यूपी में खुल कर खिला ‘कमल’

  • दो तिहाई बहुमत मिलने से भाजपा खेमे में जश्न का माहौल
  •  कम सीटें जीतने के बावजूद सपा ने अपने सहयोगियों के साथ दी कड़ी टक्कर

अमरेंद्र कुमार राय

नई दिल्ली/लखनऊ।देश में जिन पांच राज्यों के चुनाव हुए उनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश था। इसलिए सबकी नजरें उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों पर ही लगी हुई थीं। इसलिए कि यह राज्य की सत्ता के साथ ही सीधे सीधे 2024 के लोकसभा चुनाव से भी जुड़ा हुआ था।

यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं। बीजेपी की 302 सीटों में से 64 सीटें यहीं से हैं। आप इसकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि जिस बीजेपी को अपने बहुमत पाने पर गर्व है। अगर यहां की सीटें हटा दी जाएं तो वह सरकार बनाने की स्थिति में भी न रहे। इसलिए बीजेपी ने इस चुनाव को जीतने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगा दिया। आखिर में वह इस जंग को जीतने में सफल भी रही। विधान सभा की कुल 403 सीटों में से उसने खुद 255 सीटें जीतीं। उसकी सहयोगी पार्टियों को 18 सीटें मिलीं।

कुल मिलाकर 273 सीटें हो गईं जो सरकार बनाने के लिए बहुमत के आंकड़े से बहुत ज्यादा हैं। यह दो तिहाई बहुमत है। समाजवादी पार्टी ने अपने सहयोगियों के साथ बीजेपी को कड़ी टक्कर दी लेकिन वह 125 से ज्यादा सीटें नहीं प्राप्त कर सकीं। यह उसके लिए खुशी की बात तो नहीं है लेकिन संतोष की बात जरूर है। पिछले चुनाव में जहां उसे सिर्फ 47 सीटें मिली थीं वहां इस बार उसे करीब ढाई गुनी ज्यादा सीटें मिलीं।

इस चुनाव में बसपा और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। बसपा को महज एक सीट तो कांग्रेस को दो सीटें मिली हैं। दोनों के वोटों में भी काफी गिरावट आई है।

बीजेपी जीत तो गई है लेकिन यह काम उसके लिए बहुत आसान नहीं था। बल्कि, कहिए तो माहौल उसके खिलाफ था। मोदी सरकार की नीतियों, कोरोना और उससे निपटने के केंद्र और योगी सरकार के तरीकों से जनता में बहुत नाराजगी थी। उनकी लापरवाही से राज्य में हजारों लोगों की जान गई थी। नोटबंदी ने लोगों का रोजगार छीन लिया था। उससे लोग उबरते तब तक कोरोना ने दहशत फैला दी।

मोदी जी ने चार घंटे का नोटिस देकर लॉक डाउन घोषित कर दिया। यह भी नहीं सोचा कि हजारों किलोमीटर का सफर तय करके लोग कैसे अपने घर पहुंचेंगे। लोगों ने पैदल और साइकिल से हजारों किलोमीटर का सफर तय करने का त्रासदी झेली। ऊपर से जहां लौटे वहां उनके लिए कोई काम नहीं था। क्या करते? खाना कहां से खाते? ऐसे में मनरेगा ने लोगों का पेट भरा। जो लोग अच्छी भली नौकरी करते थे, वे दिहाड़ी के मजदूर बन गए। लोगों में डबल इंजन की सरकार को लेकर बेइंतहा नाराजगी थी।
कोरोना जब फैला तो उनके पास न दवाएं थीं, न बेड थे, न अस्पताल थे, न आक्सीजन था। लोग बेबसी और लाचारी में मर गए। मरने के बाद उनके अंतिम संस्कार के लिए भी पैसे नहीं बचे थे। लोगों ने लाशों को गंगा में प्रवाहित कर दिया। पाप नाशिनी गंगा शव वाहिनी बन गई। जब प्रशासन ने सख्ती बरती तो लोगों ने लाशों को गंगा किनारे दफनाना शुरू कर दिया। हिंदुओं में लाश को जलाया जाता है, मुसलमान शव को दफनाते हैं। लेकिन आर्थिक तंगी के चलते हिंदुओं ने भी लाशों को दफनाना शुरू कर दिया।

उस समय सरकार एक तरह से किंकर्तव्य विमूढ़ बन गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। तभी उसे ख्याल आया कि विधान सभा के चुनाव भी आ रहे हैं। ये हाल रहा तो लेने के देने पड़ जाएंगे। फिर उसने इसकी भरपाई की कोशिश शुरू की। लोगों के पास रोजगार नहीं था तो प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलो अनाज देना शुरू किया। इसके साथ ही तेल, घी, नमक, मसाले आदि भी देने लगी। लोगों ने सरकार का बड़ा एहसान माना और सरकार की यह कोशिश रंग लाई। हारी बाजी सरकार ने पलट दी।
चुनाव जब शुरू हुए तो भी हालात बीजेपी के पक्ष में नहीं थे। बसों में भरकर सरकारी मदद से लोग बीजेपी नेताओं की रैलियों में ले जाए जा रहे थे। फिर भी कुर्सियां खाली थीं। एक तरफ सत्ताधारी दल की यह हालत थी दूसरी तरफ विपक्षी नेताओं की सभाओं में टूटकर भीड़ जुट रही थी। न केवल सपा अध्यक्ष अखिलेश की सभाओं में, बल्कि कमजोर कांग्रेस के नेताओं राहुल और प्रियंका की सभाओं में भी खूब भीड़ उमड़ रही थी। इतना ही नहीं, जब प्रचार के लिए सत्ताधारी दल के मंत्री और नेता गांवों में पहुंचे तो उन्हें अपमानित करके भगाया गया।

बीजेपी के एक नेता ने तो मंच पर ही कान पकड़ कर उठक-बैठक की। वाराणसी से राज्य के पर्यटन मंत्री ने मतदान से दो दिन पहले वीडियो वायरल कर लोगों से माफी मांगी। लेकिन इन विपरीत हालात का चुनाव नतीजों पर उतना विपरीत असर नहीं पड़ा। सात चरणों में हुए चुनाव के हर चरण में बीजेपी विपक्ष पर भारी पड़ती गई। शुरू के दो चरण के चुनाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए। जहां किसान आंदोलन का अच्छा खासा असर था। ऊपर से मुख्य विपक्षी पार्टी सपा ने यहां की दूसरी प्रमुख पार्टी रालोद से गठबंधन किया हुआ था।

दोनों चरणों के मतदान के बाद यह माना जाने लगा था कि गठबंधन के पक्ष में एकतरफा मतदान हुआ है। लेकिन जब रिजल्ट आने शुरू हुए तो पता चला कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बीजेपी को बहुत मामूली नुकसान हुआ। गठबंधन की सीटें जरूर बढ़ीं लेकिन इतनी नहीं कि वह बीजेपी को हरा सके।
पहले चरण के 58 सीटों के मतदान में बीजेपी ने 45 सीटें जीत लीं। पिछले चुनाव में उसे 53 सीटें मिली थीं। उम्मीद की जा रही थी कि यहां उसे कम से कम तीस सीटों का नुकसान होगा। लेकिन सिर्फ आठ सीटों का नुकसान उसे हुआ। जहां यह उम्मीद की जा रही थी कि यहां गठबंधन के पक्ष में एकतरफा मतदान हुआ है, वहीं उल्टे बीजेपी के पक्ष में एकतरफा मतदान हुआ। एनसीआर के तीन जिलों गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर और हापुड़ में तो गठबंधन का खाता तक नहीं खुला।

यहां की सभी सीटें बीजेपी ने जीत लीं। इसी तरह दूसरे चरण के मतदान में कुल 55 सीटों में से 31 सीटें बीजेपी ने जीतीं। 2017 के चुनाव में बीजेपी ने 38 सीटें जीतीं थीं। इस तरह उसे महज सात सीटों का नुकसान हुआ। सपा ने पिछली बार की 15 सीटों के मुकाबले सहयोगियों के साथ 24 सीटें जरूर जीतीं पर बीजेपी को चुनौती देने के लिए यह पर्याप्त नहीं था। जहां सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव दावा कर रहे थे कि पहले दो चरणों के चुनाव में ही वे शतक लगा चुके हैं। लेकिन हुआ उसका उल्टा। इन दो चरणों के चुनाव में भी बीजेपी गठबंधन पर भारी पड़ी थी।

तीसरे चरण में 59 सीटों पर चुनाव हुए। इसमें अखिलेश यादव का गढ़ वाला इलाका भी था। इस क्षेत्र में यादवों की आबादी ज्यादा है। माना यह जा रहा था कि यहां की यादव आबादी वाली 46 सीटों पर सपा तेजी से आगे बढ़ेगी। पर कोई खास असर नहीं छोड़ पाए अखिलेश। इटावा में सपा भाजपा से सिर्फ एक सीट छीन पाई। बुंदेलखंड में 2017 में सपा अपना खाता नहीं खोल पाई थी। इस बार भी कोई ज्यादा बेहतरी की उम्मीद नहीं थी।
उम्मीद के अनुरूप ही बस जालौन की एक सीट कालपी सपा जीत पाई। पश्चिमी यूपी के जिलों में सपा पिछले चुनाव में पांच सीटें जीती थी, इस बार उसमें वह महज दो सीटें बढ़ा पाई। कुल मिलाकर यादव लैंड में भी बीजेपी ने सपा को बुरी तरह दबा दिया। चौथे चरण में भी बीजेपी का दबदबा कायम रहा।

बीजेपी को इस चरण में सिर्फ दो सीटों का नुकसान हुआ। पिछले चुनाव में बीजेपी ने जहां इस क्षेत्र से 51 सीटें जीती थीं वहां इस बार भी 49 सीटें जीतने में सफल रही। पांचवें चरण में धर्मनगरी प्रयागराज और अयोध्या समेत 12 जिलों की 61 सीटों पर मतदान हुआ था। 2017 में भाजपा गठबंधन को इनमें से 50 सीटें मिली थीं। इस बार 50 तो नहीं फिर भी आधे से ज्यादा 37 सीटें जीतने में वह सफल रही। छठें और सातवें चरण का चुनाव पूर्वी उत्तर प्रदेश में हुआ। यहां से सपा को काफी उम्मीदें थीं।

लेकिन मोदी और योगी ने आखिरी वक्त में प्रचार कर सपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। छठें चरण में जहां योगी के क्षेत्र गोरखपुर में मतदान हुआ था, वहीं सातवें चरण में मोदी के क्षेत्र काशी में।
गोरखपुर की सभी सीटें जहां बीजेपी ने जीतीं, वहीं वाराणसी की सभी सीटें जीतकर मोदी ने भी अपना करिश्मा बरकरार रखा। हालांकि सपा ने भी यहां जोरदार चुनौती दी। गाजीपुर, आजमगढ़ और मऊ में उसने बीजेपी का खाता नहीं खुलने दिया। पर यहां भी आखिर में सपा पिछड़ ही गई। छठे चरण की 57 सीटों में से 40 पर जीत हासिल कर योगी ने साबित किया कि उनका जलवा कायम है। इसी तरह सातवें चरण की 54 सीटों में से विपरीत हालात के बावजूद बीजेपी ने 27 सीटें जीतकर सपा को बराबरी पर रोक लिया। अगर सपा ने आजमगढ़, गाजीपुर और मऊ में बीजेपी का सूपड़ा साफ किया तो बीजेपी ने वाराणसी, राबर्ट्सगंज और मिजार्पुर में यही कहानी दोहरा कर हिसाब बराबर कर दिया।
लेकिन बीजेपी की इस जीत में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही नहीं है।

कहा जा रहा है कि बीजेपी को जिताने में ओवैसी और मायावती ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ओवैसी ने मुसलमानों के वोट काटने के लिए जहां अपने मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, वहीं मायावती ने करीब 100 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए। लेकिन इस बार मुसलमानों ने ओवैसी और बसपा की तरफ पलट करके भी नहीं देखा। कायदे से कहें तो इसका लाभ सपा गठबंधन को मिला। मुसलमानों ने बिना शोर-शराबे के एकजुट होकर सपा गठबंधन का साथ दिया। यही वजह थी कि अखिलेश का वोट करीब दस प्रतिशत (10.23) बढ़ गया।

इसमें ज्यादातर हिस्सा पिछली बार के बीजेपी वाले वोटों का ही है। लेकिन बीजेपी को जिन वोटों का नुकसान हुआ उसने उनकी भरपाई बसपा के वोटों से कर ली। इस तरह उसका वोट भी कम होने की बजाय 1.63 प्रतिशत बढ़ ही गया।
यह भी कहा जा रहा है कि बीजेपी ने मायावती की जो नब्ज दबा रखी है उसी के चलते उसके करीब दस प्रतिशत वोट बीजेपी की झोली में गए हैं। पर यह सब चुनावी रणनीति का हिस्सा है। पार्टियां जहां अपनी ताकत बढ़ाती हैं, वहीं विपक्षी वोटों के बिखराव का खेल भी खेलती हैं। बीजेपी ने यही किया। उसने ओवैसी और मायावती का इस्तेमाल सपा गठबंधन को कमजोर करने और अपने को मजबूत करने में लगाया। भले शिव सेना नेता संजय राउत कहें कि यूपी में बीजेपी को जिताने के लिए ओवैसी और मायावती को पद्म विभूषण दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही, ईवीएम वाला मुद्दा भी दबी जुबान से ही सही पर उठ रहा है। खुलकर लोग ईवीएम पर इसलिए सवाल नहीं उठा रहे कि कहा जाएगा कि हार गए हैं इसलिए इवीएम का मुद्दा उठा रहे हैं। पर, लोग यह जरूर जानना चाहते हैं कि जब रैलियों में कुर्सियां खाली थीं, गांवों में बीजेपी नेताओं को दौड़ाया गया, बीजेपी नेताओं ने कान पकड़ कर उठक-बैठक की, माफी मांगी तो उसे इतने वोट किसने दिए?
इस चुनाव में एक और चीज देखने में आई।

जहां सपा के वोटों में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है, वहीं मायावती और कांग्रेस के वोटों में बहुत ज्यादा गिरावट आई है। पिछले चुनाव में मायावती को करीब 23 प्रतिशत मत मिले थे जो इस चुनाव में गिरकर सिर्फ 13 प्रतिशत बचे रह गए हैं। उसे 9.35 प्रतिशत वोटों का नुकसान हुआ है। इसी तरह कांग्रेस का वोट 3.39 प्रतिशत घटकर महज 2.35 प्रतिशत रह गया है। नतीजा ये हुआ है कि जहां बसपा की 2017 में 17 सीटें थीं वह महज एक रह गई है और कांग्रेस की सात में से दो सीटें बची हैं।
यूपी के इस चुनाव ने सभी के लिए कुछ अच्छी चीजें दी हैं तो कुछ चिंता की लकीरें भी खीचीं हैं। बीजेपी इस बात से खुश हो सकती है कि उसने इस महत्वपूर्ण प्रदेश मे लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर 37 सालों का इतिहास बदल दिया है।

वह अपनी इस काबिलियत पर भी खुश हो सकती है कि विपरीत माहौल में भी वह जंग जीतने की क्षमता रखती है। लेकिन इस बात से चिंतित भी होगी कि यह उसके लिए खतरे की घंटी है। अगर अच्छा काम न किया तो लोगों की नाराजगी और बढ़ सकती है। इस बार तो बच गए आगे बचना मुश्किल होगा। और इसकी परीक्षा भी ज्यादा दूर नहीं। दो साल बाद 2024 में लोक सभा के चुनाव में ही होनी है। पिछले लोक सभा चुनाव में एनडीए ने यहां की अस्सी सीटों में से 73 पर जीत हासिल की थी। लेकिन इन विधान सभा चुनावों की सीटों को लोकसभा में बदलें तो वह महज 54 सीटें ही जीत पाएगी। करीब 20 सीटों का नुकसान अभी दिख रहा है।

सपा ये चुनाव जीतने निकली थी। लेकिन वह सत्ता में नहीं आ सकी। इसका उसे भारी दुख होगा। लेकिन खुशी की बात यह है कि उसके वोटों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हो गई है। उसे करीब 32 प्रतिशत मत मिले हैं। इतने मत इससे पहले कभी भी सपा को नहीं मिले। 2012 में सपा की जब सरकार बनी थी तब भी उसे महज 29 प्रतिशत मत ही मिले थे। अगर अखिलेश अपनी सक्रियता बढ़ाएं और इसी तरह आक्रामक मुद्रा बरकरार रखें तो बीजेपी को शिकस्त दे सकते हैं। कांग्रेस और बसपा के लिए कुछ भी अच्छा नहीं है।
प्रियंका कह सकती हैं कि उन्होंने महिलाओं पर दाव लगाया। उनके इस पहल की सभी ने तारीफ की। इस बुनियाद को मजबूत करके वो महिलाओं को गोलबंद कर सकती हैं। पर, उन्हें भी लगातार सक्रियता बनाये रखनी होगी। मायावती के मन में क्या है, उनकी नस कहां दबी है ये वही जानती हैं। लेकिन इतना तय दिख रहा है कि उनके वोटों में भगदड़ मची है और आगे उनका ग्राफ और भी गिरने वाला है। जिस पार्टी को कांशीराम ने अपने खून पसीने से सींचकर खड़ा किया उसे मायावती फिर डीएस 4 से पहले वाले दौर में ले जाने की ओर बढ़ चुकी हैं।
बहरहाल, जनता ने तो भाजपा को अपार जन समर्थन देकर एक बार फिर मौका तो दे दिया है लेकिन इस बार यूपी समेत अन्य राज्यों के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो यह बात साफ नजर आती है कि जनता पहले से काफी जागरूक हुई है, अब पहले की तरह उसे प्रलोभन देकर बरगलाया नहीं जा सकता। ऐसे में सत्ता पक्ष को भी समझने की दरकार है कि सतत गति से जमीनी स्तर पर सकारात्मक काम तो करने ही होंगे, तभी 2024 की राह आसान होगी।

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