विशेष रिपोर्ट : कब रुकेगा युद्ध?

नौकरियां जाने का बढ़ा खतरा

  • दुनिया में आर्थिक मंदी बढ़ाने में रूस-यूक्रेन युद्ध की भूमिका अहम
  • विश्व बैंक की नजर में मौजूदा साल दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं के लिए सबसे मुश्किल भरा

आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।

रूस-यूक्रेन युद्ध को कोई एक साल पूरे होने वाले हैं। इसके खत्म होने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। लेकिन, इसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। दुनिया में आर्थिक मंदी बढ़ाने में इसकी प्रमुख भूमिका है। कोरोना महामारी से त्रस्त दुनिया को इसके चलते गंभीर नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं। नौकरियां जाने का सिलसिला शुरू हो चुका है। विकसित देशों में ही नहीं, बल्कि विकासशील देशों में भी यह संकट गहराने लगा है।

पिछले साल 24 मार्च को रूस ने ह्यसीमित सैन्य कार्रवाईह्ण का दावा करते हुए यूक्रेन पर धावा बोला था। तब यह माना गया था कि रूस जैसी सैन्य महाशक्ति के सामने यूक्रेन ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। यूक्रेन अब भी डटा हुआ है। दस माह बाद भी दुनिया में अपना परचम लहराने का दावा करने वाली कोई भी महाशक्ति इस युद्ध को खत्म करने में असफल साबित हुई है। अमेरिका की अगुआई में विकसित देशों ने फौरी कार्रवाई करते हुए आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा कर दी।

माना जा रहा था कि इन प्रतिबंधों के चलते रूस जल्द ही हथियार डाल देगा। आर्थिक तौर पर वह इन प्रतिबंधों का सामना करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। प्रतिबंधों को लागू करने में हिचकिचाहट थोड़े समय में ही साफ होने लगी। दुनिया में पेट्रोलियम पदार्थों की सप्लाई में रूस की अच्छी खासी भागीदारी थी। कोई 13 फीसद तक। इसके अतिरिक्त यूरोप को प्राकृतिक गैस की सप्लाई में रूस का भारी दबदबा है। कोई एक तिहाई प्राकृतिक गैस की सप्लाई यूरोप को रूस ही करता है।

इन सब तथ्यों को नजरअंदाज कर अमेरिका और यूरोपीय देशों ने आनन-फानन में प्रतिबंधों की घोषणा कर दी थी। काबिलेगौर है कि यूरोपीय देशों को अपने घर और व्यावसायिक संस्थानों को गर्म रखने के लिए प्राकृतिक गैस की जरूरत होती है। सर्दियों में यह जरूरत और बढ़ जाती है। लिहाजा, लाख प्रतिबंध क्यों न थोपे गए हों अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों ने पिछले साल दिसंबर तक इनकी सप्लाई जारी रखने का फैसला लिया। ऐसा ही हाल क्रूड पेट्रोलियम का हुआ। चीन, भारत ने रूस से तेल का आयात जारी रखा। इस बिना पर कि जब यूरोपीय देश अपनी जरूरत का ध्यान रख रहे हैं तो भारत ने भी अपने हितों को ध्यान में रखकर आयात का फैसला जारी रखा।

यह जरूर है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति ब्लोदीमीयर जेलेंस्की इस बीच लगातार नाटो सहयोगियों से हथियार मांगते रहे। उन्हें अमेरिका समेत कई देशों ने आर्थिक के साथ सामरिक मदद भी लगातार जारी रखी। 23 से 30 सितंबर के दौरान हुई रायशुमारी में रूस ने चार प्रांत लुहांस्क, डोनेत्सक, खेरसॉन और जैपोरिज्जया को अपने देश में मिला लिया। यह चारों प्रांत यूक्रेन का कोई 15 फीसद भूभाग होता है। यूक्रेन पर जीत हासिल न कर पाने की स्थिति में विकल्प के तौर पर इसे रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन की अपनी साख बचाने की कोशिश मानी गई।

इस दौरान यूक्रेन ने जबर्दस्त प्रतिरोध का प्रदर्शन किया। शायद युद्ध खत्म करने का यह बहाना भी पुतिन के हाथ से चला गया। दूसरे शब्दों में, पश्चिमी देशों की शह और सहयोग के बलबूते जेलेंस्की का रूस को सैनिक जवाब जारी रहा। दस महीने गुजरने के बाद भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं है। हालिया घटनाएं युद्ध के और तेज होने की ओर संकेत कर रही हैं।

पोलैंड ने 23 जनवरी को जर्मनी से लैपर्ड-2 टैंक यूक्रेन को देने की मांग कर दी। यह दुनिया का आधुनिकतम टैंक है। यह टैंक रोधी मिसाइल और सुरंगों से भी पार पा सकता है। यानी लगभग अजेय है और किसी भी युद्ध का रुख अपने पक्ष में करने की क्षमता रखता है। इतना ही नहीं, आधुनिक एक टैंक एम-1 अमेरिका के पास है।

यूक्रेन के नाटो सदस्य न होने के कारण पोलैंड इसे अपनी मर्जी से यूक्रेन को नहीं सौंप सकता है। जर्मनी इसे देने में हीलाहवाली कर रहा है। गैर नाटो सदस्य देश को इसे देने पर मुद्दा गरमाता भी जा रहा है। पोलैंड ने तो यहां तक दबाव बनाने की कोशिश की कि यदि जर्मनी मंजूरी नहीं भी देता है तो वह खुद अपनी पहल पर इसे दे सकता है। इसके लिए दो माह पहले नवंबर में एक भटकी मिसाइल से दो पोलैंड वासियों की मौत का भी जिक्र किया जा रहा है। तब जर्मनी ने उसे तीन में से दो पैट्रियट एयर डिफेंस सिस्टम सौंप दिया था।

मामला यहीं पेचीदा होता जा रहा है। जेलेंस्की लगातार दावा कर रहे हैं कि इस साल 2023 में रूस को अपनी हार माननी पड़ेगी। अब तक यूक्रेन की मदद में जुटे पश्चिमी देशों के लिए मुंह फेरना भी मुश्किल हो गया है। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। उनके सामने दो बड़ी समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं। पहला, बढ़ती महंगाई और दूसरा मंदी। इन दोनों ही मोर्चे पर उनकी हालत खस्ता है। महंगाई तीन दशकों में पहली बार दस फीसद की सीमा रेखा के इर्द-गिर्द है। पिछले माह से इसमें कुछ नरमी देखी जा रही है। पर, लोगों के लिए यह अब भी मुसीबत बनी हुई है।

इस युद्ध के कारण तेल और प्राकृतिक गैस की कीमतें लगभग दोगुनी हो चुकी हैं। इसमें किसी भी किस्म की राहत कोई नजर नहीं आ रही है। सर्दियां यूरोप में वैसे भी कहर ढाती हैं। वहां के लोगों को अपने घरों को गर्म रखने के लिए ज्यादा प्राकृतिक गैस की जरूरत होती है। यानी इसके लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है। रूस से नार्डस्ट्रीम-1 गैस पाइपलाइन के जरिए जर्मनी समेत समूचे यूरोप में प्राकृतिक गैस की सप्लाई होती है। इस कारण यूरोप में गैस की भंडारण की कोई बड़ी व्यवस्था नहीं की गई थी। वैसे भी नार्डस्ट्रीम-2 पाइपलाइन निर्माणाधीन है। इसीलिए यूरोपीय देश इसे लेकर लगभग निश्चिंत थे।

युद्ध का यह नतीजा अमेरिका समेत सभी यूरोपीय देशों को महंगा पड़ रहा है। अमेरिका भी चार दशकों की सबसे बड़ी महंगाई से जूझ रहा है। समूची दुनिया में इससे निपटने का एक ही तरीका अख्तियार किया गया, केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में बढ़ोतरी का। अमेरिकी फेडरल बैंक ने तो साढ़े चार फीसद ब्याज दरों में वृद्धि की। महंगाई पर कुछ अंकुश तो लगा है। हालांकि, फेडरल बैंक के मुखिया ने ब्याज दरों में आगे भी वृद्धि की बात कही है। यह जरूर हो सकता है कि वृद्धि की रफ्तार पर ब्रेक लगे। फिर भी साफ संकेत हैं कि महंगाई को दो फीसद तक लाने तक यह बढ़ोतरी जारी रखी जाए।

यूरोपीय केंद्रीय बैंक और बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी ब्याज दरों में वृद्धि का सिलसिला जारी रखा। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। पिछले साल मई से अब तक रिजर्व बैंक ने सवा दो फीसद ब्याज दरों में इजाफा किया है। दरअसल, ब्याज दरों को बढ़ाना एक दुधारी तलवार है। बाजार से अतिरिक्त पूंजी की उपलब्धता को कम कर महंगाई को थामने का चिर परिचित फार्मूला सभी केंद्रीय बैंक अपनाती हैं। ऐसा होता भी है। लेकिन, ब्याज दरें महंगा होने से कर्ज भी महंगा हो जाता है। समान की कीमतें बढ़ने के कारण लोग खरीदारी से बचने लगते हैं। बाजार में मांग की कमी होने लगती है। इसका एक नतीजा मांग में कमी के कारण उत्पादन में कटौती के तौर पर सामने आता है।

बस, यहीं से एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है। कॉरपोरेट अपने मुनाफे को बनाए रखने के लिए खर्चे सीमित करने लगता है। नौकरियां जाने की शुरुआत हो जाती है। मंदी का यह सीधा नतीजा है। नौकरियां जाने की स्थिति यदि विश्व युद्ध के बाद की भयावह हालात की याद ताजा कर रही है। यही वजह है कि विश्व बैंक ने इस साल को दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के लिए अब तक का सबसे मुश्किल वर्ष करार दिया है। समूची दुनिया मंदी का शिकार होगी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का तो मानना है कि दुनिया की कोई एक तिहाई अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार हो जाएगी। इसकी एक और वजह कोविड के खिलाफ चीन की सख्त नीति भी है।

विश्व बैंक के मुताबिक, 2023 में विकास दर पिछले साल के 2.7 प्रतिशत से गिरकर 1.1 प्रतिशत हो जाएगी। यह तो विकसित देशों का मामला है। समूची दुनिया में यह 3.2 प्रतिशत से गिरकर 2.4 फीसद हो जाएगी। विकसित देशों में विकास दर का घटना दुनिया के लिए गंभीर संकेत है। क्योंकि तमाम विकासशील देशों की निर्यात की संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं। आयात बढ़ने और निर्यात घटने से इन देशों का विदेशी मुद्रा भंडार घटने लगता है। यह हकीकत में खतरे की घंटी है। एक तरफ अमेरिका में फेडरल बैंक के ब्याज दरें बढ़ाने से डॉलर सुरक्षित ठिकानों यानी वापस अमेरिका समेत विकसित देशों की तरफ जाना शुरू हो जाता है। एशियाई टाइगर मानी जाने वाली अर्थव्यस्थाओं का दो दशक पहले हुए हाल से लोग बखूबी वाकिफ हैं। दूसरी तरफ, कई देशों के लिए भुगतान संतुलन की स्थिति खड़ी हो जाती है।

तो दुनिया के सामने क्या रास्ता बचा है? बात केवल पेट्रोलियम पदार्थों की ही नहीं है। तेल की जरूरत को पूरा करने के लिए दो तिहाई देश इसके आयात पर निर्भर हैं। असली मुद्दा खाद्यान्न की किल्लत का भी है। गेहूं की विश्व के बाजार में हिस्सेदारी रूस की 18 प्रतिशत और यूक्रेन की सात प्रतिशत है। कुल मिलाकर कोई 25 फीसद गेहूं की सप्लाई बाधित हो रही है। कुछ मात्रा यूक्रेन से बाहर भेजे जाने पर रूस ने फिलहाल सहमति दी है। लेकिन, आशंकाओं के बादल तो मंडरा ही रहे हैं। कभी भी यह समस्या विकराल रूप ले सकती है। खाद, उर्वरक और अन्य खनिज पदार्थों की सप्लाई में भी इन दोनों देशों की अच्छी खासी भागीदारी है। यानी इन वस्तुओं के दामों में निकट भविष्य में कमी होने के कोई आसार नहीं हैं।

एक और पहलू जलवायु परिवर्तन का भी है। इसके कारण पहले से ही खाद्यान्न की किल्लत और इसके परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि हो रही है। यानी मध्य और निम्न आय वर्ग वाले देशों में यह समस्या और विकट रहने वाली है। कोरोना महामारी के कारण पहले से ही दिक्कत झेल रहे लोगों के लिए यह तस्वीर निराशाजनक है।

पर, क्या दुनिया इससे बेखबर है। बिल्कुल नहीं। यदि यह सवाल उठाया जाए कि क्या रूस और यूक्रेन युद्ध खत्म करने के लिए कोई सार्थक प्रयास किए जा रहे हैं? तो इसका सीधा जवाब ह्यनह्ण है। इतना ही नहीं, अमेरिका की अगुआई वाले नाटो में स्वीडन और फिनलैंड को शामिल करने की बातें सामने आ रही हैं। यानी नाटो के फिर विस्तार की तैयारी हो रही है। याद रखें कि रूस के हमले के पीछे तर्क था कि नाटो उसकी सीमाओं पर निगरानी करने के लिए ही यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की तैयारी कर रहा था। वैसे भी शीतयुद्ध के दौर में नाटो में कुल 12 देश शामिल थे। तब के सोवियत संघ की अगुवाई वाले वॉरसा पैक्ट को तो समझौते के बाद खत्म कर दिया गया। लेकिन, नाटो ने विस्तार जारी रखा। कोई तीस देश इसमें शामिल हैं।

युद्ध खत्म कराना तो दूर की बात है, पश्चिमी देश लगातार यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति के अलावा और कोई काम नहीं कर रहे हैं। उनके द्वारा उठाया गया एक और कदम भी खास नतीजे ला सकेगा, इसमें भी संदेह है। आखिर 60 डॉलर प्रति बैरल की रूस के तेल की कीमत रखने से क्या परिवर्तन हो जाएगा? जानकारों का मानना है कि कमोबेश इतनी ही उत्पादन लागत आती है। तो क्या इस कदम के कारण रूस मान जाएगा? यह प्रतिबंध उसे हमलावर रुख छोड़ने पर मजबूर कर सकेंगे? सवाल उठता है कि महाशक्तियों की सनक को दुनिया कब तक झेलने के लिए अभिशप्त रहेगी? एक तरफ रूस की आर्थिक और सामरिक घेराबंदी करना और दूसरी तरफ नाटो का विस्तार। क्या यह रास्ता शांति की तरफ ले जाता है? कब रुकेगा यह युद्ध?

हथियारों की होड़ शुरू

रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद विश्व के हालात तेजी से बदलते जा रहे हैं। शीतयुद्ध के बाद हथियारों की होड़ तकरीबन खत्म हो गई थी। रूस और अमेरिका ने अपने कई एटॉमिक शस्त्र चरण बद्ध तरीके से नष्ट भी किए थे। पर, नाटो की छतरी लगातार बढ़ने के कारण तस्वीर में तेजी से बदलाव शुरू हो गया।

जर्मनी ने तो पहले ही अपने रक्षा बजट को बढ़ाने की बात कह दी थी। यूरोप में भी अब स्वरक्षा प्रणाली की अवधारणा जोर पकड़ने लगी है। अब जापान भी इसमें कूद गया। जापान के प्रधानमंत्री फ्यूमियो किशिदा ने साफ कहा कि मौजूदा मिसाइल रोधी उपकरणों की तैनाती पर्याप्त नहीं है। चीन और उत्तर कोरिया के तेजी से आधुनिकतम हथियारों से लैस होने की स्थिति में देश को माकूल तैयारी करनी होगी। उन्होंने यह कहकर अपनी मंशा साफ कर दी कि केवल एक्टिव डिप्लोमेसी से ही समाधान नहीं होगा। रक्षा क्षेत्र को भी सुदृढ़ करना होगा।

रूस ने तो पहले ही रिजर्व फोर्स बढ़ाने की बात कह दी है। अमेरिका ने रोमानिया में अपनी आधुनिक टुकड़ी को एक और रोटेशन तक तैनात रखने का फैसला किया है। एक रोटेशन नौ माह तक होता है। याद दिला दें कि रोमानिया की सीमा यूक्रेन से लगती है।

इस समस्या का एक और पहलू भी है। विश्व के कई देशों में यह चिंता बढ़ने लगी है कि यदि कोई शक्तिशाली देश पड़ोसी देश को आंखें दिखाने लगे तो क्या उनका भी हश्र यूक्रेन जैसा तो नहीं हो जाएगा? यह आशंका ही असुरक्षा को गंभीरतम स्तर पर ले जा रही है। तय मानिए कि हथियारों की होड़ कई मूलभूत समस्याओं की अनदेखी करती है। अंततः यह मनुष्यता के लिए नुकसानदेह साबित होने वाली है।

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