एक चुटकी सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो नरेन बाबू!

 बादल सरोज

अंततः खुद उन्हीं ने इसका प्रमाण भी प्रस्तुत कर दिया है कि वे सचमुच में नॉन-बायोलॉजिकल हैं, अपौरुषेय हैं। सबसे पहली बार उन्होंने चौबीस के लोकसभा चुनाव के पहले चराचर मनुष्य जगत के समक्ष यह रहस्य उदघाटित किया था कि वे सामान्य प्राणियों की भांति जन्मे नहीं है, बल्कि स्वयं परमात्मा द्वारा भेजे गए हैं।

एक घरेलू चैनल से बतियाते हुए उन्होंने बताया कि जब तक उनकी मां जिंदा थी, तब तक उन्हें लगता था कि उनका जन्म शायद बायोलॉजिकली हुआ है। बाकी बात खुद उन्ही के शब्दों में कि “माँ के जाने के बाद मैं इन सारे अनुभवों को जोड़ कर देखता हूँ तो मैं कंविंस हो चुका हूँ…, ग़लत हो सकता हूँ, लेफ्टिस्ट लोग तो मेरी धज्जियाँ उड़ा देंगे, मेरे बाल नोच लेंगे…, मगर तब भी मैं कंविंस हो चुका हूँ कि परमात्मा ने मुझे भेजा है। वो ऊर्जा बायोलॉजिकल शरीर से नहीं मिली। …ईश्वर को मुझसे कुछ काम लेना है।

ईश्वर ने स्वयं ने मुझे किसी काम के लिए भेजा है।” बात को और स्पष्ट करते हुए इसी रौ में उन्होंने आगे कहा था कि, “परमात्मा ने भारत भूमि को चुना। परमात्मा ने मुझे चुना।” पिछले गुरुवार को राजस्थान के बीकानेर में एक आमसभा में बोलते हुए उन्होंने यह भी बता दिया कि यह ऊर्जा उन्हें कहाँ से मिलती है, इसका स्रोत क्या है। बीकानेर में उन्होंने  ऐलान किया कि उनकी “रगों में लहू नहीं गर्म सिन्दूर बह रहा है।”

यह स्वयं मोदी द्वारा प्रधानमंत्री बनने के बाद जारी की गयी उनकी सबसे नयी ब्लड रिपोर्ट है। एक रिपोर्ट उन्होंने 1 सितम्बर 2014 को जारी की थी, जिसमें उन्होंने बताया था कि वे गुजरात में जन्मे हैं, इसलिए उनके खून में व्यापार है। तब  वे जापान के टोक्यो में थे। अगले ही दिन उन्होंने इसे थोड़ा अपडेट करते हुए बताया कि उनके खून में पैसा है। वहां से लौटकर एक ही महीने में तीसरी रिपोर्ट जारी करते हुए 29 सितम्बर 14 को उन्होंने कहा कि वे भारत में पैदा हुए हैं और उनके खून में लोकतंत्र है।

बीच में एक बार फारुख अब्दुल्ला को जवाब देते हुए उन्होंने अपने खून में संविधान और सेकुलरिज्म दोनों के होने का ब्यौरा दिया। इस कड़ी में देखा जाए, तो खून में सिन्दूर और वह भी गरमागरम सिन्दूर का होना बाजार में एकदम नया है। प्रसंगवश बता दें कि सिन्दूर लैड ऑक्साइड, सिंथेटिक डाई, सल्फ्यूरिक एसिड से बना मरकरी सल्फेट होता है, जिसमे लाल कच्चा सीसा घुला मिला होता है। विज्ञान के नियमों के हिसाब से यह मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। शरीर के भीतर इसकी ज़रा सी भी मात्रा यदि पहुँच गयी, तो वह उसके मानसिक संतुलन को हमेशा के लिए बिगाड़ सकती है। मगर विज्ञान के नियम-कानून हाड़-मांस के प्राणियों के लिए होते हैं ; नॉन बायोलॉजिकल लोगो के लिए नहीं ; मोदी जी के लिए तो कतई नहीं।

मोदी जी पर तो राजनीति विज्ञान और सामाजिक बर्ताब के विज्ञान के नियम भी लागू नहीं होते। उनकी  सबसे बड़ी विशिष्टता ही उनका प्रिडिक्टेबल यानि भविष्यवचनीय, सरल हिंदी में कहें तो उम्मीद के मुताबिक़ होना है। यहाँ उम्मीद सामान्य और सहज व्यवहार की अपेक्षा वाली उम्मीद नहीं है, उनसे की जाने वाली उम्मीद बिलकुल अलगई चीज होती है। यह संभावना नहीं, आशंका होती है। वे इस देश के, अब तक के, एकमात्र और दुनिया के उन गिने-चुने नेताओं में से एक हैं, जिनके लिए आपदा में अवसर होता है, हर आपदा एक अवसर होती है। ज्यादा सही यह होगा कि उनके  लिए आपदाएं ही अवसर होती हैं। उनकी एक और विशेषता बरसों बरस, चौबीस घंटा, सातों दिन चुनाव के मोड में रहने की है – इस हिसाब से आपदा देश और जनता के लिए जितनी बड़ी होती है, मोदी और उनके कुनबे के लिए चुनाव जीतने की संभावना बढ़ाने का उतना ही बड़ा अवसर होती है।

उनकी तीसरी खासियत ध्रुवीकरण – अपने ही देश की जनता के बीच द्वेष और विभाजन पैदा करने वाले ध्रुवीकरण — की है। खून में खौलता हुआ सिन्दूर होने का दावा इन तीनों का गाढ़ा और सांघातिक मिश्रण है। एक ऐसा घोल है, जिसे देश पर हुए हमले और उसके शिकार हुए भारत के सैनिकों और नागरिकों की मौतों को चुनावी जीत का रास्ता हमवार करने की तारकोल के सड़क में बदलने में भी इन्हें न हिचक महसूस होती है, न लज्जा ही आती है।  इस तरह की आई, लाई, बुलाई और कराई गयी आपदाओं को अवसर में बदलने का खून उनकी दाढ़ कई बार चख चुकी है।

वर्ष 2002 के गोधरा और गुजरात दंगों का चुनाव और उसके लिए उन्मादी ध्रुवीकरण करने के लिया हुआ इस्तेमाल पुरानी बात नही है। 14 फरवरी 2019 को कश्मीर के पुलवामा में भारतीय सेना पर जघन्य आतंकी हमले की बात तो और भी ताज़ी है। इसके दोषियों, जिम्मेदारों, ऐसा अघट घटने के लिए उत्तरदायी गलतियों और चूकों और उनसे लिए जाने वाले सबकों के बारे में छह साल गुजर जाने के बाद भी कोई रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है। जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सतपाल मलिक के अनेक खुलासों के बाद भी देश को कुछ नहीं बताया गया।

जब इस हमले के 6 दिन भी नहीं गुजरे थे, तब जो भारत में कभी नहीं हुआ, वैसा करते हुए, इन सैनिकों की शहादतों को लोकसभा चुनाव में भुनाने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री ही निकल पड़े थे। उन्होंने अपने भाषणों में खुलेआम देशवासियों से पुलवामा शहीदों के नाम पर भाजपा को वोट करने की अपील की थी। उस लोकसभा के चुनाव में दिए अपने भाषणों में उन्होंने खुल्लमखुल्ला सेना का चुनावी राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए कहा था कि जो नौजवान, पहली बार वोट करने वाले हैं, उन्हें  पुलवामा शहीदों के लिए भाजपा को अपना वोट देना चाहिए।

उनके इस आचरण पर खुद शहीदों के परिवार स्तब्ध और आहत थे। उनके अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी के एक पुलवामा शहीद रमेश यादव की 26 वर्ष की युवा पत्नी ने गुस्से से कहा था कि “मोदी कौन होते हैं सेना के नाम पर वोट मांगने वाले? मेरे पति तो अब इस दुनिया में नहीं हैं, वो तो चले गए और आज मोदी उनके नाम पर वोट मांग रहे हैं। अगर मोदी हवाई जहाज का इंतजाम कर देते, तो आज मेरे पति ज़िंदा होते। इस दुनिया में होते, हमारे साथ होते।” ज्यादातर  सैनिकों के परिवारों की ऐसी ही प्रतिक्रिया थी, मगर इन सबसे बेपरवाह मोदी हर चुनावी सभा में पुलवामा के शहीदों के नाम पर भाजपा के लिए वोट मांगते रहे और सैनिकों के प्रति सहानुभूति और सम्मान को भुनाते हुए अपने वोटों की नफरी बढ़ाते रहे। ठीक उसी तरह की आजमाईश अब 22 अप्रैल को पहलगाम में पर्यटकों पर हुए आतंकी हमले को लेकर शुरू हो गयी है।

पहलगाम में आतंकियों द्वारा किये गए हत्याकांड से खिन्न, क्षुब्ध, आतंकियों के कायराना वहशीपन से तिलमिलाए और आक्रोश से भरे देश में वापस लौटते ही उन्होंने घटनास्थल पर जाने, मारे गए पर्यटकों को श्रद्धांजलि देने, उनके शोक संतप्त परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करने, वे सामान्य सुरक्षा से भी वंचित क्यों थे, इसकी जांच पड़ताल करने की बजाय बिहार की चुनावी आम सभा में जाने को प्राथमिकता देकर साफ़ कर दिया कि वे पुलवामा की तरह पहलगाम का भी इसी तरह का चुनावी इस्तेमाल करना चाहते हैं। लहू में गर्म सिन्दूर के बहने का दावा इसी तरह का जुमला है। उनका इरादा इसे बिहार और बंगाल के विधानसभा चुनावों का पासवर्ड बनाने का है।

सिन्दूर का बिम्ब पहलगाम में मारे गए पर्यटकों की जिन जीवन संगिनियों के सुहाग उजड़ने से लिया गया है, उनके प्रति इनके कुनबे की भावनाएं कैसी हैं, यह अब दुनिया जान चुकी है। वे जीवन साथी के बिछड़ जाने के प्रतीक के रूप में सिन्दूर का उपयोग कर रहे हैं, उनमें वे भारतीय कश्मीरी विधवाएं भी शामिल हैं, जिनके पति पर्यटकों को बचाते या भारत-पाकिस्तान झड़प में मारे गए, जिनके सुहाग के प्रतीक अलग हैं। आज तक इनके प्रति संवेदना में एक शब्द तक नहीं बोला गया। बहरहाल इस प्रतीक के पीछे निहित सेलेक्टिव भाव को यदि फिलहाल अनदेखा भी कर दें, तो मोदी जिस सिन्दूर का हवाला दे रहे हैं और जिसकी गर्माहट में वे बिहार में वोटों की लिट्टी चोखा और बंगाल में माछेर झोल पकाना चाहते हैं, उसमें हिमांशी का सिन्दूर भी शामिल है। इस हमले में शहीद हुए लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की युवा पत्नी हिमांशी ने जब पहलगाम के बहाने हिंदू-मुस्लिम, कश्मीरी-गैर कश्मीरी के नाम पर उन्माद न फैलाने और देश की एकता बनाए रखने की अपील की, तो उन्हें जिस तरह की जुगुप्सा जगाने वाली वीभत्स ट्रोल का निशाना बनाया गया, जितनी गन्दी और बेहूदा बातें उनके बारे में की गयी, उन्हें परिभाषित करने के लिए शर्मनाक या निंदनीय शब्द नाकाफी महसूस होते हैं। किसी कश्मीरी लड़के के साथ उनकी फर्जी तस्वीरें तक वायरल की गयीं। यह ट्रोल  इतनी भयानक थीं कि राष्ट्रीय महिला आयोग को भी उसका संज्ञान लेना पड़ा और इस पर आपत्ति जतानी पड़ी। बचपन से ही इस कुनबे के सगे रहे पत्रकार प्रभु चावला तक को यह  नागवार गुजरी। उन्होंने इसे ‘डिजिटल लिंचिंग’ बताया और आश्चर्य व्यक्त किया कि इन पर रोक क्यों नहीं लगाई जाती। मगर जो मोदी सरकार थोक के भाव न्यूज़ पोर्टल्स, वेब मैगजीन्स और सोशल मीडिया साइट्स को ब्लाक करवाने में जुटी थी, फैज़ की नज़्म गाने वालों से लेकर कार्टून बनाने वालों तक को पकड़कर जेल में डाल रही थी, उसने इनमें से किसी एक के खिलाफ भी, कहीं कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराई। किसी का भी अकाउंट बंद कराने के निर्देश नहीं दिए गए। वजह साफ़ थी : पहलगाम में उजड़े सिन्दूर पर लपकतेये ट्रोल भेड़िये किसी गली या नुक्कड़ पर बैठे लम्पट शोहदे नहीं थे, इनमें से अनेक के एकाउंट्स को खुद मोदी  फॉलो करते है। ये कोई छुटभैय्ये फ्रिंज एलेमेंट्स नहीं है, ये कुनबे के नामी-गिरामी और बड़े वाले स्वयंसेवक है। इनमें मप्र में मोदी की भाजपा सरकार के ‘यशस्वी’ उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा और ‘तेजस्वी’ कैबिनेट मंत्री विजय शाह भी हैं, जिन्होंने सारी सीमायें लांघ दी, मगर कमाल है जो उनकी निंदा में किसी भाजपाई ने उफ़ तक की हो। इधर मोदी पहलगाम में उजड़े  सिन्दूर को ध्वजा बनाए घूम रहे हैं, उधर उन्हीं की पार्टी के राज्यसभा सांसद रामचंद्र जांगडा उन्ही स्त्रियों को कोस रहे हैं, जिनके पति आतंकी हमले में मारे गए। उन्हें धिक्कारते हुए कह रहे हैं कि “जिनका सिन्दूर छीना गया, उनमे वीरांगना भाव नहीं था, जोश नहीं था, जज्बा नहीं था, दिल नहीं था – इसलिए हाथ जोड़कर गोली का शिकार बन गए।“ शोकाकुल स्त्रियों, मोदी के बिम्ब में ही कहे, तो एक ही सांस में सिन्दूर का इतना निर्लज्ज अपमान करने की धृष्टता और उन्हीं के सिन्दूर से राजतिलक की कामना करने का इतना निराट पाखण्ड भाजपा ही कर सकती है।

ऑपरेशन सिन्दूर के नाम पर देश भर में भाजपा और संघियों द्वारा निकाली जा रही कथित तिरंगा यात्रायें उन चूकों, गलतियों और विफलताओं से ध्यान बंटाने की कोशिशें हैं, जिनके चलते पहलगाम जैसा काण्ड हुआ। इस आतंकी हमले के बावजूद दुनिया भर में अपेक्षित समर्थन न जुटा पाने की जिम्मेदार असफल और दिशाहीन विदेश नीति पर पर्दा डालने की कोशिश है। उस वैश्विक अपमान को भुलाने की कोशिश है, जो अमरीका का राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हर रोज अपने बड़बोलेपन से कर रहा है और इधर से मिमियाहट भरा खंडन तक नहीं आ रहा है। यह सिंदूरी आभा तीन-चार दिन की झड़प में अनुभव के रूप में देश ने जो देखा, सुना, किया और सहा उसकी समीक्षा से बचने के लिए दिखाई जा रही अदाकारी है। और इसी के साथ खासतौर से खुद अपने भक्तों में इसके पटाक्षेप से उपजी, मोदी मोहभंग होने तक पहुंची हताशा को बहलाने-फुसलाने की कवायद है, ताकि उन्हें एक बार फिर छू बोलकर ध्रुवीकरण की एक और तेज लहर लाने में जुटा दिया जाए और उसे बिहार और  बंगाल के मतदान केन्द्रों तक पहुँचा दिया जाए।

एक ओर देश की सभी राजनीतिक पार्टियों ने आतंक के खिलाफ असाधारण एकता का परिचय दिया है, उनके सांसद एक साथ जाकर दुनिया भर के देशों के समक्ष आतंकवाद के विरूद्ध भारत के पक्ष को रख रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा और उसका कुनबा है, जो अपने ही देश में ठीक इसके विपरीत आचरण कर रहा है और चुनावी गोटी लाल करने के लिए विभाजन तीखा करने के लिए सिंदूर का चोला ओढ़ रहा है। जिनके खून में व्यापार है, पैसा है, नफरत और उन्माद है, वे न शहादतों का मोल समझते हैं, न संवेदना के बोल बोलते हैं, न एक चुटकी सिन्दूर की कीमत ही जानते हैं। वे भूल रहे हैं कि पहलगाम के बाद मई के महीने में जो कुछ घटा है, उसके साथ मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू का कौतुक दिखाना उतना आसान नहीं है। यह भी भूल रहे हैं कि भारत के लोग पुलवामा भूले नहीं है, बल्कि पहलगाम के बाद उसे और शिद्दत से याद कर रहे हैं।

*(लेखक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94242-31650)*

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