कैसे घबराया साहिब, बात-बात पर डरता है!


आलेख : राजेंद्र शर्मा

शुक्रवार, 26 अप्रैल को हुए दूसरे चरण के मतदान ने, संघ-भाजपा की कुशंकाओं की और बाकी सब के इसके व्यापक अनुमानों की पुष्टि कर दी है कि जिस मोदी लहर का इतना ढोल पीटा जा रहा था, वह तो खैर इस चुनाव में खोजे से भी नहीं मिलेगी, अलबत्ता इस बार मोदी उतार के काफी प्रबल लक्षण हैं। ये लक्षण, 4 जून को मोदी के सत्ता से उतरने तक ले जाएंगे या उससे कुछ पीछे रह जाएंगे या पहले ही रोक दिए जाएंगे, इसके लिए तो बेशक अभी सवा महीने और इंतजार करना पड़ेगा। लेकिन, इस चुनाव में मोदी के उतार पर रहने के जो लक्षण पहले चरण में सामने आये थे, उनकी दूसरे चरण ने पुष्टि कर दी है। पहले चरण में अगर, 2019 के चुनाव के मुकाबले, 102 सीटों पर हुए मतदान में कुल मिलाकर 4 फीसद वोट की गिरावट देखने को मिली थी, तो दूसरे चरण के मतदान में भी वही रुझान बना रहा है। दूसरे चरण में 13 राज्यों की 88 सीटों पर जो वोट पड़े हैं, उनमें 2019 के चुनाव के मुकाबले 3 फीसद से अधिक गिरावट दर्ज हुई है। इस गिरावट से पहले चरण के बाद से लगाए जा रहे इस अनुमान की पुष्टि हो गयी है कि मतदान में यह गिरावट, कमो-बेश इस पूरे चुनाव की ही विशेषता रहने जा रही है। जाहिर है कि इस गिरावट के संकेत भी, पूरे चुनाव के लिए ही सच होने चाहिए।

दूसरे चरण की 88 सीटों में इस गिरावट में बेशक, केरल में हुई 6.5% की गिरावट भी शामिल है। लेकिन, इस राज्य की 20 सीटों पर मुकाबले से भाजपा को तो एक तरह से बाहर ही माना जा रहा है और इसलिए इसके रुझान से भाजपा की सेहत पर ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। पर इस चरण में मत फीसद में यह गिरावट 13 राज्यों में से पूरे 11 में दिखाई दी है। छत्तीसगढ़ और कर्नाटक ही इसका अपवाद रहे हैं और कम से कम कर्नाटक का इस रुझान का अपवाद रहना तो, किसी भी तरह से भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं है। कुछ ही महीने पहले जोरदार तरीके से कांग्रेस के शासन में आये कर्नाटक में, जहां 2019 में भाजपा 28 में से 26 सीटों पर काबिज हो गयी थी, मत फीसद में बढ़ोतरी उसके संसदीय बोलबाले के छीझने का ही संकेत हो सकती है।

बहरहाल, भाजपा के लिए इससे भी महत्वपूर्ण संकेत, उसका गढ़ मानी जाने वाली हिंदी पट्टी में मत फीसद में बिहार में 3.5 फीसद, मध्य प्रदेश मेें 9.1 फीसद, उत्तर प्रदेश में 7 फीसद, राजस्थान में 3.4 फीसद की गिरावट होना है। पहले चरण में भी दर्ज हुई इस गिरावट का दूसरे चरण में भी जारी रहना, इसका स्पष्ट संकेत है कि 2019 के चुनाव में, सबसे बढ़कर पुलवामा और बालाकोट के सहारे, राष्ट्रवाद के जिस आख्यान के बल पर उठाई गई लहर के ज्वार ने भाजपा को तीन सौ पार पहुंचाया था, वह ज्वार कब का उतर कर भाटा बन चुका है और इस बार पूरेे चुनाव में भाटा ही बना रहने जा रहा है। यह वही हिंदी पट्टी है, जहां विपक्ष के नाम पर कांग्रेस को मप्र तथा बिहार में एक-एक सीट और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा का एका होने के बाद भी, उसे 15 तथा कांग्रेस को एक सीट ही मिल पाई थी। उसी हिंदी पट्टी में मतदान में उल्लेखनीय गिरावट, तीसरी बार मोदी सरकार के नारे के प्रति मतदाताओं की उदासीनता से लेकर विमुखता तक का खुला ऐलान कर रही है।

जैसा कि अधिकांश राजनीतिक प्रेक्षकों ने दर्ज किया, पहले चरण के मतदान के संकेतों से हुई घबराहट का नतीजा, खुद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के अपनी प्रचार कार्यनीति में साफ-साफ दिखाई देने वाला बदलाव कर, खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक अपील को प्रचार केंद्र में लाने के रूप में सामने आया। हिंदी भाषी पट्टी में ही राजस्थान में, बांसवाड़ा के अपने कुख्यात भाषण से प्रधानमंत्री ने इसकी शुरूआत की, जिसमें कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र तथा उसके तत्कालीन प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह के 2006 के एक भाषण का नाम लेकर, विपक्ष पर गरीब दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों की संपत्तियां, विशेष रूप से महिलाओं का सोना तथा मंगलसूत्र तक जब्त करने के मंसूबे बनाने का ही आरोप नहीं लगाया गया, नाम लेकर यह आरोप भी लगाया गया कि वे ये संपत्तियां छीनकर मुसलमानों में यानी ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों में, घुसपैठियों में बांटेगी! इस सरासर झूठे दावे और खुली सांप्रदायिक अपील के खिलाफ कांग्रेस समेत अनेक विपक्षी पार्टियों और हजारों आम नागरिकों के भी चुनाव आयोग से शिकायत करने से लेकर, पुलिस से शिकायत करने तक के बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी ने पहले और दूसरे चरण के मतदान के बीच के दौर में अपने चुनावी भाषणों में इसी को अपना मुख्य राग बनाए रखा है। हां! उन्होंने इतना जरूर किया कि बाद में मुसलमान शब्द का प्रयोग न करने की सावधानी बरतनी शुरू कर दी और उसकी एवज में तुष्टीकरण के लाभार्थी की संज्ञा का सहारा लेना शुरू कर दिया। बाद में चुनाव आयोग के एक अनोखे फैसले में, इन भाषणों पर शिकायतों के सिलसिले में भाजपा अध्यक्ष, जेपी नड्डा को पत्र लिखकर जवाब मांगने के बाद भी, प्रधानमंत्री मोदी ने न अपने झूठ से तौबा की और न सांप्रदायिक दुहाई से।

बहरहाल, इस सब के बावजूद दूसरे चरण के मतदान में, 2019 के मुकाबले पहले चरण की जैसी ही गिरावट ने, खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक दुहाई के इस हथियार के भी भोंथरा साबित होने के अपने स्पष्ट संकेत से साहब की घबराहट और बढ़ा दी है। आखिर, एक यही तो हथियार है, जिसका इस्तेमाल करने में उन्हें महारत हासिल है। बहरहाल, जैसा कि अनेक राजनीतिक प्रेक्षकों ने दर्ज भी किया है, दूसरे चरण के बाद से संघ-भाजपा की कार्यनीति में बदलावों का एक और चक्र शुरू हो चुका है। बेशक, ऐसा नहीं है कि अब कांग्रेस के घोषणापत्र के संबंध में, उसके संपत्ति छीनकर मुसलमानों को बांटने के आरोपों का सांप्रदायिक झूठ छोड़ ही दिया गया है। कतई नहीं। यह झूठ बराबर दोहराया जा रहा है, किंतु थोड़े बदलाव के साथ। दूसरे चरण के लिए प्रचार के आखिर तक आते-आते, इस झूठ में एक नया तत्व जोड़कर, इसे दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों यानी हिंदुओं से आरक्षण छीनकर, मुसलमानों को देने केे षडयंत्र की दिशा में बढ़ाया जा चुका था। दूसरे चरण के बाद से अब विशेष रूप से इसी के सहारे सांप्रदायिक दुहाई को आगे बढ़ाया जा रहा है।

बहरहाल, यह बदलाव सिर्फ इतना ही नहीं है। इसके साथ एक और तत्व भी जुड़ा हुआ है। ऐसा लगता है कि संघ-भाजपा की मनुवादी/आरक्षणविरोधी प्रकृति तथा उसके जातिगत जनगणना के खिलाफ होने की विपक्ष की आलोचनाओं के संदर्भ में, अबकी बार चार सौ पार का मोदी का नारा, सामाजिक रूप से वंचितों के बीच उल्टा काम कर रहा है। इस चुनाव में भाजपा के कम-से-कम चार प्रत्याशियों के संविधान बदलने के लिए चार सौ जरूरी होने के अलग-अलग दावों से, कमजोर तबकों की इसकी आशंकाओं को बल मिला है कि चार सौ पार के पीछे मंशा, संविधान को ही बदल देने और आरक्षण को खत्म करने की है। इस जोर पकड़ती धारणा से पीछा छुड़ाने की कोशिश में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने विपक्ष के खिलाफ आरक्षण की चोरी के आरोपों का स्वर ही तेज नहीं कर दिया है, वे बार-बार इसका भरोसा दिला रहे हैं कि खुद संविधान को बदलना तो दूर, जिसमें आरक्षण भी शामिल है, वे तो किसी और को बदलने भी नहीं देेंगे। अमित शाह ने मोदी की ओर से इसकी मोदी गारंटी देनी शुरू कर दी है। घबराहट इतनी ज्यादा है कि मोदी की सभाओं में चार सौ पार का जिक्र तक गायब हो गया है। इतना ही नहीं, अब तो ‘फिर एक बार मोदी सरकार’ जैसे सीधे नारों से भी बचा जा रहा है और महाराष्ट्र में हाल की अपनी चुनाव सभाओं में प्रधानमंत्री मोदी गरीबों की सरकार, दलितों की सरकार, पिछड़ों की सरकार के नारे लगवाते नजर आए! इस बीच विकसित भारत के नारे, पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के दावे और भारत के महाशक्ति बना दिए जाने की शेखियां, सब प्रचार की प्राथमिकताओं में पीछे छूट गए हैं।

इस तरह, चुनाव के तीसरे चरण की ओर बढ़ते हुए, मोदी की भाजपा कुल मिलाकर बचाव की मुद्रा अपनाने पर मजबूर होती नजर आ रही है। यह उसके खुली सांप्रदायिक दुहाई का सहारा लेने के बावजूद है। उसके दुर्भाग्य से बचाव की यह मुद्रा भी काम आती नजर नहीं आ रही है। बेशक, अपनी ओर से कोई कसर न छोड़ते हुए, उसने सीधे आरएसएस को भी प्रत्यक्ष रूप से मैदान में उतरने के लिए तैयार कर लिया है और स्वयं आरएसएस सरसंघचालक ने एक बयान जारी कर, इसका ऐलान किया है कि आरएसएस के खिलाफ यह झूठा प्रचार हो रहा है कि वह आरक्षण के खिलाफ है; आरएसएस हमेशा से संविधान-प्रदत्त आरक्षण के पक्ष में रहा है (जो कि सफेद झूठ है) और रहेगा, जब तक कि आरक्षण की जरूरत रहती है।

लेकिन, ये सफाइयां भी बहुत असर करती नजर नहीं आ रही हैं। दूसरी ओर, मोदी सम्मोहन की धुंध छंटने के साथ बेकारी, महंगाई से लेकर बढ़ती तानाशाही तथा बढ़ते सामाजिक-धार्मिक विद्वेष की सच्चाइयां, आम जनता की नजरों में ज्यादा से ज्यादा चुभ रही हैं और इसे बढ़ते पैमाने पर लोग स्वर भी दे रहे हैं। इन हालात में, तीसरे चरण में संघ-भाजपा की बदली हुई चुनावी कार्यनीति की विफलता सामने आने के बाद, चुनाव के बीचो-बीच संघ-भाजपा की घबराहट क्या रूप लेती है, अभी कल्पना करना मुश्किल है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की चालें काम नहीं कर रही हैं। साहेब घबराया हुआ है। यह दिलचस्प समय है। यह खतरनाक समय भी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)

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