनके चालू हालत में न होने की खबरें भी आम थीं। खुद प्रधानमंत्री ने वेंटीलेटर खराबी के मामले सामने आने पर राज्य सरकारों से जांच के लिए कहा था।
क्या आप जानते हैं कि जांच का क्या हुआ? क्या आप जानते हैं कि इन्हें चलाने वाले प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी या टेक्नीशियन की नियुक्ति कर दी गई? आक्सीजन संयंत्र बड़े पैमाने पर लगाने की घोषणाएं हुई हैं। क्या आप जानते हैं कि एक सरकारी अस्पताल में आॅक्सीजन बेड की उपलब्धता की स्थितियां क्या हैं? कुल बेड में कितने बेड पर पाइप के जरिए आक्सीजन पहुंचाई जा सकती हैं?
केंद्र सरकार ने एक अप्रैल से आपदा प्रबंधन एक्ट को निष्प्रभावी कर दिया है। देशभर में कोरोना संक्रमण की संख्या डेढ़ हजार के इर्द-गिर्द होने के कारण यह कदम उठाया गया है।

यह सही है कि मास्क और सामाजिक दूरी के मामले में लापरवाही न बरतने की अपील भी की गई। यानी सरकार ने भी मान लिया कि अब यह महामारी के स्तर पर खतरनाक नहीं है।
लेकिन, यही आश्वस्ति का भाव पहले भी आ चुका था। दुनिया में कई देशों में यह फैल रहा है। दक्षिण कोरिया में तो कोरोना संक्रमितों की संख्या लाखों तक हो गई है।

इजरायल में ओमिक्रॉन बीए.1 और बीए.2 से मिलकर बना एक नया वेरिएंट सामने आ चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुुताबिक, पूर्वी यूरोप के बेलारूस, जॉर्जिया में फिर से फैल रहा है। हांगकांग, चीन में भी फैल रहा है। चीन में तो एक शहर में लॉकडाउन तक लगाना पड़ा है।
दक्षिण कोरिया में तो एक दिन में छह लाख से ज्यादा संक्रमण की पुष्टि हुई है। दक्षिण कोरिया ने टेस्टिंग में 1.3 अरब डॉलर तक खर्च कर दिए। यही वजह है कि वहां कभी भी इस महामारी से ज्यादा लोगों की जानें नहीं गईं। कभी लॉकडाउन नहीं लगाया।

एक मिसाल इस देश ने कायम की है। पूरी आबादी को दो बार तो टीका पहले ही लगाया जा चुका है। यहां 88 फीसदी आबादी को बूस्टर डोज भी दी जा चुकी है।
अमेरिका और यूरोप के जर्मनी, फ्रांस, इटली, ब्रिटेन में भी बूस्टर डोज काफी बड़ी आबादी को लग चुकी है। इजरायल में चैथी डोज की तैयारी है। काबिलेगौर है कि इन देशों में वैक्सीन की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है। समूची आबादी को बूस्टर डोज न लगने की वजह लोगों का इसके लिए तैयार न होना है। उपलब्धता की कोई समस्या नहीं है।
लेकिन, हमारे देश में स्थिति उलट है। टीकाकरण को लेकर कोई साफ नीति नहीं है। कभी कहा जाता है कि प्रीकॉशन डोज साठ साल से ऊपर की आयु के कई बीमारियों से पीड़ित लोगों को ही मिलेगी। फिर संशोधन होता है कि साठ साल से ऊपर की आयु के लोगों को भी मिलेगी।

क्या मिक्स और मैच यानी जिसे को-वैक्सीन लगी है उसे तीसरी डोज कोविशील्ड की या जिसे कोविशील्ड की दो डोज लग चुकी है उसे तीसरी डोज कोवैक्सीन या अन्य वैक्सीन की दी जा सकती है?
विशेषज्ञों का रुख एकदम साफ नहीं है। क्या मिक्स और मैच का फामूर्ला अपनाया जाएगा? क्या यह पर्याप्त मात्रा में एंटीबॉडी बनाता है? क्या नोबेल कोरोना वायरस से बचाव का यह फामूर्ला अमोघ अस्त्र होगा? क्या हम लोग अब भी विदेशों में हुए अध्ययन के सहारे बैठे हैं? क्या देश में इसका व्यापक अध्ययन किया जा रहा है। वेल्लोर में एक अध्ययन की बात सामने आई है।

पर, सैम्पल साइज क्या है? अन्य विशेषज्ञ क्या इस अध्ययन से संतुष्ट हैं? या उन्हें लगता है कि इस मामले में और अध्ययन की जरूरत है।
इन सवालों के जवाब सामने नहीं आ पा रहे हैं। ऐसा क्यों? एक सवाल यह भी है कि कब तक जवाब मिलेंगे? कब पता चलेगा कि मिक्स और मैच पर अमल होगा भी कि नहीं? ऐसा ही मसला तीसरी प्रीकॉशन या बूस्टर डोज का भी है। 45 की आयु वर्ग के अधिसंख्य लोग लाइफस्टाइल बीमारियों जैसे डायबिटीज, ब्लड प्रेशर या अन्य बीमारियों के शिकार होते हैं। इन लोगों को बूस्टर डोज के दायरे में कब लाया जाएगा?
दरअसल, नीति में स्पष्टता के अभाव में टीकाकरण की रफ्तार में तेजी नहीं आ सकती है। यह सही है कि देश में टीकाकरण कम नहीं हुआ है। स्पष्टता से आशय है कि कोई समयसीमा तो स्वास्थ्य मंत्रालय तय करें कि फलां-फलां तारीख से 45 से ऊपर की बीमारियों से ग्रस्त लोगों का टीकाकरण किया जाएगा।

ऐसी जानकारी होने पर दवा निमार्ता कंपनियां भी अपना उत्पादन बढ़ा सकती हैं। याद करें कि कोविशील्ड निमार्ता कंपनी सीरम इंस्टीच्यूट आफ इंडिया ने हाल में कहा था कि सरकार से आॅर्डर न मिला तो उत्पादन में कटौती करनी पडेगी। ऐसी स्थिति किसी भी कंपनी के समक्ष आ सकती है। बगैर आर्डर के कोई भी बड़ी मात्रा में वैक्सीन का निर्माण जारी नहीं रख सकता है।

तो मामला कहां अटका है? क्या यह उचित नहीं होगा कि सरकार पहले अपनी नीति स्पष्ट करे कि 45 से ऊपर की आयु के बीमार लोगों को कब दायरे में लाया जाएगा? या इसके बाद अन्य गंभीर बीमार लोगों को कब टीका दिया जाएगा, भले ही वह किसी भी आयु के क्यों न हो?
महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि वैक्सीन से पैदा हुई एंटीबॉडी का असर छह से आठ माह में खत्म हो जाता है। यानी पहली और दूसरी डोज पिछले साल के शुरूआती दौर में लेने वाली एक बड़ी आबादी का सुरक्षा चक्र टूट चुका है। दूसरे शब्दों में एक बड़ी आबादी फिर से इस वायरस की चपेट में आ सकती है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।
तो फिर रास्ता क्या बचा है? यह नहीं भूलना चाहिए कि ओमिक्रॉन के चलते भले ही लोगों की जान पर न बन पड़ी हो। पर, नए वेरियंट के खतरनाक न होने की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता। विशेषज्ञों की मानें तो वायरस रूप बदलता रहता है। म्यूटेंट इसकी खास प्रकृति होती है।
अब अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें भी चालू हो चुकी हैं। अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए यह भी जरूरी है। औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां तेजी पकड़ रही हैं। महामारी से जुड़ी सभी बंदिशें खत्म हो चुकी हैं। लेकिन, हम लोगों को ढिलाई से बचना चाहिए। जब कोरोना वैक्सीन ईजाद की जा रही थी तो अमेरिका ने अपनी दवा कंपनियों को बड़े आर्डर पहले ही दे दिए थे। लेकिन, यहां ऐसा नहीं हुआ था। वैक्सीन कंपनियों को आर्डर देश की आबादी की जरूरत के हिसाब से काफी पहले नहीं दिए गए थे।
हालांकि, अब कई वैक्सीन सामने आ चुकी हैं। जरूरत है कि टीकाकरण की नीति को स्पष्ट किया जाए। टीकाकरण ही एकमात्र बचाव है। वैज्ञानिक अध्ययन सामने आने चाहिए। हम बस अपनी तैयारियों को मुकम्मल रूप दे सकते हैं। क्या हम ऐसा कर रहे हैं?

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