गोपेश्वर। पूर्व काबीना मंत्री केदार सिह फोनिया को 10 वर्षों तक सियासी नेपथ्य में रहने का खूब मलाल रहा। यही वजह है कि बीमारी के दौरान वह सियासी चर्चा को हवा तो देते थे किंतु सियासी नेपथ्य में रहने का गाहे बगाहे वह बखान भी करते रहते थे, यही वजह है कि सियासी कोलाहल से दूर वह घर में ही अकेले रह कर बीमारी से जूझते रहे।
बद्रीनाथ के विधायक रहते हुए उन्हें वर्ष 2012 में भाजपा का उम्मीदवार नहीं बनाया गया। उम्मीदवार न बनने से वह इस कदर खफा हुए कि 21 साल तक भाजपा में रहने के बावजूद उन्होंने पार्टी को अलविदा कर बदरीनाथ विधानसभा सीट से विधानसभा चुनाव में निर्दलीय ताल ठोक दी, हालांकि तब उन्होंने उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के बैनर तले चुनाव लड़ा किंतु सफलता हाथ नहीं लगी।
भाजपा से विद्रोह कर उन्होंने एक तरह से भाजपा प्रत्याशी को ही पटकनी देकर यह जता दिया था कि उन्हें उम्मीदवार न बनाने से पार्टी प्रत्याशी को भी पराजय झेलनी पड़ी। भाजपा से विद्रोह के बाद वह सियासत की मुख्यधारा से अलग-थलग पडऩे लगे।
यही वजह है कि तब उन्होंने भाजपा को पूरी तरह अलविदा कर अपने विरोधियों पर पुस्तकों के माध्यम से भड़ास निकालनी शुरू की।
वर्ष 2017 के विधान सभा चुनाव में उनके रिटायर्ड आईएफएस बेटे विनोद फोनिया ने भी भाजपा उम्मीदवार बनने के लिए हाथ पांव मारे किंतु पार्टी ने उनकी एक न सुनी। इसके चलते विनोद फोनिया ने भी निर्दलीय चुनावी ताल ठोंक दी।
वर्ष 2017 के विधान सभा चुनाव में उनके रिटायर्ड आईएफएस बेटे विनोद फोनिया ने भी भाजपा उम्मीदवार बनने के लिए हाथ पांव मारे किंतु पार्टी ने उनकी एक न सुनी। इसके चलते विनोद फोनिया ने भी निर्दलीय चुनावी ताल ठोंक दी।
एक पिता के बतौर केदार सिंह फोनिया बेटे के चुनाव प्रचार में जी जान से जुटे रहे किंतु उनकी मुराद पूरी नहीं हो पाई। इसके चलते पूर्व मंत्री केदार सिंह फोनिया लगातार सियासी नेपथ्य में चलते गए हालांकि 214 के लोक सभा चुनाव में उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस उम्मीदवार डा.हरक सिंह रावत का साथ दिया।
इसके बाद 2019 में फोनिया भाजपा में मिल गए। इस चुनाव में उन्होंने मौजूदा सांसद तीरथ सिंह रावत के लिए काम किया। 2019 में ही यकायक उनकी तबीयत बिगड़ गई।
देहरादून में इलाज के बाद वे देहरादून में ही जम गए। इस दौरान वह घर पर अकेले ही बीमारी से जूझते रहे। मुख्यधारा की राजनीति से पूरी तरह अलग थलग पड़ने के कारण फोनिया की कुशलक्षेम पूछने तक की किसी ने जहमत तक नहीं उठाई।
देहरादून में इलाज के बाद वे देहरादून में ही जम गए। इस दौरान वह घर पर अकेले ही बीमारी से जूझते रहे। मुख्यधारा की राजनीति से पूरी तरह अलग थलग पड़ने के कारण फोनिया की कुशलक्षेम पूछने तक की किसी ने जहमत तक नहीं उठाई।
यदा कदा वह इस बात का उल्लेख करते थे कि मौजूदा दौर की सियासत ही कुछ ऐसी हो चली है कि अब लोग बीमारी में भी हाल चाल तक पूछने नहीं आ पा रहे हैं, वैसे 2007 के विधानसभा चुनाव में फोनिया ने बद्रीनाथ विधानसभा सीट से जीत तो दर्ज की किंतु अपने बाल सखा तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार में उन्हें कैबिनेट में प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया। इसका उन्हें खासा मलाल रहा।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहले 2002 के विधानसभा चुनाव में फोनिया को जीत हासिल नहीं हो पाई। इसके चलते उन्हें तत्कालीन दौर में काफी मुश्किलों के दौर से गुजरना पड़ा, वैसे भाजपा के टिकट पर अविभाजित उत्तर प्रदेश में बदरी-केदार विधानसभा सीट से निर्वाचित होते ही उन्हें 1991 में पर्यटन मंत्री का ओहदा मिला। राम जन्म भूमि आंदोलन के दौर में भूमि अधिग्रहण पर उनके दस्तखत सियासी चर्चा में बने रहे। 1913 के चुनाव में भी फोनिया ने जीत हासिल की। फिर 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में वह बदरी-केदार विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर सियासी परचम लहराने में सफल रहे। हालांकि 1996 में कल्याण सिंह सरकार के मंत्री मंडल में उन्हें जगह नहीं मिल पाई।
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पहले 2002 के विधानसभा चुनाव में फोनिया को जीत हासिल नहीं हो पाई। इसके चलते उन्हें तत्कालीन दौर में काफी मुश्किलों के दौर से गुजरना पड़ा, वैसे भाजपा के टिकट पर अविभाजित उत्तर प्रदेश में बदरी-केदार विधानसभा सीट से निर्वाचित होते ही उन्हें 1991 में पर्यटन मंत्री का ओहदा मिला। राम जन्म भूमि आंदोलन के दौर में भूमि अधिग्रहण पर उनके दस्तखत सियासी चर्चा में बने रहे। 1913 के चुनाव में भी फोनिया ने जीत हासिल की। फिर 1996 में हुए विधानसभा चुनाव में वह बदरी-केदार विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर सियासी परचम लहराने में सफल रहे। हालांकि 1996 में कल्याण सिंह सरकार के मंत्री मंडल में उन्हें जगह नहीं मिल पाई।
मंत्रिमंडल में जगह न मिलने का मलाल उन्हें इस कदर परेशान किए रखा कि वह गाहे बगाहे इस बात की चर्चा अपने समर्थकों से किया करते रहे। वैसे फोनिया को सियासत काफी पहले ही भा गई थी। कांग्रेस अपने चरम काल पर थी तो तब फोनिया ने 19६९ के मध्यावधि चुनाव में निर्दलीय चुनावी ताल ठोक दी और तब वह तत्कालीन कांग्रेस विधायक नरेंद्र सिंह भंडारी से पराजित हो गए।
इसके बाद वह नौकरी में डटे किंतु नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने फिर सियासत की राह पकड़ी। सियासत में उन्हें कई तरह के झंझावत झेलने पड़े। यही वजह है कि 2002 का चुनाव हारने के उन्हें खूब मलाल रहा। खैर 2012 के बाद तो सियासत उनसे दूर होती चली गई।
करीब 1 वर्षों तक वह सियासी नेपथ्य में रहने के बाद दुनिया को अलविदा कर गए। हां, 1991 में पर्यटन मंत्री रहने पर उन्होंने 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा किए गए जोशीमठ-औली रोपवे शिलान्यास के काम को आगे बढ़ाया और औली को विश्व पर्यटन मानचित्र पर स्थापित करने में अपनी बेहतर भूमिका का निर्वाह किया।
सियासत में भ्रष्टाचार के उन पर एक भी आरोप नहीं लगे। इस तरह वह सियासत की लंबी पारी खेलने के बावजूद ईमानदार राजनीतिज्ञ के रूप में अपने को स्थापित कर गए। केदार सिंह फोनिया की एक और खासियत रही कि वह भाजपा के इतर विरोधी नेताओं के भी चहेते बने रहे। खासकर कांग्रेस लेकर वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोग उनके चहेतों में शामिल रहे।