डा सुशील उपाध्याय
सवाल अंग्रेजी या किसी भाषा के विरोध का नहीं है, बल्कि सरकारों की विरोधाभासी नीतियों का है। हाल के दिनों में अंग्रेजी के संदर्भ में दो मामलों ने सरकारों और नीति निर्धारकों के विरोधाभास को उजागर किया। पहला मामला, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अंग्रेजी को शंघाई सहयोग संगठन तीसरी भाषा बनाने पर जोर दिया है। इस संगठन में चीन, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, तजाकिस्तान, रूस, भारत और पाकिस्तान शामिल हैं। इस संगठन में मंडारिन और रूसी भाषा को आधिकारिक भाषा के तौर पर शामिल किया है। इसमें दिक्कत यह है कि भारत और पाकिस्तान में सामान्य तौर पर मंडारिन और रूसी भाषा के जानने वाले बहुत कम मिलते हैं। भारत इस मुश्किल को खत्म करना चाहता है। इसी को देखते हुए अंग्रेजी को इस संगठन की तीसरी भाषा बनाने का प्रस्ताव रखा गया है।
अब सवाल यह है कि क्या अंग्रेजी की बजाय हिंदी का प्रस्ताव रखा जा सकता था ? भारत सरकार हिंदी को वैश्विक भाषा बनाने की बात करती है। नई शिक्षा नीति में भी हिंदी और भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात कही गई है, लेकिन जब शंघाई सहयोग संगठन जैसे वैश्विक मंचों की बात आती है, जहां भारत, पाकिस्तान के अलावा किसी की अंग्रेजी में रुचि नहीं हैं, वहां भी भारत अंग्रेजी का प्रस्ताव देता है। यहां रोचक बात यह है कि इस प्रस्ताव का समर्थन करने वाला पाकिस्तान खुद हिंदी (उर्दू लिपि में) को समझने में समर्थ है, लेकिन असली बात उस मानसिकता की है जो यह मानती है कि भारत-पाकिस्तान का संवाद एवं संप्रेषण अंग्रेजी के माध्यम से ही हो सकता है।
यह प्रस्ताव भारत के उन विदेश मंत्री ने रखा है जो बहुत प्रभावपूर्ण हिंदी बोलते हैं। (और विदेश मंत्री एस. जयशंकर ही क्यों दक्षिण भारत के प्रायः सभी प्रमुख नेता अच्छी हिंदी बोलते हैं। हाल ही में कर्नाटक चुनाव में डीके शिवकुमार और मल्लिकार्जुन खड़गे की हिंदी सभी ने सुनी। इससे पहले जयललिता और एचडी देवगौड़ा की हिंदी भी एक उदाहरण के तौर पर सामने रही है। इस मौके पर पूर्वोत्तर के किरण रिजिजू और पीए संगमा की हिंदी को भी याद कर सकते हैं। इनके अलावा हेमंत बिस्वसरमा, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे या खुद प्रधानमंत्री मोदी की हिंदी भी भारत के राजनीतिक पटल पर हिंदी की स्थिति को उजागर करती है। ये सब उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि हिंदी भारत के हर कोने का प्रतिनिधित्व कर रही है। कम से कम राजनीतिक पटल पर तो ही कर रही है।) वस्तुतः भारत ने शंघाई सहयोग संगठन में हिंदी की बजाय अंग्रेजी का प्रस्ताव देकर हिंदी के लिए एक बड़ा अवसर खोया है।
दूसरा मामला उत्तराखंड से जुड़ा है। सरकार ने पहली से 12वीं तक की सभी पाठ्यपुस्तकें हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। प्रदेश में नए सत्र से अंग्रेजी माध्यम की किताबें उपलब्ध हो जाएंगी। बताया गया है कि इसके पीछे सरकार की मंशा अंग्रेजी भाषा पर छात्रों की मजबूत पकड़ बनाना है। यह दावा भी किया गया है कि इससे गणित एवं विज्ञान की पढ़ाई का स्तर बढ़ेगा और प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता की दर में भी बढ़ोत्तरी होगी। शिक्षा विभाग के अधिकारी इस निर्णय को सरकार की उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे कि बीते कुछ वर्षाें में अंग्रेजी माध्यम के सरकारी स्कूलों को प्रचारित किया गया था। यानि सरकार सैद्धांतिक और नीतिगत तौर पर यह मानती है कि अंग्रेजी को बढ़ावा देकर ही शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ावा दिया जा सकता है।
इस क्रम में यह बात स्पष्ट किया जाना बेहद जरूरी है कि हिंदी को प्रतिष्ठापित करने के लिए अंग्रेजी का विरोध गैरजरूरी है, बल्कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें नई पीढ़ी केवल हिंदी ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं को भी सीखे, उनका प्रयोग करे। वैसे भी देश में कई दशक से तीन-भाषा फार्मूला लागू है। लेकिन, हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी को बढ़ाना नीतिगत और सैद्धांकिक तौर पर गलत प्रतीत होता है। ये प्रयोग उत्तराखंड जैसे हिंदी भाषी राज्य में होना तो और भी चिंता की बात है। इस पर यह सवाल उठाया जा सकता है कि निजी स्कूलों में हर तरफ अंग्रेजी का बोलबाला है। ऐसे में सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम होने में क्या बुराई है ? यकीनन, कोई बुराई नहीं है, लेकिन फिर उन दावों का क्या होगा जो हिंदी को वैश्विक भाषा बनाने की बात कह रहे हैं।
भाषाओं का विकास, विस्तार और उनके साथ जुड़ी राजनीति काफी जटिल है। इससे जुड़े पहलुओं को किसी आसान पद्धति से नहीं समझा जा सकता। भारत के भाषा संबंधी आंकडों और भाषिक भूगोल की सबसे उल्लेखयनीय बात ये है कि देश में सर्वाधिक तेजी से (दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में) विस्तार पाने वाली भाषाओं में हिंदी और अंग्रेजी ही हैं। इसमें भी अंग्रेजी के आंकड़े काफी प्रभावपूर्ण है। दूसरी और तीसरी भाषा के तौर पर अंग्रेजी का फैलाव अखिल भारतीय है, यह भौगोलिक तौर पर हिंदी से भी ज्यादा विस्तृत है। वर्ष 2011 की जनगणना में केवल दशमलव दो ( 0.2) प्रतिशत लोगों ने अंग्रेजी को अपनी पहली भाषा बताया, लेकिन दूसरी और तीसरी भाषा के तौर पर यह आंकड़ा 10 फीसद से भी अधिक है। इसमें संदेह नहीं है कि बीते 12 साल में यह और तेजी से बढ़ा है और अनुमान है कि वर्तमान में मातृभाषा, दूसरी भाषा और तीसरी भाषा के तौर पर अंग्रेजी बोलने, जानने और समझने वालों की संख्या देश की कुल आबादी का 15 फीसद तक हो चुकी होगी। यानि भारत में 25-26 करोड़ लोग अंग्रेजी में संवाद करने में सक्षम हैं। परिणामतः हिंदी के बाद भारत में दूसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी है। यह आंकड़ा भारत को दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा अंग्रेजी बोलने वाला देश बनाता है। प्रश्न यह है कि इस आंकड़े पर प्रसन्न हुआ जाए या चिंतित ? इसका जवाब यह है कि यदि अंग्रेजी का विस्तार हिंदी एवं भारतीय भाषाओं की कीमत पर हो रहा है तो इस पर चिंता ही की जानी चाहिए।
चूंकि, अंग्रेजी के साथ आर्थिक उन्नति, सामाजिक हैसियत में बढ़ोत्तरी और सत्ता में हिस्सेदारी की संभावना जुड़ी हुई है इसलिए अब अंग्रेजी शिक्षण एवं अंग्रेजी माध्यम की मुखर मांग भारत के ग्रामीण वर्ग और वंचित समुदायों से आती दिखती है। भले ही बोलने वालों संख्या की दृष्टि से हिंदी और अंग्रेजी में बड़ा अंतर हो, लेकिन यह सत्य है कि अंग्रेजी भारत की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक ताकतवर है और इसकी ताकत में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। भारत सरकार कहती है कि सेतु भाषा के रूप में हिंदी का विकास होगा, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि सेतु भाषा के तौर पर अंग्रेजी के सामने अन्य कोई भाषा मुकाबले में नहीं है। सेतु भाषा के तौर पर अंग्रेजी के विकास में दक्षिण और पूर्वाेत्तर राज्यों का विशेष योगदान है। दूसरी बात नगरीकरण की तेज गति ने भी अंग्रेजी के विकास की संभावनाओं को बेहतर किया है। लोक भाषा फाउंडेशन के सर्वे में यह पाया गया कि भारत में द्विभाषी लोगों की संख्या करीब 38 प्रतिशत और तीन भाषा बोलने वालों की संख्या 11 फीसद है। इन दोनों आंकड़ों में अंगे्रजी का हिस्सा उल्लेखनीय है।
जहां तक किसी भाषा को सांस्थनिक तौर पर विस्तार देने की बात है तो उसे प्रशासन, न्यायालय, मीडिया, शिक्षा आदि की भाषा बनाना ही होगा। ये ही तमाम बातें अंग्रेजी के पक्ष में जाती हैं। अंग्रेजी के इस पक्ष को सरकारों के निर्णय भी मजबूती देते हैं। इन निर्णयों के दो उदाहरण शुरू में ही गिनाए गए हैं। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि हमारा जोर सीखने पर नहीं, बल्कि भाषा पर है। माध्यम भाषा को ही ज्ञान का पर्याय मान लिया गया है। इसका परिणाम यह है कि जब कमजोर वर्ग के युवा देश के नामी संस्थानों में पढ़ने जाते हैं तो भाषागत बैरियर उन्हें आत्मघात की राह पर लेकर जाता है। यूजीसी के पूर्व सदस्य प्रो. योगेंद्र यादव ने इसी को शिक्षाघात कहा है। चूंकि, देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और भौतिक परिदृश्य पर अंग्रेजी का बोलबाला है इसलिए हर कोई उसी की ओर आकर्षित है। जो इस दौड़ में पिछड़ता है, उसमें से अनेक आत्मघात का रास्ता चुन लेते हैं।
भले ही सरकार के आदेशों-निर्देशों में और सत्ता में मौजूद लोगों के भाषणों में हिंदी और भारतीय भाषाओं की विशेषता के गुण गाए जाते हों, लेकिन श्रेष्ठ अंग्रेजी ही बनी हुई है और अंग्रेजी के समान ही अन्य भाषाओं को श्रेष्ठता के स्तर पर लाने का काम आसान बिल्कुल नहीं है। इसमें दशकों लग जाएंगे और यह तभी संभव है जब तकनीकी-प्रोफेशनल और सामाजिक-आर्थिक स्तरों पर हिंदी को समान महत्व मिले। लेकिन, जब भारत के विदेश मंत्री अंग्रेजी को शंघाई सहयोग संगठन की तीसरी भाषा बनाने का प्रस्ताव रखते हैं या उत्तराखंड सरकार छात्रों के गणित एवं विज्ञान को बेहतर करने के लिए अंग्रेजी को बढ़ावा देती है तो फिर हिंदी की उपस्थिति का विस्तार केवल आदर्शाें की बात ही लगता है।
इस विमर्श के क्रम में यह याद जरूर रखिये कि अंग्रेजी का विरोध निरर्थक है। आज के समय में अंग्रेजी ज्ञान की भाषा है, उसे सीखना और प्रयोग करना चाहिए। साथ ही, यह भी याद रखिये कि चाहे बीतते समय के साथ अंग्रेजी भारतीय भाषा बन गई हो, लेकिन यह भारत के समाज और संस्कृति की भाषा नहीं है। भले ही अतीत में अंग्रेजी औपनिवेशक दासता का एक बड़ा टूल थी, लेकिन अब उसका दखल बहुत अलग तरह से है। वैसे भी, भारत में जो भाषा करीब 190 साल से अकादमिक तौर पर पढ़ाई जा रही हो, उसे बाहर करना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव है। इसका बेहतर समाधान यह है कि भारत भी यूरोपीय समाज की तरह बहुभाषी समाज में परिवर्तित हो। हरेक व्यक्ति अपनी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी को जाने-सीखे, इसमें कोई बुराई नहीं है। और केवल मातृभाषा ही नहीं, बल्कि पड़ोस के राज्य की कोई भाषा या अपनी पसंद की कोई अन्य देशी-विदेशी भाषा सीखे, उसका व्यवहार करे। भारत बहुभाषावादी होगा तो अंग्रेजी के सर्वत्र फैल जाने के खतरे से भी बाहर आ सकेगा। तब शायद एस. जयशंकर और उत्तराखंड सरकार अंग्रेजी को नहीं, बल्कि हिंदी (या अन्य भारतीय भाषाओं) को प्राथमिकता देते दिखेंगे।