मोदी की अग्निपरीक्षा

नरेन्द्र दामोदरदास मोदी नौ जून को शपथग्रहण कर, लगातार तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बनें। इसके लिए मोदी जी और खास तौर पर देश के मतदाता बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने तीसरी बार मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी को समर्थन देकर सबसे बड़ी पार्टी बनाई। ये दीगर बात है कि ये समर्थन मोदी जी की आकांक्षाओं और अपने बूते पर सरकार बनाने के जादुई आंकड़े से काफी नीचे रह गया। लेकिन एनडीए गठबंधन को सरकार बनाने लायक काफी बहुमत मिल गया। यानी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) पर केंद्र सरकार निर्भर रहेगी। हालांकि निर्दलीय चुनकर आये करीब दस सांसदों ने भी मोदी जी पर भरोसा जताया है। माना जा रहा है कि जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार और टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू सत्ता पक्ष में रहकर सरकार पर अंकुश लगाने का काम करेंगे। कहने का तात्पर्य ये है कि इस बार एनडीए-एक व दो के मुकाबले घटक दलों की स्थिति ज्यादा मजबूत है। इसलिए वे अपने समर्थन की कीमत सरकार में भागीदारी के रूप में वसूल करेंगे। ये बात नयी कैबिनेट के गठन में भी साफ झलकती है। इस बार हकीकत में गठबंधन सरकार बनी है।

इस बार के आम चुनाव में देश की जनता ने जो जनादेश दिया है, वो कई मामलों में पहले की अपेक्षा अलग और विलक्षण है। ये जनादेश प्रचंड बहुमत के बल पर सरकार की मनमानी के विरुद्ध है। मतदाताओं ने प्रधानमंत्री की संसद में कमजोर विपक्ष होने की ललकार को गंभीरता से लिया और एक सशक्त विपक्ष देने का भी काम किया है। इस बार संसद का दृश्य भी बदला हुआ होगा। दस साल बाद लोकसभा में मान्यताप्राप्त नेता प्रतिपक्ष भी होगा। अब प्रधानमंत्री को सदन में ज्यादा समय मौजूद रह कर विपक्ष के सवालों के जवाब भी देने होंगे। साथ ही नोटबंदी जैसे महत्वपूर्ण और सख्त निर्णयों के बारे में कैबिनेट को सूचना भर देकर समर्थन लेने की औपचारिकता निभाने से काम नहीं चलेगा। बाकायदा कैबिनेट की मीटिंग में चर्चा के बाद ही तमाम महत्वपूर्ण निर्णय लिये जा सकेंगे। सरकार के निर्णय पहले की अपेक्षा ज्यादा लोकतांत्रिक और जनपक्षीय होने की आशा की जा सकती है। यानी कोई भी निर्णय बहुमत की सहमति के बिना जबरन थोपने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। संसद के दोनों सदन केवल पीठासीन अधिकारी की मनमानी से नहीं, बल्कि पक्ष-प्रतिपक्ष की सहमति से संचालित होंगे।
तीसरा कार्यकाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक कौशल और सहयोगी दलों से समन्वय की कला की अग्निपरीक्षा होगा। मोदी जी का चाहे गुजरात के मुख्यमंत्री का कार्यकाल रहा हो या फिर दस साल का प्रधानमंत्री का कार्यकाल रहा हो, उनका प्रचंड बहुमत के साथ एकाधिकार संपन्न शक्ति केंद्र के रूप में काम करने का अनुभव ज्यादा रहा है। मोदी जी की सरकार में अब तक नंबर दो पर कोई नहीं रहा। तमाम शक्तियां उनके पास केंद्रित रही हैं। अब उनके समक्ष सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी सरकार को चलाना किसी चुनौती से कम नहीं होगा। गठबंधन सरकारों का न्यूनतम सांझा कार्यक्रम तय किया जाता है। इसमें बड़े साझीदार दल को सहयोगियों के लिए काफी कुछ छोड़ना पड़ता है। कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं। मोदी जी की कार्यशैली को जानने वालों का मानना है कि वे समन्वयवादी और समझौतावादी नहीं हैं। वे ना ही पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की तरह उदार हैं। ऐसे में गठबंधन सरकार के भविष्य को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है।
वर्तमान हालात में मोदी जी के सामने दो रास्ते हैं। पहला ये कि वे अपने सुधारवादी एजेंडे को कुछ समय के लिए मुल्तवी कर दें। और अपने रूख को नरम रखते हुए सहयोगी दलों की भावनाओं का सम्मान करें। दूसरा ये है कि कुछ समय पश्चात’आप्रेशन कमल’ के जरिए दूसरे दलों में तोड़फोड़ करवाकर स्पष्ट बहुमत हासिल किया जाए। पिछले कुछ सालों में बीजेपी को ‘दलबदल’ करवाने में महारत भी हासिल हो चुकी है। इस आशंका को लेकर चंद्रबाबू नायडू और नीतीश बाबू समेत अन्य सहयोगी दलों के नेता भी भी सचेत हैं। इंडिया गठबंधन में शामिल दलों को भी तोड़फोड़ की आशंका हमेशा बनी रहेगी। इस सबके बावजूद आम मतदाता को ये आशा रहेगी कि सरकार उनकी सुनेगी! उनके हित में निर्णय लिये जायेंगे! बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से निपटने की दिशा में उचित कदम उठाए जायेंगे! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं होगा! लोकतांत्रिक स्वायत्त संस्थाओं के काम-काज में दखलंदाजी बंद होगी! देश में लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होंगी! आदि-आदि। सबके लिए उम्मीदों और संभावनाओं का आसमान खुला है। अब देखना ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गठबंधन सरकार के समक्ष दरपेश चुनौतियों से कैसे पार पाते हैं!

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