अगले साल ही उनके संगठन संघ, यानी आरएसएस के पूरे सौ साल पूरे हो रहे हैं। जो सपना गढ़ा था, वह काफी पूरा हुआ है। असली लक्ष्य बाकी है। वही अपने हिंदू राष्ट्र का। जरूरी नहीं है कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बार-बार उसका नाम लिया जाए?...
वीरेंद्र सेंगर
वो सालों चुप्पी साधे रहते हैं। आंख बंद किए रहते हैं। ताकि आंखों के हाव-भाव न पढ़े जा सकें। रहस्य बना रहे। पर्दा पड़ा रहे। समय की ताक में रहते हैं। अवसर देखकर बोलते हैं। लेकिन अवसरवादी कतई नहीं हैं। वे तो खांटी स्वयंसेवक हैं। देश सेवक हैं। राष्ट्रभक्त हैं। हिंदू-मुस्लिम भेद तो दूर, वे तो सभी प्राणियों से स्नेह का दावा ठोकते हैं। प्रेम का लठ बजाते हैं। ताकि लट्ठम-लट्ठा का संगीत बजता रहे। राष्ट्र में चहल-पहल रहे। हिंदू कहीं फिर सो न जाए! उनके गूढ़ ज्ञान के मुताबिक कोई हजार साल बाद हिंन्नू जागना शुरू हुआ। लेकिन ठीक से हिनहिनाता नहीं है। चौकड़ी नहीं भरता। हजारों साल गुलाम रखने वालों के खिलाफ वह अपने नथुने नहीं फड़काता। आराम से पसर जाता है। इसी आलसी हिंन्नू में वे नया जोश भरना चाहते हैं। चाहते कि हर हिंदू महाराणा प्रताप का चेतक बने। दुश्मन के खिलाफ छलांग भरे। सब कुछ न्योछावर कर दे, चुटकी बजाते ही।
अगले साल ही उनके संगठन संघ, यानी आरएसएस के पूरे सौ साल पूरे हो रहे हैं। जो सपना गढ़ा था, वह काफी पूरा हुआ है। असली लक्ष्य बाकी है। वही अपने हिंदू राष्ट्र का। जरूरी नहीं है कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बार-बार उसका नाम लिया जाए? दुश्मनों को भ्रमित करने के लिए कई तरह की कुटिलताएं करनी पड़ती है। झूठ ही नहीं, महा झूठ बोलना पड़ता है। ये समय के विरुद्ध युद्ध है। युद्ध जीतने के लिए भगवान कृष्ण ने भी छल किए थे। छद्म वेश धारण करना होता है। धोखा देना होगा। ठगना होता है। क्योंकि लक्ष्य भेदना है, तुम्हें। यह तपस्या का हिस्सा है। सारी सुख सुविधाओं का भोग करो। लेकिन अपनी प्रस्तुति एकदम त्यागी तपस्वी की करते रहो।
हे! स्वयंसेवकों! परम लक्ष्य के लिए बहुत करना होता है। वैसे भी राष्ट्र निर्माण के इस युद्ध में सब कुछ जायज है। सौ प्रतिशत पवित्र है। कभी अपने मन में पाप बोध ना आने दो। यही सबसे बड़ा रोड़ा है। आप सबने इसी पुण्य लक्ष्य के लिए घर परिवार नहीं बनाया। यदि गलती से बनाया था, तो वीर योद्धा की तरह त्याग दिया। आजीवन स्वयंसेवक बनना ही पुण्य का काम है। आप कुछ भी करो, आप तपस्वी हो। राष्ट्रभक्त हो। ये बात अपने रोम-रोम में बसा लो। एक सच्चे योद्धा के लिए क्या सच और क्या झूठ? फर्क नहीं करो। लक्ष्य पाने के लिए हर हथियार को साथी बना लो। सफलता तुम्हारे चरण चूमेगी। सोता रहा हिंन्नू जाग जाएगा। फिर सब बदल जाएगा। युगों के लिए। सालों पहले का वाकया है। नागपुर के भगवा मुख्यालय में एक आयोजन चल रहा था। कोई दस हजार नए प्रशिक्षु आए थे। दीक्षा लेने। कई कैंपों में प्रवचन चल रहे थे। बड़े उस्ताद इन नए-नए रंगरूटों के दिमाग क्लीन कर रहे थे। आपने ऊपर जो पढ़ा। वह लखनऊ से आए एक घाघ संघी के प्रवचन का हिस्सा था। किसी तरह मुझे इस अलौकिक भाषण को सुनने का सौभाग्य मिला था। मैं धन्य हुआ था। आप भी धन्य हो जाएं।
सोचा! आपको भी इस पुण्य वाणी का लाभ कराता चलूं। पिछले दस सालों में तो बहुत कुछ बढ़िया हुआ है। अच्छे दिन आए हैं। बैंड-बाजे के साथ आए हैं। फटेहाली के दिन गए। अमृत काल चल रहा है। अब स्वयं सेवकों के लिए स्वर्गीय सुविधाएं हैं। संगठन के स्टार होटल नुमा दफ्तर बन गए हैं। जिनमें वातानुकूलित कमरे हैं। नींद गहरी आती है। ऐसे में राष्ट्र चिंतन बगैर विघ्न बाधा के होता है। हर पट्ठा ‘ग्लोबल’ हो जाता है। क्योंकि उसे यहां ‘दिव्य दृष्टि’ मिलती है। सुख सुविधा हो, तो राष्ट्रीय चिंतन भी क्वालिटी का होता है। कंगाली में दृष्टि संकीर्ण होती थी। फुल टाइमर, इसी चिंता में घुलता था कि कल किस यजमान के यहां भोजन करना है? परसों किस सेवक से किराया भाड़ा वसूल करना है? अब यह सब गुजरे जमाने की किस्से हो गए हैं। दूर जाना हो, तो वायु मार्ग के टिकट आ जाते हैं। हवाई अड्डे पर वातानुकूलित टैक्सी आ जाती है। सुगंध फैलाती मालाएं भी आ जाती है। जी हां, ये नया सीन है। विकसित भारत का।
जो लोग यह कहते हैं कि मोदी सरकार वायदे के मुताबिक ‘अच्छे दिन’ नहीं लायी। वे या तो झूठ बोलते हैं या परम अज्ञानी हैं। अरे भाई! अच्छे दिन की बहार शुरू हुई है।आते-आते समय लगता है। मानसून को ही देख लो, केरल में महीना पहले शुरू हो जाता है। राम और कृष्णा की धरती तक पहुंचते हुए समय लगता है न! यही हाल अच्छे दिन का है। पहले अच्छे दिन उनके आए हैं, जो राम जी को लाए हैं। सालों की तपस्या के बाद। पहले यह सौ-पचास साल भोग कर लें। वह कह चुके हैं कि 2047 तक अच्छे दिन आएंगे। विकास को सफर करने में समय लगता है। लेकिन 2024 के चुनाव की तरह ‘विजय श्री’ देने में कंजूसी की, तो हिडन शर्तें लागू हो जाएंगी। फिर दोष न दीजिएगा।
इधर, ‘सब का विकास’ करने वाली सरकार तीसरी बार आ गई है। जन्मते ही अल्पमत ‘पोलियो’ का शिकार है। इस अलोकप्रियता के ‘पोलियो’ के लिए नागपुर के बाबा की तरफ इशारे हुए, तो नई रणनीति बनी। दोषों की टोपी दूसरे को पहना दो। बता दो कि उन्हें ‘अहंकार’ हो गया था। जब हुआ था, तब ये चुप रहे। 370 हटी तो आनंद मिला। अब चुनावी भैंस कीचड़-पानी में गई, तो पलटा ले लिया। भाजपा के संग गुलछर्रे मनाने की बात नकार दी। अब बहस करते रहो, ‘ये रिश्ता क्या कहलायेगा!