संजय पराते
हमारे देश में दो दुनिया बसती है। एक का नाम इंडिया है और दूसरे का नाम भारत। इंडिया साधन संपन्न और चकाचक है। यह इंडिया पूरी दुनिया में इंडिया का प्रतिनिधित्व करता है। भारत दाने-दाने को मोहताज है, गंदगी-बदबू से भरा और फटेहाल है। जब भी विदेश से कोई नेता इंडिया आता है, तो इस भारत को ढांकने-छुपाने का हर जतन किया जाता है। फिर भी, यहां-वहां मुंह घुसाकर, इधर-उधर की रिपोर्टों में अपना दयनीय चेहरा दिखा ही देता है। चेहरा भारत का दिखता है, पूरी दुनिया में थू-थू इंडिया की होती है कि देखो इस इंडिया को! अपने भारत को भी संभाल कर नहीं रख पा रहा। अब किसे समझाए कि भाई, यह तो किस्मत का खेल है। कोई इंडिया में रहता है, तो कोई भारत में। यह आज की बात नहीं है, सनातन काल से चल रहा है। हम तो सिर्फ सनातन धर्म का पालन कर रहे हैं। हमारा धर्म वसुधैव कुटुंबकम् की बात करता है। पूरी धरती हमारा परिवार है। तो अब किस-किस का ख्याल रखें। अब क्या पूरे भारत को अपनी इंडिया में जगह दे दें। दे तो रहे हैं 80 करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन। कुछ ट्रंपजी को देने के लिए भी बचा रहने दें। वो बेचारा तो पूरे भारत से ज्यादा भूखा है और उसका ध्यान रखना इंडिया की प्राथमिकता है। तभी वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का पालन हो सकता है।
कुछ लोग कह रहे हैं कि देश में आर्थिक समानता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि देश की कुल कमाई का 57% से ज्यादा हिस्सा सबसे अमीर 14 करोड़ लोगों के पास चला जाता है और नौकरीपेशा लोगों की आय पिछले 10 सालों से ठहरी हुई है और बचत पिछले 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है। अब इसी ठहरी आय को गति देने के लिए तो बजट में आयकर में बंपर छूट दी गई है, ताकि इससे हुई बचत से ठहरी हुई अर्थव्यवस्था को चलाया जा सके। अब कुछ लोग इसमें भी नुक्स निकाल रहे है कि 100 करोड़ लोगों के लिए कुछ नहीं! ब्लूम वेंचर्स की रिपोर्ट में चेहरा घुसा-घुसा कर दिखा रहे है कि उनके पास कुछ भी खरीदने की ताकत नहीं है, बस किसी तरह जिंदा हैं और 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए मेहनत कर रहे हैं।
भारत की इस भावना का स्वागत होना चाहिए। यही राष्ट्रभक्ति है, यही राष्ट्रवाद है। राष्ट्रभक्ति का यही तकाजा है कि जिसके पास जो कुछ है, वह ‘इंडिया फर्स्ट’ के लिए न्यौछावर कर दे। भारत के पास मेहनत है, इस मेहनत से वह इंडिया को जिंदा रखें। इंडिया के पास अपार संपत्ति है, इससे वह देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाएं। यह याद रखने की बात है कि अर्थव्यवस्था है, तो देश है और देश है, तो अर्थव्यवस्था है। यह देश इंडिया और भारत दोनों से मिलकर बना है और इस देश का विकास दोनों की जिम्मेदारी है। इसीलिए तो मोदीजी ने नारा दिया है — ‘सबका साथ, सबका विकास’ और इस विकास के लिए ‘इंडिया फर्स्ट’।
अब इस देश की अर्थव्यवस्था में इंडिया के योगदान को न भूलें। इस देश में 14 करोड़ लोग हैं, जिनकी प्रति व्यक्ति आय 15 हज़ार डॉलर यानी क़रीब 13 लाख रुपए है। ये विकसित इंडिया है। ये वे लोग हैं, जो देश में खपत यदि 100 रुपए की है, तो 66 रुपए खर्च करते हैं। एक विकासशील इंडिया भी है 30 करोड़ लोगों का। इनकी प्रति व्यक्ति आय 3 हज़ार डॉलर या 2.7 लाख रुपए है। यही लोग हैं, जो देश की कुल खपत का एक तिहाई यानी 100 रूपये में 33 रूपये खर्च करते हैं। यही विकसित इंडिया और विकासशील इंडिया मिलकर ‘शाइनिंग इंडिया’ बनाते हैं। शाइनिंग इंडिया बनाने का सपना तो अटल बिहारी का था, लेकिन वास्तव में इसे पूरा कर रहे हैं हमारे मोदीजी। असल में तब अटल बिहारी बाजपेयी ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसा जुमला नहीं खोज पाए थे, वरना शाइनिंग इंडिया का उनका नारा भी हिट होता। लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद, मोदीजी के आने से सब मुमकिन हुआ। देश अब 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की ओर सरपट दौड़ रहा है।
इस दौड़ में भारत को भी साथ देना होगा। ठीक है, उनकी हालत अफ्रीका जैसी है, वे बाजार में एक रुपया भी खर्च करने की औकात नहीं रखते, तो क्या हुआ? अफ्रीका गरीब है, तो क्या दुनिया को अफ्रीका की जरूरत कम है? नहीं न! ट्रंप के आने के बाद तो अफ्रीका का महत्व और बढ़ गया है। ठीक यही बात हमारे देश पर लागू होती है। क्या हमारे देश को भारत की जरूरत कम है? नहीं न! मोदीजी के आने के बाद तो भारत का महत्व और बढ़ गया है। हमारे मोदीजी तो पूरी ईमानदारी के साथ मनमोहन सिंह के बताए पर अमल कर रहे हैं। बहुत बड़े अर्थशास्त्री थे वे। इतने बड़े कि विश्व बैंक भी उन पर फिदा था। उन्होंने ही हमारे देश के विकास का मंत्र बताया था कि इस देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक है। अब जो मोदीजी विश्व बैंक पर फिदा हैं, उनको तो मनमोहन सिंह के इस मंत्र पर चलना ही है। सो, बहुसंख्यक भारत के संसाधनों को अल्पसंख्यक इंडिया के हाथों दिए जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों को देने के मामले में मनमोहन सिंह जितने ईमानदार थे, इंडिया को देने के मामले में मोदी उनसे भी ज्यादा ईमानदार है। इसीलिए तो पूरी दुनिया में मोदीजी का डंका बज रहा है। यह तो पूरी दुनिया देख रही है कि ट्रंपजी के दरवज्जे पर कुछ लोगों का बाजा बज रहा है, बड़े बे-आबरू होकर बाहर निकल रहे हैं और मोदीजी डंके की चोट पर ट्रंपजी के घर बुलवाए जा रहे हैं। आखिर हमारे मोदीजी में कुछ बात तो है!
तो बात यही है कि दुनिया के कदम के साथ कदम मिलाकर चलना जानते हैं मोदीजी। मोदी जी और ट्रंप जी की विश्व दृष्टि समान है। ट्रंप जी को इंडिया चाहिए और इंडिया को मोदीजी का भारत। इस भारत को बड़ी खूबसूरती से, बड़े जतन से मोदीजी गढ़ रहे हैं, ताकि दुनिया में इंडिया का डंका बजे। सब जानते है कि पिछले 60 सालों में पूरी दुनिया में भारत का बाजा ही बजा है। अब इंडिया का डंका बजेगा हमारे मोदीजी के नेतृत्व में। पूरी दुनिया में इंडिया चमकेगा और इस शाइनिंग इंडिया के लिए भारत की राष्ट्रभक्ति भी देखेगा। इस राष्ट्रभक्ति में कोई कसर बाकी नहीं रखी जाएगी। जरूरत पड़ने पर हर कब्र को खोदकर मंदिर खोजा जाएगा, खुद अपने हाथ में कुल्हाड़ी लेकर 18 घंटे खुदाई का काम भी करेंगे मोदीजी।
कहते हैं कि रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था। लोग इसे भूल जायेंगे। कहेंगे, जब इंडिया चमक रहा था, तो मोदीजी खुदाई कर रहे थे। मोदीजी का नारा है — तुम मुझे इंडिया दो, मैं तुम्हे कब्र दूंगा। और मोदी है, तो मुमकिन है भारत कब्रगाह में भी तब्दील हो जाएं। इंडिया फर्स्ट के लिए सब कुछ करेंगे मोदीजी।
और अब एक देश, एक कॉमेडियन!
राजेंद्र शर्मा
स्टैंड अप कॉमेडियन, कुणाल कामरा के खिलाफ मुंबई पुलिस ने जरा-सी एफआइआर क्या दर्ज कर ली, विरोधी आ गए ‘जनतंत्र खतरे में और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में’ का झंडा लेकर।
हद तो यह है कि दुहाई तो दी जा रही है, भगवा राज में व्यंग्य और कॉमेडी खतरे में पड़ जाने की और भाई लोग खुद भगवाईयों पर नये-नये चुटकुले बनाकर चलाए जा रहे हैं।
और कुणाल कामरा के ये हिमायती तो उससे भी आगे निकल गए हैं। इन्होंने शिंदे वाली शिव सेना वाले शिंदे और सीएम देवेंद्र फडनवीस से आगे जाकर, उन नरेंद्र मोदी को भी व्यंग्य के लपेटे में ले लिया है, जिन्हें इस बार कुणाल कामरा ने बख्श दिया लगता है। वर्ना भावनाएं आहत होने का शोर मचाने वालों की भावनाएं क्या नरेंद्र मोदी के अपमान पर आहत नहीं हुई होतीं?
अब जिस शिंदे को फडनवीस ने धकिया के सीएम से डिप्टी सीएम बना दिया, मोदी जी के भक्तों की भावनाएं उस शिंदे के भक्तों से कम भंगुर तो नहीं ही हो सकती हैं। और ऐसा तो हो नहीं सकता कि मोदी जी का मजाक उड़ाना, सिंपल मजाक उड़ाया जाना हो और शिंदे का ही मजाक उड़ाया जाना, अपमान हो।
कितने ही मामलों में हमने देखा है कि शिंदे से हल्के मजाक से भी मोदी जी का अपमान हो जाता है। आखिरकार, एक सौ चालीस करोड़ के देश के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। अगर शिंदे का एक राज्य का चुना हुआ डिप्टी सीएम होना, उसकी हंसी उड़ने को अपमान बना सकता है, तो मोदी तो पूरे देश के पीएम हैं। महाराष्ट्र वालों ने लोकसभा चुनाव में मोदी जी को तगड़ा झटका जरूर दे दिया, लेकिन इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि महाराष्ट्र में मोदी जी की नाक, किसी शिंदे-विंदे से छोटी हो जाएगी।
मोदी भक्तों की भावनाएं आहत नहीं हुई हैं, तो जरूर कुणाल कामरा की ही मोदी जी का मजाक उड़ाने की हिम्मत नहीं हुई होगी। पर कामरा के हिमायतियों ने अब मोदी जी को भी इस झगड़े में घसीट लिया है। कहते हैं कि कुणाल कामरा के खिलाफ एफआईआर का एक ही इशारा है — अब एक देश, एक कॉमेडियन!
देश कौन सा है, यह तो सब जानते ही हैं और इकलौता कॉमेडियन भी सभी जानते हैं। कॉमेडी के मामले में भी मोदी जी को कोई कंपटीशन मंजूर नहीं है।
वैसे हम पूछते हैं कि एक देश, एक कॉमेडियन में प्राब्लम ही क्या है? जब बाकी हर चीज एक देश, एक फलां, एक एक ढिमकां सही है, काम्य है, अमृतकाल वाले भारत का लक्ष्य है, तो फिर एक देश, एक कॉमेडियन भी क्यों नहीं?
मोदी जी एक देश, एक टैक्स करा ही चुके हैं। एक देश, एक प्रधान तो पहले से ही चला आ रहा था, उसे तो बस जरा सा और पुख्ता करने की जरूरत थी। और एक देश, एक विधान में थोड़ी-बहुत कसर उन्हें लगती थी, उसे भी मोदी जी कश्मीर को धारा-370 से मुक्त कर के पूरी करा चुके हैं।
एक देश, एक भाषा भी, कुछ चोरी से और कुछ सीनाजोरी से ले ही आए हैं। तभी तो तमिलनाडु वाले इतना हाय-हाय मचाए हुए हैं। एक देश, एक नागरिक संहिता की देश के एक छोर पर, उत्तराखंड से शुरूआत तो हो भी चुकी है।
एक देश एक महापुरोहित भी, अयोध्या के राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद से पक्के तौर पर आ ही चुका है।
एक देश, एक ईश्वरीय दूत बल्कि अवतार भी। एक देश एक धर्म, एक देश एक संस्कृति, एक देश एक खान-पान, के बाद बस एक देश, एक कॉमेडियन की ही कसर रहती थी और एक देश, एक मंदिर की भी। एक देश, एक मंदिर अभी वेट कर सकता है, फिलहाल एक देश, एक कॉमेडियन। आसान भी है। कुणाल कामरा जैसे चार-छ: बड़े कॉमेडियनों को जेल में डालने की जरूरत है, डर के मारे बाकी कामेडियन खुद ही मैदान छोड़ जाएंगे। मैदान में बचेगा, बस एक कॉमेडियन!
एक देश एक कॉमेडियन की काफी अर्जेंसी भी है। अमेरिका में जब से ट्रम्प साहब ने दूसरी बार राष्ट्रपति की गद्दी संभाली है, कॉमेडी का मुकाबला शीर्ष स्तर तक पहुंच गया है, खतरनाकपन में भी और गंभीरता में भी। ऐसे में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि भारत की कॉमेडी की सारी प्रतिभा भी एक ही एक्टर में केंद्रित हो जाए। बाकी कॉमेडियन खाद-पानी बनकर, राष्ट्रीय कॉमेडियन के फलने-फूलने में पर्दे के पीछे से योग दे सकते हैं, लेकिन मंच पर एक ही एक्टर उतरेगा; तमाम लाइटों के वृत्त के बीच में एक ही एक्टर निखरेगा। आखिर, कॉमेडी की अदायगी और लाइनें, दोनों में ट्रम्प का मुकाबला भी तो करना है।
और हां प्लीज बेवक्त इसकी याद मत दिलाने लग जाइएगा कि मोदी जी ने हफ्ता-दस दिन पहले ही तो अमरीकी पॉडकास्टर के साथ लंबी बातचीत में, आलोचना को जनतंत्र की आत्मा बताया था। बताया था तो? मोदी जी ने तो यह भी बताया था कि हमारी परंपरा ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय’ वाली है। मोदी जी अपनी बात से पलट कब रहे हैं? है कोई बयान मोदी जी का कि आलोचना जनतंत्र की आत्मा नहीं है? मोदी जी अपनी बात से टस से मस नहीं हुए हैं और होंगे भी नहीं। पर इसका कुणाल कामरा के खिलाफ एफआईआर से, या उसके शो की रिकार्डिंग करने वाले स्टूडियो में भगवाभक्तों से लेकर उनके मुंबई नगर निगम तक की तोड़-फोड़ से, उनकी सरकार के तोड़-फोड़ को क्रिया की प्रतिक्रिया बताने से, क्या संंबंध है?
पहली बात तो यह है कि मोदी जी ने आलोचना को जनतंत्र की आत्मा कहा था, कॉमेडी को नहीं। उल्टे मोदी जी ने तो उसी लंबी बातचीत में इसकी शिकायत भी की थी कि वह खोज-खोजकर हार गए हैं, पर सच्ची आलोचना उन्हें तो मिली ही नहीं। ऐसे सच्चे नेताओं की हंसी उड़ाना तो हर्गिज सच्ची आलोचना नहीं है। फिर कामरा को तो मुनव्वर फारुखी की तरह अब तक गिरफ्तार तक नहीं किया गया है। उसके ऊपर से एफआईआर तक शिंदे भक्तों ने करायी है और फडनवीस की पुलिस ने दर्ज की है, इसमें मोदी जी कहां से आ गए!
फिर भी, शिंदे पर तंज के चक्कर में, अगर एक देश एक कॉमेडियन हो जाए, तो सौदा महंगा नहीं है!
राम मनोहर नारायण मिश्रा से ‘बेटी बचाओ’
विष्णु नागर
राम मनोहर नारायण मिश्रा। नाम काफी लंबा-चौड़ा है। जाति भी हिंदू समाज में बड़ी मानी जाती है। पद भी बड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज हैं। माननीय न्यायालय के माननीय न्यायाधीश हैं। हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के वकील भी विद्वान माने जाते हैं, तो ये तो जज हैं। इनकी विद्वता अविवादित होनी चाहिए। ऐसा नहीं होता, तो वे ऐसा फैसला कैसे दे पाते, जिसकी अक्खे भारत में आज चर्चा है। वैसे हो सकता है, यह अक्खे भारत का दोष हो, जज साहब का नहीं! जज साहेबान तो वैसे भी अकसर दोषी नहीं होते! इसी अदालत के एक जज साहब कुछ समय पहले हिंदूवादी मंच से मुसलमानों को उनकी औकात बताते पाए गए थे। हल्ला तो खूब मचा। सुप्रीम कोर्ट तक के कान खड़े हुए, पर कुछ हुआ नहीं। वह अपनी बात पर अटल रहे और सुप्रीम कोर्ट उन्हें पद पर रखने के फैसले पर अटल रही।
दिल्ली में अभी एक जज साहब के जलते हुए घर से रुपयों का बड़ा खजाना मिला। एक तरफ उनका सरकारी बंगला जल रहा था, दूसरी तरफ नोटों की गड्डियों पर गड्डियां प्रकट हो रही थीं। आग ने तो जो नुकसान किया, सरकारी बंगले का नुक़सान किया, मगर आग बुझाने वालों ने नोटों का पता-ठिकाना देकर उनकी प्रतिष्ठा का सार्वजनिक नुकसान किया। फिर भी कुल मिलाकर मामला ठीक रहा। केवल इतना हुआ कि वह इलाहाबाद हाईकोर्ट से दिल्ली हाईकोर्ट लाए गए थे, उनकी घर वापसी हो गई। घर वापसी वैसे संघ का नारा भी है। एक और उच्च न्यायालय की एक जज साहिबा के घर के बाहर लाखों रुपए पड़े पाए गए थे। वह भी बच गईं, बचा ली गई थीं। इस तरह अदालत की ‘गरिमा’ हमेशा बचा ली जाती है। उसका नुकसान नहीं होता! यह ऊपरवाले की मेहरबानी नहीं तो, और क्या है!
तो हां, असली किस्सा यह है कि माननीय मिश्रा जी की अदालत में एक केस आया। मां और बेटी कीचड़ भरे रास्ते से अपने गांव लौट रही थीं। पीछे से एक मोटर साइकिल आई। उस पर दो लड़के सवार थे। उन्हीं के गांव के थे। परिचित थे। उन्होंने पेशकश की कि वे लड़की को मोटर साइकिल से घर छोड़ देंगे, लेकिन वे उसे एक सुनसान रास्ते पर ले गए। एक पुलिया के नीचे एक लड़का उसके स्तनों से ‘खेलने’ लगा, दूसरा उसकी सलवार का नाड़ा खोलने लगा। लड़की चीखी-चिल्लाई।यों तो दुर्योधन के दरबार में द्रोपदी की लाज बचाने कोई नहीं आया था, सब तमाशा देख रहे थे, अंततः कृष्ण को आना पड़ा था। यहां किसी को बुलाना नहीं पड़ा। उधर से ट्रेक्टर पर जा रहे दो लोगों ने चीख सुनी, तो वे उस लड़की को बचाने आगे आए। लड़कों ने उन्हें डराने के लिए देसी कट्टा निकाला, पर फिर डर कर लड़की को उसी हालत में वहीं छोड़कर भाग गए।
लड़की की मां लेकिन लोकलाज बचाने के नाम पर चुप नहीं बैठी। पुलिस ने केस दर्ज नहीं किया, तो वह अवयस्कों को न्याय दिलाने वाली पोस्को अदालत पहुंची। उस अदालत ने इन दोनों को बलात्कार या बलात्कार के प्रयास का दोषी पाया। अपराधियों ने इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की। वहां इन जज साहब के पास यह मामला आया। जज साहब ने अपने निर्णय में कहा कि बहुत सोच-विचार और तथ्यों के बारीकी से अध्ययन के बाद यह पाया गया कि बलात्कार तो हुआ नहीं। नाले के नीचे ले जाकर केवल उसके स्तन झिंझोड़े गए, नाड़ा खोला गया। इसी बीच दो लोगों के आ जाने से लड़के भाग गए। इसे बलात्कार या बलात्कार के प्रयास का मामला नहीं माना जा सकता। यह केवल लड़की को नंगा करने के इरादे से किया गया कृत्य है। यौन उत्पीड़न का मामला है। इसकी सज़ा वह नहीं दी जा सकती, जो बलात्कारियों को दी जाती है। धाराएं नर्म लगनी चाहिए।
जजों के मन में एक दयालु हमेशा बैठा रहता है। तभी तो वे कभी इसे और कभी उसे न्याय दे पाते हैं। जज साहब की दया लड़कों पर बरस गई। लड़की को तो दया चाहिए भी नहीं थी, उसे तो न्याय चाहिए था, मगर दया ने न्याय पर विजय पा ली। अब लड़की के मां-बाप न्याय के लिए फिर से लगाएं अदालत के चक्कर पर चक्कर। और चार साल चक्कर लगा-लगाकर हार मान चुके हों, तो चुप हो जाएं, घर बैठ जाएं, क्योंकि न्याय और ईश्वर की मर्जी का पता किसी को नहीं चलता!
याद हो, तो कोई एक दशक पहले माननीय मुलायम सिंह यादव जी ने भी बलात्कार के एक प्रसंग में कहा था कि लड़के हैं, लड़कों से कभी-कभी गलती हो जाती है। इसके लिए तब उनकी कड़ी निंदा हुई थी। चूंकि निंदा कड़ी हुई थी, तो जज साहब नेताजी की उस बात से तो प्रभावित नहीं रहे होंगे, मगर हो सकता है, उन्हें भी लगा हो कि लड़के हैं, लड़कों से ‘गलती’ हो जाती है, अतः ये क्षमा के पात्र हैं। थोड़ी ही सज़ा इनके लिए काफी होगी।
जज साहब इस निर्णय के पहले देश में इतने मशहूर नहीं थे, मगर अब पूरे भारत में मशहूर हो चुके हैं। निंदा करने वाले हमेशा निंदा करते रहते हैं। मगर निंदा भी ख्याति का एक बड़ा और विश्वसनीय स्रोत है। वैसे भी आजकल गलत कारणों से ही प्रसिद्धि मिलती है, सही कामों से तो पड़ोसी भी नहीं पहचानते! तो जज साहब को लड़की के स्तनों को झिंझोड़ना और उसकी सलवार का नाड़ा खोलना खास आपराधिक काम नहीं लगा। हो सकता है, उत्तर प्रदेश के हालात को देखते हुए उन्हें वैसे भी यह मामूली दैनिक घटना लगी होगी। उन्हें लगा होगा कि ऐसी घटना को न्यायिक रूप से तूल देने से महाकुंभ के कारण बहुत सारा पुण्य बटोर चुके राज्य सरकार के मुखिया जी की बदनामी होगी। तीर्थयात्रियों के कुचलकर मर जाने की घटनाओं को छुपाने के प्रयासों के बावजूद उन्होंने जितना पुण्य कमाया है, वह घटकर आधा रह जाएगा! यह ठीक नहीं है।
शायद जज साहब फैसला देते समय यह सोच नहीं पाए कि ये लड़की उनकी अपनी बेटी भी हो सकती थी और ऐसा हुआ होता, तो क्या वे इस तरह के न्याय को स्वीकार कर पाते? लेकिन जजों के सामने रोज ही ऐसे मामले आते हैं, किस-किस को अपनी बेटी, अपनी बहन, अपनी मां मानकर न्याय दें! फिर सब जजों की लड़कियां ही नहीं होतीं, लड़के भी होते हैं, बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि सिर्फ लड़के हों, तो जज कैसे मान लें कि लड़की को दबोचकर उसके स्तनों पर कब्जा करना, उनसे खेलना या उसकी सलवार का नाड़ा तोड़ना कोई बड़ा अपराध है!
सरकार का नारा है- ‘बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ’, मगर सवाल यह है कि बेटी को किस-किस से और कहां-कहां बचाएं! कोई जगह सुरक्षित बची है अब! है तो सूचित करें!