सेनापतियों में केंद्र के प्रतिनिधियों की भरमार, चुनौतियों भरा ताज

यूपी में 19 सीटों के हुए नुकसान को कंट्रोल करने में जुटे दिग्गज

  •  मंत्रिमंडल के विस्तार में हर तरह का संतुलन बैठाने की कोशिश की गई

अमरेंद्र कुमार राय

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ एक बार फिर मुख्यमंत्री बने हैं। 37 सालों बाद यह पहला अवसर है जब किसी पार्टी ने लगातार दूसरी बार दो तिहाई बहुमत से जीतकर सरकार बनाया है। उससे भी बड़ा इतिहास यह है कि पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई मुख्यमंत्री अपने पहले दौर में लगातार पांच साल मुख्यमंत्री रहा हो और फिर चुनाव जीतकर दूसरी बार मुख्यमंत्री बना हो। योगी जी के मंत्रिमंडल में 52 मंत्रियों ने शपथ ली है। इनमें 18 कैबिनेट मंत्री और 34 राज्य मंत्री हैं। राज्य मंत्रियों में 14 को स्वतंत्र प्रभार दिया गया है।
यूपी चुनाव के नतीजे बाकी चार राज्यों के साथ ही 10 मार्च को आ गए थे। लेकिन शपथ ग्रहण करने में योगी जी को 15 दिन लग गए। जिस ठसक के साथ योगी जी चुनाव जीतकर आए थे उससे यह बात तो साफ थी कि मुख्यमंत्री वही बनेंगे। लेकिन बाकी मंत्री कौन-कौन होंगे इसे लेकर लंबे समय तक दिल्ली और लखनऊ में लगातार विचार-विमर्श चला। बीजेपी को पता है कि यूपी देश का राजनीतिक तौर पर सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। यहां से बीजेपी की लोकसभा की 64 और सहयोगियों को मिलाकर 73 सीटें हैं।

लेकिन अभी जो चुनाव हुए हैं उस आधार पर देखें तो बीजेपी सहयोगियों के साथ 54 सीटें ही हासिल करती दिख रही है। इस तरह उसे अभी ही 19 सीटों का नुकसान हो रहा है। पार्टी ने चुनावों के नतीजों की घोषणा के बाद 15 दिन इसी बात के लिए लगाए कि कैसे इस नुकसान को कम से कम किया जाए।
आप मंत्रिमंडल के विस्तार और मंत्रियों की स्थिति को देखेंगे तो पाएंगे कि इसमें हर तरह का संतुलन बैठाने की कोशिश की गई है। अनुभवी मंत्रियों के साथ नये चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है। कई तुर्रम खां लोगों की छुट्टी भी कर दी गई है। कुल 22 पुराने मंत्रियों का पत्ता कटा है, जबकि टास्क पूरा करने वालों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है। पूर्वी छोर से लेकर पश्चिमी छोर तक हर तरफ के लोगों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई है। जातीय आधार पर देखें तो भी इसमें संतुलन बनाने की कोशिश की गई है।

सवर्णों से लेकर ओबीसी और दलितों तक को शामिल किया गया है। यहां तक कि एक भी मुस्लिम को टिकट न देने के बावजूद एक मुस्लिम को मंत्री बनाया गया है। मंत्रिमंडल में आठ ब्राह्मण, छह ठाकुर, पांच जाट, दो भूमिहार, एक कायस्थ और एक मुसलमान को जगह दी गई है। योगी की पिछली सरकार पर आरोप था कि वह ठाकुरवाद कर रही है। लेकिन इस बार कम से कम मंत्री पद के मामले में ब्राह्मणों की यह शिकायत दूर करने की कोशिश की गई है।
मंत्रिमंडल में 46 जीते ब्राह्मण विधायकों में से आठ को मंत्री बनाया गया है जिसमें एक उप मुख्य मंत्री ब्रजेश पाठक भी हैं। चुनाव में कुल 43 ठाकुर जीते जिसमें से छह को मंत्री बनाया गया है। सबसे हैरत वाली बात जाटों को लेकर है। उनके कुल आठ विधायक ही चुने गए जिसमें पांच को मंत्री बनाया गया है। इस मामले में भूमिहारों की स्थिति भी अच्छी कही जा सकती है। उनके जीते कुल चार विधायकों में दो मंत्री बन गए हैं।

65 जीते दलितों में से सिर्फ आठ को मंत्री बनाया गया है। जिनकी बहुत चर्चा थी उन बेबी रानी मौर्य को उप मुख्यमंत्री भी नहीं बनाया गया है। मंत्रिमंडल में ओबीसी के भी करीब 20 मंत्री बनाए गए हैं। पांच महिलाओं को भी जगह दी गई है।
वैसे सरसरी तौर पर देखने में तो सब ठीक लग रहा है। लेकिन थोड़ा बारीकी से देखिए तो पता चलेगा कि यह मंत्रिमंडल बहुत कुछ कह रहा है। मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों को देखने से साफ साफ जाहिर होता है कि यह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मंत्रिमंडल कम और केंद्र के नरेंद्र मोदी और अमित शाह का मंत्रिमंडल ज्यादा है। थोड़ा पीछे जाकर देखें।

2017 के विधान सभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ चुनाव नहीं लड़े थे। दूर-दूर तक उनका नाम मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं था। लेकिन चुनावों के बाद जब मुख्यमंत्री चुनने की बात आई तो केंद्र की मोदी और शाह की जोड़ी ने तब के संचार राज्य मंत्री और रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा को चुना। इससे योगी जी बहुत नाराज हुए और तांडव दिखाकर खुद मुख्यमंत्री बन गए। मोदी-शाह को यह पसंद तो नहीं आया। वे खून का घूंट पीकर रह गए। फिर भी उन्होंने योगी जी को ऐसा बांधा कि वो हर काम के लिए केंद्र पर निर्भर हो गए।

पर योगी ने धीरे-धीरे टाइट बंधी रस्सियों को ढीला किया और एक समय ऐसा भी आया कि वे केंद्र को फिर से आंखें दिखाने लगे। ऐन चुनावों से पहले केंद्र उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहता था लेकिन योगी जी के तेवर देखकर वे डर गए। उन्हें लगा कि कहीं योगी को हटाना उन्हें भारी न पड़ जाए। मजबूरी में योगी जी के नेतृत्व में ही चुनाव में जाने का फैसला हुआ। योगी जी ने उस फैसले को सही साबित किया और पार्टी को दो तिहाई बहुमत दिलाने में सफल रहे। पिछली बार की जीत योगी जी की नहीं मोदी-शाह की थी, लेकिन इस बार की जीत योगी जी की जीत है।

यह बात भी काबिले गौर है कि चुनाव के बाद योगी के कद और उनके योगदान को कम करने की कोशिश की जाने लगी। 2014 का चुनाव जीतने पर मोदी जी ने अमित शाह को मैन आफ द मैच कहा था। 2017 में यूपी का चुनाव जीतने का सेहरा भी उन्हीं के सिर बांधा। लेकिन अब 2022 में कोरोना, बेरोजगारी, महंगाई की विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जब योगी जी ने शानदार प्रदर्शन किया तो इस श्रेय को लेने के लिए मोदी जी, अमित शाह, भूपेंद्र सिंह, सुनील बंसल सबको खड़ा कर दिया गया। शपथ ग्रहण समारोह को भव्य बनाकर भी उन्होंने सारा क्रेडिट खुद लेने की कोशिश की। इसमें केंद्रीय मंत्रियों के अलावा बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी भाग लिया।
मंत्रिमंडल देखकर ऐसा लगता है जैसे योगी जी जीतकर भी हार गए हैं। कुछ समय पहले मोदी के बेहद करीब आईएएस अरविंद कुमार शर्मा नौकरी छोड़कर यूपी की राजनीति करने आए थे। चर्चा थी कि उन्हें एमएलसी बनाकर उप मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। पर मोदी जी ने उनकी एक न चलने दी। उपमुख्यमंत्री तो क्या उन्हें मंत्रिमंडल तक में शामिल नहीं किया। बाद में उन्हें पार्टी के ढेर सारे उपाध्यक्षों में से एक बनाया गया। लेकिन अब वही अरविंद शर्मा कैबिनेट मंत्री बनाये गए हैं। जाहिर है वे योगी की मर्जी से तो नहीं ही बने होंगे। योगी को मजबूरन उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ा होगा।

इसी तरह योगी जी के पिछले कार्यकाल में जो उनके करीबी मंत्री थे और हर रोज टीवी पर दिखा करते थे उन्हें चुनाव जीतने के बावजूद मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। चाहे वे श्रीकांत शर्मा हों या सिद्धार्थ नाथ सिंह। दोनों योगी जी के बेहद करीबी थे। इसी तरह असीम अरुण को भी केंद्र का ही प्रतिनिधि बताया जा रहा है। असीम अरुण पूर्व आईपीएस हैं। उन्हें पार्टी ज्वाइन करते समय ही उनकी भूमिका बता दी गई थी। असीम अरुण यूपी में एटीएस के इंचार्ज थे और उनके नेतृत्व में एटीएस ने बहुत अच्छा काम किया था। ये यूपी के पूर्व डीजीपी अरुण राम के पुत्र हैं।
मंत्रिमंडल में शामिल इन दो अफसरों को देखकर ऐसा लगता है कि मंत्री कोई भी हो इस बार केंद्र ने ब्यूरोक्रेसी के ही सहारे यूपी को चलाने का फैसला किया है। कम से कम अगले दो सालों तक। जब तक कि लोक सभा के चुनाव नहीं हो जाते और केंद्र यूपी में उम्मीद के अनुरूप नतीजे नहीं हासिल कर लेता। इस बार भी यूपी जीत का श्रेय केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं को ही बताया जा रहा है। मोदी-शाह को लगता है कि अगर केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं को ठीक से लागू किया जाए और जन-जन तक पहुंचाया जाए तो यूपी में नतीजे पहले जैसे ही बेहतर आएंगे। शायद इन दोनों अधिकारियों को योजनाओं के कार्यान्वयन को ध्यान में रखकर ही मंत्री बनाया गया है।
इन दो पूर्व अफसरों के अलावा नेताओं में भी कार्य को बखूबी अंजाम देने वालों को ही मंत्री बनाया गया है। पूर्व उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा की भी इसीलिए छुट्टी की गई क्योंकि न तो उनका ब्राह्मणों में कोई आधार था और न ही वे कार्यों को ठीक से अंजाम दे पाते थे। उनकी जगह ब्रजेश पाठक को इन्हीं दो वजहों से उप मुख्यमंत्री बनाया गया। ब्रजेश पाठक का आधार भी है और ब्राह्मणों में भी वे बड़े नेता माने जाते हैं।

लेकिन इन सबसे भी उनकी बड़ी खूबी यह है कि वे अपनी सही बात जरूर उठाते हैं और तार्किक ढंग से सामने रखते हैं। इसके साथ ही उन्हें जो जिम्मेदारी दी जाती है उसे बखूबी पूरा करते हैं। अपने इलाके में उनकी छवि एक जन नेता की है। इसी तरह स्वतंत्र यादव हैं। उनकी छवि परफेक्ट टास्क मास्टर की है। उन्होंने बीजेपी राज्य इकाई के अध्यक्ष की जिम्मेदारी ठीक से उठाई और पार्टी के सभी मातहत संगठनों में गजब का तालमेल बिठाया। सबको साथ लेकर चलने और मिल कर काम करने का लाभ चुनावों में मिला।

दया शंकर सिंह भी केंद्र के ही प्रतिनिधि बताये जाते हैं। उन्होंने पूरे राज्य में ओबीसी के सम्मेलन कराये और उनकी कोशिशों की वजह से ही ओबीसी को जोड़ने में बीजेपी को मदद मिल सकी। मंत्रिमंडल में पांच लोग ऐसे भी हैं जो दोनों सदनों में से किसी के भी सदस्य नहीं हैं। लेकिन उनकी छवि टारगेट पूरा करने वालों की है। इसीलिए उन्हें भी मंत्री बनाया गया है।
दानिश आजाद बलिया से हैं। बीजेपी की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से उन्होंने राजनीति की शुरूआत की। 2018 में उन्हें उर्दू भाषा समिति का सदस्य बनाया गया और राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया। बाद में उन्हें राज्य अल्पसंख्यक आयोग का महासचिव बनाया गया। और अब उन्हें मोहिसिन रजा की जगह मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। इसी तरह दया शंकर मिश्र वाराणसी से हैं और उन्हें स्वतंत्र प्रभार वाला राज्य मंत्री बनाया गया है। ये 2017 में कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आए थे।

उन्होंने बनारस और आस पास के क्षेत्रों में बुद्धिजीवियों को अपने साथ जोड़कर केंद्र की बड़ी तारीफ हासिल की। मिश्र डीएवी कॉलेज के प्रिंसिपल थे। और उनकी इसी योग्यता को देखते हुए उन्हें पूर्वांचल विकास बोर्ड का प्रेसिडेंट बनाया गया था। इसी तरह आईआईटी के जेपीएस राठौर पश्चिमी यूपी में चुनाव इंचार्ज थे। ऐसा माना जा रहा है कि उनके योगदान के कारण ही जाटों की नाराजगी के बावजूद बीजेपी ने इस क्षेत्र में इतनी शानदार सफलता हासिल की है। जसवंत सैनी ने कभी कोई विधानसभा का चुनाव नहीं जीता।

लेकिन पार्टी के कार्यों को हमेशा उन्होंने जी जान से पूरा किया। नरेंद्र कश्यप बसपा के एमपी रहे हैं। बीजेपी ज्वाइन करने के बाद पार्टी ने उन्हें राज्य ओबीसी मोर्चा का अध्यक्ष बनाया। बिना किसी शोर-शराबे और दिखावे के पार्टी का काम गंभीरता से करने वाले नेता के रूप में इनकी छवि बनी। उसी का पुरस्कार इन्हें मंत्री बनाकर दिया गया।
बीजेपी चुनाव जीत गई है। उसकी सरकार बन गई है। लेकिन उसकी चुनौतियां पहले से कहीं बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं। उसकी पहली परीक्षा 2024 के लोक सभा चुनावों में होनी है। तो ऐसा लगता है कि 2024 तक तो यूपी में सब ठीक रहने वाला है। लेकिन इसके तुरंत बाद बीजेपी में एक नया तूफान भी खड़ा होने की आशंका है। 2024 में केंद्र का भविष्य बहुत कुछ यूपी के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा।

अगर यूपी का प्रदर्शन गड़बड़ाया तो बलि का बकरा योगी जी को बनाया जा सकता है। और अगर प्रदर्शन अच्छा रहा तो योगी जी का कद और बढ़ जाएगा। मुख्यमंत्री बनने की इच्छा उनकी पूरी हो चुकी है और वे केंद्र की राजनीति खासकर उनकी नजर पीएम की कुर्सी पर भी हो सकती है। जब योगी जी पहली बार सीएम बने थे तभी उनके समर्थकों ने नारा दिया था मोदी है नाम का, योगी है काम का। दोनों ही स्थितियों में बीजेपी में तूफान की आशंका रहेगी। लेकिन अभी ये दूर की बात है। फिलहाल तो योगी जी पूरे धमक के साथ दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं।

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