बादल सरोज
बिल्ली ही थैले के बाहर नहीं आयी है – भेड़ की वह खाल भी उतर कर गिरगिरा गयी है, जिसे ओढ़ कर अब तक दिखावा किया जा रहा था। अयोध्या अध्याय, पूरा होने के पहले ही, अरण्य काण्ड से होते हुए – जैसी कि आशंका थी – अब लंका काण्ड में बदलता जा रहा है। पिछले दो सप्ताहों से आ रही खबरों से अब आम हिन्दुस्तानी भी समझ चुके हैं कि अयोध्या के आयोजन से उस हिन्दू धर्म का भी कितना संबंध है, जिसके नाम से देश की लंका लगाने की यह विराट परियोजना लाई गयी है। साढ़े चार साल पहले अमरीकी पत्रिका ‘टाइम’ मैगज़ीन के कवर पेज की खूब चर्चित हुई उक्ति – इंडिया’ज डिवाईडर इन चीफ – शब्दश: व्यवहार में उतरती हुयी दिखाई दे रही है और जैसा कि नियम है, विभाजन की प्रक्रिया जब शुरू होती है, तो सिर्फ एक ही जगह तक महदूद नहीं रहती, वैसा ही हो रहा है। इस बार झंझट खुद उस धर्म में है, उस धरम की संस्थाओं और मान्यताओं के साथ है, जिसके नाम पर पूरे देश को हर तरह से भगवा रंगने के लिए हजारों करोड़ रुपया फूँका जा रहा है। इस बार की तनातनी सनातनी है, मतलब उन सनातनियों के बीच ही है, जिनका चोला इस गिरोह ने अभी पिछली साल ही हिन्दू बाने का त्याग करके धारण किया था ।
संघी ट्रोल आर्मी और खुद मोदी सरकार के मंत्री जिस भाषा में, जितनी निर्लज्जता के साथ चारों शंकराचार्यों की भद्रा उतार रहे हैं, वह असाधारण रूप से निकृष्ट असभ्यता का एक उदाहरण है। जिसे सनातन धर्म बताया जाता है, चार पीठों के शंकराचार्य उसके शीर्षस्थ प्रतीक और प्रवक्ता माने जाते हैं। संघ और भाजपा और – हालांकि अब अलग से इनका नाम लेने की जरूरत नहीं बची है, वे भाजपा और संघ के संबोधन में ही संबोधित हो जाते हैं – कारपोरेटी मीडिया बाबर, औरंगजेब, मुगलों और सेक्युलरों को छोड़-छाड़ कर इन चारों के पीछे हाथ धोकर पडा हुआ है। कुनबा आदि शंकर द्वारा बनाई गयी इन पीठों के शंकराचार्यों से इतना ज्यादा क्यों खफा है? इसलिए कि ताजे इतिहास में, संभवतः समूचे इतिहास में भी यह पहली बार है, जब चारों शंकराचार्यों ने सत्ता के शीर्ष पर बैठे प्रमुखों से मोर्चा लिया है। एक-सी भाषा में बोलते हुए 22 जनवरी को अयोध्या में होने वाले आयोजन को लेकर सार्वजनिक टिप्पणियां की हैं, उसमें शामिल न होने की घोषणा करते हुए चारों के चारों ने इस आयोजन में जाने से इनकार कर दिया है, इसे एक राजनीतिक पार्टी भाजपा और एक व्यक्ति – मोदी – केन्द्रित ऐसा आयोजन बताया है, जो उनके मुताबिक़ जिस तरह से संपन्न किया जा रहा है, वह न सिर्फ शास्त्र सम्मत नहीं है, बल्कि शास्त्र विरुद्ध है। पुरी के शंकराचार्य तो यहाँ तक बोल गए कि “भारत में राजनीति करने वालों की सीमा संविधान निर्धारित करता है, हर क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप अनुचित है।” इतना ही नहीं, वे यह भी बोले कि “व्यक्ति के नाम पर इस तरह का प्रचार ईश्वर के प्रति द्रोह है।” उनकी आपत्ति, जिस पर पूरा कुनबा जवाब देने से बच रहा है, अधबने और अधूरे मंदिर के उद्घाटन और उसके पीछे छिपी नीयत को लेकर है। बकौल उनके धर्म की भाषा में, कलश मंदिर का सिर, शिखर आँख और भवन मुख होता है – इन सबके अधूरा रहते हुए सिर्फ गर्भ गृह के बनने के नाम पर प्राणप्रतिष्ठा करना जन्म से पहले ही सब कुछ कर देना जैसा है।
असहमति और विरोध सिर्फ इन चार शंकराचार्यों का नहीं है, जिन पंडित जी से इसका कथित शुभ मुहूर्त निकलवाया गया है, उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया है। काशी के इन नामी और अपनी विधा में प्रतिष्ठित ज्योतिषी महोदय ने प्रेस को बताया कि “उनसे मुहूर्त निकालने के लिए नहीं, बल्कि जनवरी में मुहूर्त निकालने के लिए कहा गया था, सो उन्होंने जनवरी की 22 तारीख का समय निकाल दिया।” साफ़ है कि मुहूर्त के हिसाब से तारीख का चुनाव नहीं किया गया, चुनाव के हिसाब से मुहूर्त की तारीख निकाली गयी है। हालांकि एक मजेदार विडम्बना यहाँ भी है। ज्योतिष के अनुसार, जिस घड़ी में यह कर्मकांड किया जाने वाला है, वह समय मृगशिरा नक्षत्र का काल होगा। राम के आख्यान में इस नक्षत्र का प्रतिनिधि मारीच है, जिसने सोने का हिरण बनकर बाद में हुए सारे उत्पात का उदघाटन किया था। हिन्दू ज्योतिष शास्त्र के हिसाब से मृगशिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोगों की प्रवृत्ति थोड़ी चंचल होती है और वे भौतिकता के पीछे भागने वाले होते हैं। उनकी इच्छा इन पर हावी होती है। यह इच्छा क्या है, अब यह भी सबके सामने आ चुका है । शंकराचार्यों और ज्योतिषाचार्यों के ऊपर कैमराचार्य की प्रचारलिप्सा यहाँ भी नुमायाँ है। प्राण प्रतिष्ठा समारोह की विवरणिका के अनुसार, उस समय गर्भगृह में आरएसएस प्रमुख भागवत सहित सिर्फ पांच लोग रहेंगे – जब मूर्ति की आँखें खोली जायेंगी, तो नरेंद्र मोदी उस मूर्ति के ठीक पीछे होंगे – इस तरह सर्वप्रमुख फोटो के फोकस में वे ही होंगे। जैसे इन दिनों बालक राम की अंगुली थामकर उन्हें मंदिर में ले जाते मोदी की तस्वीर कुनबे के प्रचार में है, 22 जनवरी के बाद मूर्ति के पीछे, मूर्ति से बड़े दीखते मोदी की तस्वीर लोकसभा चुनाव का मुख्य पोस्टर बना दी जायेगी। वह मूर्ति कौन सी होगी, यह अभी तक घोषित नहीं किया गया है – किन्तु यह साफ़ किया जा चुका है कि यह वह मूर्ति नहीं होगी, जिसे 22-23 दिसंबर 1949 की दरमियानी रात को बाबरी मस्जिद में चुपके से रखवा कर प्रकट होना बताया गया था। तब भी सब कुछ शुद्ध राजनीतिक इरादे से किया गया था, अब भी सब कुछ क्षुद्र राजनीतिक मकसद से किया जा रहा है। न उस मूर्ति को जगह दी जा रही है, जिसके नाम पर देश भर में उन्माद पैदा किया गया है ; ना हीं उस जगह को, जिस जगह के नाम पर बर्बरता के साथ मस्जिद को ढहाया गया था और जिस जगह पर मन्दिर बनाया जा रहा है। इस बारे में, अब तक के दावे से एकदम 180 डिग्री की पलटी खाकर आयोजकों का दावा है कि रामलला की वह मूर्ति इस नए विराटाकार भवन के हिसाब में काफी छोटी है। आदमी के नाप से वस्त्र की बजाय वस्त्र के हिसाब से आदमी बनाने की यह चतुराई एक तरह से उस ठगी का पर्दाफाश करती है, जो इस देश की विरासत और जनता दोनों के साथ पहले 1949 में और उसके बाद 1992 में की गयी थी और अब 2024 में प्राण प्रतिष्ठा के नाम पर की जा रही है।
इस आयोजन को राष्ट्रीय एकता का आयोजन बताने के दावे की कलई चम्पत राय के खुद हिन्दुओं को विभाजित करने और राम मंदिर को सारे हिन्दुओं का न बताने वाले बयान ने खोल दी है। रही-सही कसर रामभद्राचार्य के घोर आपत्तिजनक और मनुवादी बोल वचनों ने पूरी कर दी है ।
देश भर की जनता में इस सबकी प्रतिक्रिया हो रही है, इसके असर को कम करने के लिए उपाय उठाये जा रहे हैं। मोदी का यजमानी छोड़ना ऐसा ही एक डैमेज कण्ट्रोल है। कर्मकांड के हिसाब से यजमान को सपत्नीक बैठना होता है, मगर इसके बाद भी मोदी यजमान बनने को आतुर थे। उसके लिए धार्मिक विधि सम्मत व्रत उपवास, कंठी माला का जाप इत्यादि शुरू भी कर चुके थे। मगर शंकराचार्यों और नागपुर मठ के अलावा सभी मठों के सवालों से घबरा कर मोदी ने सपत्नीक हाजिर होने की जोखिम उठाने की बजाय यजमानी छोड़ना चुना है ; उन्हें पता है कि किसी भी भूमिका में रहें, फुटवा तो उनका ही छपेगा।
इसके बावजूद उन्हें डर है कि सारी कोशिशों के बावजूद कहीं जनता की इसमें भागीदारी नगण्य न रह जाए, अपने जीवन की हर रोज बढ़ती विपदाओं से जूझते भारतीय इस जाहिर-उजागर राजनीति की कहीं उपेक्षा न कर दें, इसलिए इस पूरी महापरियोजना को लागू करने के लिए सारे सरकारी तंत्र को भी झोंक दिया गया है। जबकि भारत का संविधान धर्म और उसके साथ शासन के रिश्तों और बर्ताब के बारे में बिलकुल भी अस्पष्ट नहीं है, यह एकदम साफ़-साफ़ प्रावधान करता है। सोमनाथ मन्दिर के उद्घाटन के समय बाबू राजेन्द्र प्रसाद को नेहरू की लिखी चिट्ठी इस संवैधानिक समझ को ठीक तरह अभिव्यक्त करती है। सोमनाथ के मंदिर का उदघाटन करने को तत्पर बैठे राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर पंडित नेहरू ने कहा था कि बाबू राजेंद्र प्रसाद एक व्यक्ति की हैसियत से कहीं भी जा सकते हैं, किन्तु भारत के राष्ट्रपति के रूप में ऐसे कामों से उन्हें दूर रहना चाहिए । सत्ता और धर्म को अलग रखने के मुद्दे पर आजादी के आन्दोलन में शामिल सभी लोग एक राय थे। सिर्फ दो धाराएं, जो स्वतंत्रता संग्राम से ही दूर रहीं, की सोच अलग थीं : एक जिन्ना की मुस्लिम लीग और दूसरी सावरकर और उनसे प्रेरित आरएसएस!!
धर्माधारित राष्ट्र बनाने का खामियाजा पाकिस्तान भुगत चुका है – भारत में यदि ऐसा हुआ, तो बात कहाँ तक जायेगी, यह शंकराचार्यों और सनातनी मठों के आचार्यों के साथ हो रही गाली गलौज से समझा जा सकता है। मंदिर तो बहाना है, भारत को पाकिस्तान जैसा बनाना है।