सच पूछिए, तो इस आपके बंदे ने भी अब तक फिल्म नहीं देखी। दो-तीन राष्ट्रवादी पटकाधारी भूतपूर्व मित्रों की नेक सलाह के बाद भी। उन्होंने सलाह तो कम, टोका ज्यादा था। यही कि यार! चाहे आलोचना करना। लेकिन एक बार फिल्म को देख लो। रोए बिना रह जाओ? तो हमारा नाम बदल देना। यह लाफ्टर चैलेंज नहीं, राष्ट्र प्रेम का चैलेंज था। लेकिन मैं ठहरा बेशर्म! थोड़ा मुस्कुरा कर टाल गया…
वीरेंद्र सेंगर
जीहां! हंसना मना है। यहां हम राष्ट्रीय चिंतन करने बैठे हैं। यदि आप सच्चे राष्ट्रभक्त होंगे तो जोर-जोर रोएंगे। चिल्लाएंगे। हाय! 32 साल पहले कश्मीर में पंडितों पर इतना कहर बरपा? लेकिन सत्य छुपा लिया गया। सत्य को गटक लिया गया था। वह तो भला हो सत्यवादी और दूरदर्शी फिल्मकार विवेक का, जिसने अपना पूरा राष्ट्रवादी विवेक झोंक कर रसातल में पहुंचा दिए गए सत्य को खोल लिया। फिल्म बना दी। तहलका मच गया। लोग दहल गए। गम और गुस्सा सुनामी बन गया। सच्चे राष्ट्रवादी लोग जज्बाती हो गए। रोने के साथ चिल्लाने लगे। नारे लगाने लगे। माहौल इतना नाजुक दौर में पहुंचा कि जिसने फिल्म नहीं देखी, उसे शक की निगाह से देखा जाने लगा। शर्मसार होने से बचने के लिए कुछ ने गोलमोल उत्तर देने शुरू कर दिये। जिससे कि पता ही नहीं चले कि बंदे ने सत्यवादी फिल्म देखी है या नहीं?
सच पूछिए, तो इस आपके बंदे ने भी अब तक फिल्म नहीं देखी। दो-तीन राष्ट्रवादी पटकाधारी भूतपूर्व मित्रों की नेक सलाह के बाद भी। उन्होंने सलाह तो कम, टोका ज्यादा था। यही कि यार! चाहे आलोचना करना। लेकिन एक बार फिल्म को देख लो। रोए बिना रह जाओ? तो हमारा नाम बदल देना। यह लाफ्टर चैलेंज नहीं, राष्ट्र प्रेम का चैलेंज था। लेकिन मैं ठहरा बेशर्म! थोड़ा मुस्कुरा कर टाल गया। तीन-चार दिन बाद ही प्रोफेसर मित्र फिर मिल गए। फिर वहीं मासूम सवाल, देखी? मैंने न में सिर हिलाया। इसके बाद भी स्थिरप्रज्ञ बने रहे। इतना ही बोले, राम जी आप जैसे प्राणियों को सद्बुद्धि दे! मैं समझ नहीं पाया कि वे मेरे लिए राम जी के यहां अर्जी लगा रहे थे, श्राप दे रहे थे?
चर्चा आगे बढ़ाने से पहले आओ! प्रो. साहब की थोड़ी जन्म कुंडली जान लेते हैं। वे एक वामपंथी जिला स्तरीय नेताजी के सुपुत्र हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने के पहले तक वे नास्तिक होते थे। अपने पिता के खांटीपन और ईमानदारी की खूब चर्चा करते थे। लेकिन वे धीरे-धीरे राष्ट्रवादी होते गए। एक दिन मैंने याद दिलाई कि तुम्हारे पिताश्री तो तुम्हारे नए रंग-ढंग से खुश नहीं होंगे? वे बोले थे, छोड़ो यार! पुराने बोझ। यदि राष्ट्रवादी नहीं बनता, तो सहायक प्रोफेसर ही बना रहता। अब कुलपति बनने की लाइन में हूं। बस, संघम शक्ति की अर्चना में रत हूं। राम जी! की कृपा रही तो कुलपति होकर भारतीय पुरातन संस्कृति के उद्धार का काम कर लू़ंगा। बस, राष्ट्र सेवा ही करनी है। इस सेवक की और कोई चाह नहीं बची।
अब ये प्रो. साहब अपनी टोली के साथ इस फिल्म की प्रमोशन में रत दिखे। बोलते हैं, जिसने ये फिल्म नहीं देखी, जिया ही नहीं। मैंने टोका, नारा तो आॅरिजनल गढ़ लेते? ये तो मशहूर लेखक असगर वजाहत के मशहूर नाटक की नकल है। शीर्षक ही उड़ा लिया? उनके सहयोगी ने उत्तर दिया, भाई जी! राष्ट्रवाद के लिए कुछ भी करना जायज है। मेरा सवाल था, आप लोग कभी कश्मीर गए हैं? इस पर प्रोफेसर साहब तुनक गये। बोले, स्वर्ग का हाल बताओ, तो सवाल करोगे कि कभी मरे थे? तकरार के मूड में नहीं था, तो उनके कुतर्क को भी झेल गया। वर्ना मन में आया था कि फूहड़ फिल्म क्यों देखूं? जैसे कि गोबर के गुण-दोष जांचने के लिए उसे चखना जरूरी है क्या? अच्छा ही हुआ। मुंह पर ये नहीं कहा।
मेरे एक वर्तमान कवि मित्र ने सलाह दी, यार! जमाना बदल गया है। अब साहिब का न्यू इंडिया है। तमाम मापदंड बदल गये हैं। करो कुछ भी, राष्ट्रवाद का लबादा दूर से चमकना चाहिए। सत्यवादी फिल्म देखी हो या नहीं? लेकिन एलान नहीं करो कि दंगाई फिल्म देखने का तुम्हारा इरादा नहीं है। वे बोलते गये, वो दिन दूर नहीं, जब तुम जैसों को गऊ माता का गोबर चखकर बताना पड़ेगा कि इसका स्वाद अमृत जैसा है। तभी सच्चे नागरिक माने जाओगे। हो सकता है देश को मानसिक रूप से दो हिस्सों में बांटा जाए। एक जिन्होंने कश्मीर फाइल्स देखी है, दूसरे जिन्होंने सुविधा होते हुए भी नहीं देखी। इसकी आधिकारिक सूची भी बन सकती है। घर-घर स्टीकर भी लग सकता है। यही कि देखी है स्टीकर वाले घरों को सुरक्षा का विशेष गारंटी कवच रहेगा। बगैर स्टीकर वाले घरों का हाल, तो राम ही जानें!
मैंने अपने इस सच्चे मित्र से कहा, डरा क्यों रहे हो? कवि मित्र ने कहा, वे दिन दूर नहीं, जब रोटी-मकान नहीं, राष्ट्रवाद जरूरी होगा। बीमा कंपनियां उनसे ज्यादा प्रीमियम लेंगी जो घोषित राष्ट्रवादी नहीं होंगे। उनके रेल, बस के टिकट भी महंगे होंगे। ऐसे में इस सत्यवादी फिल्म की तर्ज पर गुजरात फाइल्स, गोधरा फाइल्स, लखीमपुर खीरीतथा दिल्ली दंगा फाइल्स आदि बनाने या देखने का मंसूबा बांधे लोग जोखिम समझ लें। वो भी समय रहते! कवि मित्र, भविष्य के सियासी सपनों को देर तक बताते रहे। सलाह देने लगे, चलो फिल्म देख ही आते हैं। गोबर का स्वाद चख कर देख ही लेते हैं। मैंने कवि मित्र से कहा, फिलहाल आप ही टेस्ट करके लौटिए। मैंने तो दो दशक पहले कश्मीर के चप्पे-चप्पे से चुनावी रिपोर्ट की थीं। वहां की जमीनी हकीकत का स्वाद ले चुका हूं। चिल्लाकर कहता हूं, कश्मीर को बख्श दो। उसे आपके सत्य की दरकार नहीं है। नहीं है!