पटना : राज्य सरकार ने सेनारी नरसंहार के मामले में हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल कर दी। इसी के साथ विवादों का नया सिलसिला भी शुरू हो गया है। कारण राज्य सरकार ने अब तक पिछले किसी भी नरसंहार के बाद हाई कोर्ट फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल नहीं की है।
बिहार पहले से ही जातीय राजनीति करने के कारण बदनाम रहा है। इसी बीच राज्य सरकार के इस फैसले के बाद पुनः जातीय एंगल तेज हो गया है। विपक्ष खासकर पिछड़ी जाति के नेताओं ने इस संबंध में आवाजें उठाने शुरू कर दी हैं कि नरसंहार के मामले में एवं उसके फैसले के मामले में राज्य सरकार का रवैया बिल्कुल पक्षपातपूर्ण है। वह दलितों एवं अत्यंत पिछड़ी जातियों के साथ हुए नरसंहार में अभियुक्तों के छूट जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं कर पाई थी।
राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक पूर्व में भी पटना उच्च न्यायालय द्वारा कई यैसे नरसंहारों के अभियुक्तों को दोषमुक्त किया जा चुका है। जिन्हें निचली अदालतों ने दोषी करार देते हुए सजा दी थी। फिर उन नरसंहारों पर सरकार की चुप्पी और सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दिये जाने की वजह क्या है?
निचली अदालतों द्वारा मियाँपुर , बारा, शंकर बिगहा, लक्षमणपुर बाथे में हुए नरसंहारों के सजायाफ्ता अभियुक्तों को पटना उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर रिहा कर दिया गया था। उस समय भी उच्च न्यायालय के फैसले के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिये जाने की माँग की गई थी। पर सरकार अथवा सत्ता पक्ष की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी थी। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि उक्त नरसंहारों के सजायाफ्ता अभियुक्तों को पटना उच्च न्यायालय द्वारा दोषमुक्त करार दिए जाने के बाद भाजपा और जदयू नेताओं की कोई प्रतिक्रिया भी नहीं आयी थी। बल्कि इन दोनों दलों ने उस फैसले का स्वागत ही किया था। क्या दलों के विचार और नजरिया सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर तय होते हैं ?
बिहार में नरसंहार के दौर की शुरूआत 1976 में अकौडी ( भोजपुर ) और 1977 में बेलछी ( पटना) से शुरू हुई थी। फिर 1978 में दवांर बिहटा ( भोजपुर ) में 22 दलितों की हत्या कर दी गई। उसके बाद पिपरा(पटना) में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया। इन नरसंहारों के पीछे वही लोग सक्रिय थे जो तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हटाना चाह रहे थे। इसके बाद राजद के शासनकाल में 15 वर्ष के दौरान भी लगभग आधा दर्जन पड़ेगी नरसंहार हुआ छोटे नरसंहार भी हुए। बारा और सेनारी को छोड़ दें तो सभी ने नरसंहार में दलितों और अत्यंत पिछड़ी जातियों का कत्लेआम हुआ। अपराधियों की पहचान भी हुई। अधिकतर मामलों में निचली अदालत ने दोषियों को सजा भी दी लेकिन तथाकथित साक्ष्य के अभाव में यह अभियुक्त हाई कोर्ट से बरी होते चले गए।
राजद का दावा है कि राबडी देवी के मुख्यमंत्रित्व के दूसरे पाँच वर्षों के शासनकाल में नरसंहार का एक भी उदाहरण नहीं हुआ । भाजपा जदयू के शासन में 10 अक्तूबर 2007 में खगड़िया जिला के अलौली में एक बड़ा नरसंहार हुआ जिसमें एक दर्जन से ज्यादा लोगों की हत्या कर दी गई थी।
राजद प्रवक्ता चितरंजन गगन कहते हैं कि अपनी कमजोरी और नाकामियों को छुपाने के लिए भाजपा और जदयू के नेता सोलह साल पूर्व की सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यह तो राजद शासनकाल की देन थी कि अबतक हुए सभी नरसंहारों के अभियुक्तों को निचली अदालतों से सजा मिली। पर एनडीए सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में सही ढंग से अपना पक्ष नहीं रखने के कारण सभी अभियुक्त दोषमुक्त हो गये। यदि पुलिस अनुसंधान कमजोर रहता तो वे निचली अदालत से ही दोषमुक्त हो गये रहते।