दक्षिण क्यों ढोए उत्तर को?

  • केरल, कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र के सौतेले रवैए के खिलाफ दिल्ली में धरना
  • मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन ने कहा, यह संघीय ढांचे को बचाने की केरल की लड़ाई

आलोक भदौरिया,नई दिल्ली।
केरल, कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र के सौतेले रवैए के खिलाफ बिगुल बजा दिया। इतिहास में पहली दफा मुख्यमंत्रियों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया। उनकी शिकायत है कि केंद्र सरकार राज्यों को उनके वाजिब हक का भुगतान नहीं कर रही है। यह संघवाद की भावना के खिलाफ है। भाजपा की केंद्र सरकार भले ही इसे राजनीति से प्रेरित करार दे रही हो, सवाल उठता है कि ऐसी नौबत क्यों आई?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके पीछे कांग्रेस की उत्तर और दक्षिण को बांटने की साजिश देख रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस पर सीधा हमला भी किया। वे इसमें राजनीति को देख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ राजनीति है। लोकसभा चुनाव दो माह में शुरू होने हैं। ऐसी स्थिति में उनका यह आरोप बेबुनियाद भी नहीं है।

लेकिन, इससे दक्षिण के मुख्यमंत्रियों के उठाए मुद्दे औचित्यहीन नहीं हो जाते हैं। केरल के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन ने कहा, यह संघीय ढांचे को बचाने की केरल की लड़ाई है। उन्होंने कहा, हम लोग केंद्र से भीख मांगने नहीं आए हैं। हम अपना हक मांगने आए हैं। केंद्र राज्यों से बात किए बगैर फैसले थोप रहा है। 57400 करोड़ रुपए इस वित्त वर्ष में केरल को मिलने थे, केंद्र ने कटौती कर दी। राज्य को कर्ज लेने से भी रोका जा रहा है। मुख्यमंत्री विजयन ने मांग की कि लंबित ग्रांट का फौरन भुगतान किया जाए। स्वास्थ्य सेवाओं और मनरेगा के फंड बरकरार रखे जाएं।

विजयन का सबसे बड़ा हमला जीएसटी को

लेकर हुआ। इसके चलते राजस्व घाटे को पूरा करने के लिए ग्रांट दी जाए। इसे लेकर पहले तय हुए मुआवजे का तत्काल भुगतान किया जाए। वैसे जीएसटी नियमों के लागू होने के बाद राज्य में राजस्व संग्रह केंद्र के पास जा रहे हैं। जीएसटी, राज्यों के उधार पर नियंत्रण ऐसे मामले हैं जिनसे गैर भाजपा शासित राज्यों में असंतोष बढ़ रहा है।दरअसल, असली लड़ाई राजस्व पैदा करने की क्षमता और खर्च से जुड़ी हुई है। इसी से वित्तीय गैर बराबरी पैदा हो रही है। जीएसटी लागू होने के बाद यह खाई और गहरा गई। इसके लागू होने से पहले वैट और अन्य लेवी से राज्यों को कमाई होती थी। जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों को होने वाले नुकसान की भरपाई का केंद्र द्वारा वायदा किेए जाने के बाद राज्य इस नई व्यवस्था पर सहमत हो गए थे। दूसरा प्रमुख मुद्दा टैक्स के बंटवारे का है। यह केंद्र और राज्यों के बीच और राज्यों के बीच भी। यानी केंद्र और राज्यों के बीच कैसे इनका बंटवारा होता है? इसके अतिरिक्त राज्यों के बीच भी इनका बंटवारा कैसे होता है?

मामला कितना पेचीदा है? आमतौर पर केंद्र राज्यों के साथ मिलकर कोई साठ फीसद राजस्व इकट्ठा करता है। लेकिन, जब खर्च की बारी आती है तो राज्य की हिस्सेदारी साठ फीसद तक पहुंच जाती है। राज्यों का दुख केंद्र द्वारा लागू सेस और सरचार्ज को लेकर भी है। केंद्र यह राशि पूरी हड़प लेता है। राज्यों को इसमें से कोई हिस्सा नहीं मिलता है। केंद्र अपना राजस्व लगातार इसके जरिए बढ़ा रहा है।
पिछले साल एक कार्यक्रम में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एन रघुरामराजन ने कहा था कि असली मुद्दा सेस लगाकर केंद्र द्वारा राजस्व जुटाना है। सेस वह टैक्स है जिसका केंद्र राज्य सरकारों के साथ बंटवारा नहीं करती है। काबिले गौर है कि राज्यों का हिस्सा तेल के मामले में 2014 में महज 1.62 लाख करोड़ था। यह 2021-22 में बढ़कर 2.82 लाख करोड़ तक ही पहुंचा। जबकि केंद्र सरकार की 2014 में एक्साईज से कमाई सिर्फ 1.72 लाख करोड़ ही थी। यह 2021-22 में बढ़कर 4.92 लाख करोड़ तक पहुंच गई थी।
14 वें और 15 वें वित्त आयोग की संस्तुतियों के कारण राज्यों का असंतोष बढ़ा है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का कहना है कि पहले 4.71 फीसद टैक्स का हिस्सा राज्य को मिलता था। यह अवधि 2015 से लेकर 2020 तक की थी। लेकिन, 15 वें वित्त आयोग में यह घटकर 3.64 फीसद हो गया। उनका कहना है कि पिछले पांच सालों में राज्य को 62098 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। दिल्ली प्रदर्शन से पहले राज्य सरकार के विज्ञापन में दावा किया गया कि केंद्र के चलते कर्नाटक को आर्थिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए 18177 करोड़ रुपए मांगे गए। केंद्र ने नहीं दिए। इसके स्पेशल ग्रांट मद में 5495 करोड़ और भद्रापुर अपर बैंक प्रोजेक्ट के 5300 करोड़ केंद्र ने नहीं जारी किए।
दक्षिण के तीसरे प्रमुख राज्य तमिलनाडु को भी भाजपा की केंद्र की मोदी सरकार से शिकायतों की लंबी फेहरिश्त है। जंतर मंतर पर हुए प्रदर्शन में तमिलनाडु की ओर से पल्लानीवेल थ्यागराजन ने भाग लिया। उन्होंने सीधा आरोप जड़ा कि राज्य में आए सदी के विनाशकारी साइक्लोन से निपटने के लिए तमिलनाडु ने 37000 करोड़ की मदद

मोदी सरकार से मांगी। लेकिन, कुछ नहीं मिला। इस प्रदर्शन की क्रोनोलॉजी दिलचस्प है। एक दिन कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के साथ जंतर मंतर पर प्रदर्शन करते हैं। उसी जगह दूसरे दिन केरल के मुख्यमंत्री विजयन भी अपने कबीना मंत्रियों के साथ प्रदर्शन करते हैं। उनके साथ आम आदमी पार्टी के दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी प्रदर्शन में शिरकत करते हैं।
दरअसल, सभी गैर भाजपा शासित राज्यों में मोदी की केंद्र सरकार के रवैये के खिलाफ आक्रोष है। भाजपा सरकार भले ही इसे राजनीति से प्रेरित कवायद बताए, लेकिन, मुख्यमंत्रियों का दिल्ली में आकर सड़क पर प्रदर्शन करना कोई सामान्य घटना तो नहीं ही है। यह बेशक गंभीर घटना है। हालांकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इन सारे आरोपों को खारिज किया। उन्होंने तो एक लंबी फेहरिस्त गिना डाली कि केंद्र ने कब-कब और क्या क्या धनराशि इन राज्यों को जारी की है। अपनी चिर परिचित शैली के मुताबिक उन्होंने यूपीए सरकार से शुरू कर मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल में जारी धनराशि का तुलनात्मक ब्यौरा भी संसद में पेश कर दिया।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सिर्फ दो नहीं पांच राज्यों ने दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया। कर्नाटक, केरल, दिल्ली, पंजाब और तमिलनाडु। तो यह कहकर इसे सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है कि सिर्फ दक्षिण बनाम उत्तर की लड़ाई है? इसमें दो राज्य पंजाब और दिल्ली तो उत्तर भारत के हैं। इससे पहले छत्तीसगढ और राजस्थान की तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने भी केंद्र सरकार के रवैये के खिलाफ आवाज बुलंद की थी। यह जरूर है कि उन्होंने दिल्ली में आकर सड़क पर बैठकर प्रदर्शन नहीं किया था। यह भी याद रखें कि कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी मनरेगा के भुगतान में विलंब को लेकर कोलकाता में धरना दिया था। वैसे जीएसटी में राज्य का हिस्सा समय पर न मिलने को लेकर गैर भाजपा राज्य सरकारों की शिकायतें पहले भी आती रही हैं। यानी मामला सिर्फ दक्षिण के राज्यों को अलग-थलग करके देखने से काम नहीं चलने वाला है। इसलिए मोदी सरकार का यह कहना आश्वस्त नहीं करता है कि सिर्फ दक्षिण के राज्यों में देश को बांटने की साजिश हो रही है। इसे कांग्रेस हवा दे रही है।
केंद्र सरकार भले ही कुछ भी तर्क गढ़े, इतना तो तय है कि उसके रवैये से राज्यों में आक्रोश है। एक वक्त में सीबीआई को नौ राज्यों ने अपने-अपने राज्यों में जांच की मंजूरी वापस ले ली थी। यानी उन राज्यों में मंजूरी के बिना सीबीआई वहां कुछ नहीं कर सकती थी। मंजूरी वापस लेने वाले राज्यों में भाजपा शासित उत्तर पूर्व के भी कुछ राज्य शामिल थे। इनमें मेघालय ने 2020 में और मिजोरम ने 2015 में ऐसा फैसला लिया था। पश्चिम बंगाल ने 2018 में, छत्तीसगढ़ ने 2019 में मंजूरी वापस ली थी। पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान, केरल और झारखंड ने 2020 में मंजूरी वापस ली थी।
इन सारे मामलों के बाद ही प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के छापों ने तेजी पकड़ी थी। यह अलग बात है कि ईडी का सजा के मुकाम तक मामलों को पहुंचाने का परिणाम एक फीसद के करीब ही है। यह अलग बात है कि विपक्ष को ही भ्रष्टाचारी साबित करने की मुहिम छेड़ने में वह केंद्र की गलबहियां करते जरूर नजर आते हैं। छत्तीसगढ़ के हालिया चुनाव में तत्कालीन कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ महादेव एप के मामले में एक गवाह का बयान जारी होना भी एक दिलचस्प कड़ी है। यह बयान ऐन चुनाव के दौरान जारी हुआ था।
कोई एक साल पहले केरल के वित्त मंत्री के एन बालागोपाल ने कहा था, केंद्र हमारे वित्तीय संसाधनों पर दबाव बना रहा है। हमें वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा है। भाजपा की अगुआई वाली सरकार हमारे उधार की सीमा पर अंकुश लगा रही है। कटौती कर रही है। उधार लेने की सीमा लगभग आधी कर दी है।
कुल मिलाकर केंद्र राज्यों के बीच विश्वास की कमी तो जरूर सामने दिखाई देती है। संविधान के संघीय ढ़ांचे की भावना के खिलाफ कुछ घटनाएं देखी जा सकती हैं। महाराष्ट्र में तत्कालीन उद्धव ठाकरे की सरकार के शक्ति परीक्षण के मौके पर ठाकरे की शिवसेना से अलग हुए धड़े के कुछ नेताओं और मंत्रियों की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल को तैनात किया गया था। इसी तरह पश्चिम बंगाल में पुलिस मुखिया राजीव कुमार से पूछताछ के लिए केंद्रीय बलों को तैनात किया जाना भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा सकता है। बहरहाल, आखिर क्या वजह है कि केंद्र सरकार राज्यों को विश्वास लेने में सफल नहीं हो पा रही है। और यदि विश्वास में लेरही है तो ऐसा पारदर्शी तरीके से दिखना भी चाहिए। कहा भी जाता है कि न्याय मिलना जितना महत्वपूर्ण न्याय होता दिखना भी है। तो इस उक्ति पर केंद्र सरकार खरी उतरती फिलहाल तो नजर नहीं आती है।

सीटें घटने की आशंका ने उड़ाईं नींदें

दक्षिणी राज्यों में एक बड़ी चिंता परिसीमन को लेकर भी है। माना जाता है कि दो साल बाद यानी 2026 में प्रस्तावित लोकसभा परिसीमन के बाद संसद में प्रतिनिधित्व को लेकर बड़ा बदलाव हो सकता है। लोकसभा परिसीमन में आबादी के हिसाब से सीटों को फिर से तय किया जाता है। दूसरे शब्दों में उत्तर भारत के कुछ राज्यों में संसदीय सीटों की संख्या बढ़ सकती है। राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि इसके चलते संसद में उत्तर भारत का दबदबा बढ़ जाएगा। यह चिंता भी दक्षिण के राज्यों को खाई जा रही है। उनका प्रमुख तर्क है कि आबादी के नियंत्रण में यदि उनका प्रदर्शन बेहतर है तो वे इसका खामियाजा क्यों भुगतें? और, यदि वे आर्थिक तौर पर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं तो वे अच्छा प्रदर्शन न करने वाले राज्यों को क्यो ढोएं?

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