उत्तर प्रदेश चुनाव: वंचितों के हाथ में जीत की कुंजी!
उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता का मुद्दा कमजोर पड़ रहा
- जातिगत गोलबंदी महत्वपूर्ण लेकिन इनके वोट क्षेत्रीय पार्टियों में भी बंटेंगे
उपेन्द्र प्रसाद
लखनऊ। रैलियों और जनसभाओं पर लगे प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर प्रदेश में चुनाव अभियान अपने चरम पर है। अपने अपने तरीके से पार्टियां और उम्मीदवार मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं और मतदाताओं को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं।
चुनाव उत्तर प्रदेश का हो और उसमें सांप्रदायिकता का पुट न लगे, ऐसा हो ही नहीं सकता। लेकिन इस बार सांप्रदायिकता का मुद्दा भी कमजोर पड़ रहा है और सबसे ज्यादा महत्व जातिगत गोलबंदी का है। प्रदेश में सैकड़ों जातियां हैं, लेकिन विधानसभा का मुंह कुछ ही जाति के लोग देख पाते हैं।
जाहिर है, अधिकांश जातियों के लोग कभी भी विधानसभा में पहुंच नहीं पाते। सीटें सीमित हैं और जातियां अनगिनत। इसलिए सब जातियों को टिकट देना संभव ही नहीं।
लेकिन पूरे देश की तरह उत्तर प्रदेश में भी लोगों को संवैधानिक और कानूनी रूप से चार भागों में बांटा गया है। पहला भाग तो अनुसूचित जनजातियों का है, लेकिन इसकी आबादी कुल आबादी का एक फीसदी भी नहीं है।
जाहिर है, अनुसूचित जनजातियां चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखतीं। आबादी की दूसरी श्रेणी अनुसूचित जातियों की है। यह प्रदेश की कुल आबादी की 21 फीसदी है जिसमें 12 फीसदी तो अकेले जाटव नाम की जाति की है।
इसकी अपनी एक अलग पार्टी है जिसकी नेता मायावती है। जाटव आम तौर पर मायावती को ही मतदान करते रहे हैं।
इस बार भी ज्यादातर मतदान मायावती की बसपा को ही करेंगे। लेकिन एक जाति से तो चुनाव जीता नहीं जा सकता और मायावती की राजनीति अब अपने पूरे ढलान पर है। अन्य जातियों के वोट उन्हें अब नहीं मिलते।
ज्यादा से ज्यादा गैर जाटव उम्मीदवार अपनी जाति का वोट हासिल कर सकते हैं। यदि मुस्लिम उम्मीदवार हुए तो मुसलमानों को वोट भी पा लेते हैं। लेकिन इस बार मुस्लिम किसी भी हालत में भाजपा को हराने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे हैं और उनके ज्यादा वोट समाजवादी पार्टी और उसके समर्थित उम्मीदवारों को ही देंगे।
वैसे भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का बहुमत 1993 से ही समाजवादी पार्टी को वोट देता रहा है। इस बार फर्क यह होगा कि कुछ क्षेत्रों को छोड़कर सब पर वे समाजवादी पार्टी और उसके गठबंधन उम्मीदवारों को ही वोट डालेंगे। और मायावती को मुस्लिम मतदाताओं के हाथों निराशा का सामना करना पड़ेगा।
यानी मायावती के जाटव वोट जीत दिलाने की क्षमता से वंचित हो गए हैं। भले मायावती के 12 से 15 फीसदी मत मिल जाएं, लेकिन उनके विजयी उम्मीदवारों की संख्या 10 तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाएगा। पिछले चुनाव में उनकी पार्टी को 20 फीसदी से ज्यादा मत मिले थे, लेकिन मात्र 19 उम्मीदवार ही जीत पाए थे।
जाहिर है, उत्तर प्रदेश में मुकाबला आमने सामने का है। एक तरफ योगी आदित्यनाथ हैं, तो दूसरी तरफ अखिलेश यादव। मुकाबले को अपने पक्ष में करने के लिए योगी आदित्यनाथ ने 80 बनाम 20 का पांसा फेंका था। वहां की करीब 80 फीसदी आबादी हिन्दू है और 20 फीसदी आबादी मुस्लिम। वे हिन्दू-मुस्लिम का खेल खेलना चाह रहे थे।
यदि इसी मैदान में खेल हो, तो भाजपा की भारी जीत निश्चित हो जाती, लेकिन ओबीसी के तीन मंत्रियों और अनेक विधायकों ने पिछड़ी जातियों की उपेक्षा का हवाला देते हुए योगी सरकार और भाजपा से इस्तीफा दे दिया। अनेक ओबीसी विधायकों ने भी पार्टी छोड़ दी।
और भी छोड़ने वाले थे, लेकिन अखिलेश ने यह कहकर ब्रेक लगा दी कि भाजपा से आने वाले विधायकों के लिए अब उनके पास टिकट नहीं है। उसके बाद दलबदल थमा, लेकिन इसका असर यह हुआ कि भारी संख्या में निवर्तमान विधायकों के टिकट काट देने का निर्णय भाजपा को वापस लेना पड़ा।
भारतीय जनता पार्टी की जीत का सबसे बड़ा कारण वंचित ओबीसी जातियों द्वारा उसे मिल रहा समर्थन है। इसी के कारण पिछले 3 चुनावों में उसकी जीत होती रही है। इस बार भी वे वंचित जातियां ही हार-जीत तय करेंगी। राजनीतिक विश्लेषक सांप्रदायिकता की राजनीति को भाजपा की जीत का कारण बताते हैं, लेकिन यह सच नहीं है।
भाजपा की जीत का असली कारण वंचित जातियों के मतदाताओं का अखिलेश की सपा और मायावती की बसपा से हुआ मोहभंग है। इस बार मायावती वंचित जातियों को ज्यादा टिकट दे रही हैं, लेकिन वे खुद राजनीति में सक्रिय नहीं हैं। उनकी सक्रियता सिर्फ टिकट बांटने तक सीमित हैं। वह सड़कों पर नहीं उतरतीं।
अपने समर्थकों को भी कहती हैं कि सड़कों पर उतर कर आंदोलन नहीं करो। इसलिए वंचित जातियों को टिकट देने का बहुत फायदा उन्हें नहीं मिलने वाला है, क्योंकि उन्होंने खुद को प्रदेश की मुख्यमंत्री की लड़ाई से बाहर कर रखा है।
पार्टी की कमान सतीश चन्द्र मिश्र के हाथ में सौंप देने के कारण उनके जाटव समर्थकों में भी उत्साह का अभाव है, हालांकि वे अब भी मायावती के साथ ही हैं।
भारतीय जनता पार्टी वंचित जातियों के मतों से जीतती रही है, लेकिन उसने उनके लिए कुछ किया है, इसका ब्यौरा उसके नेता भी नहीं दे पा रहे। हां, कोरोना संकट के समय में मुफ्त अनाज और उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त गैस कनेक्शन को उनको दिया गया गिफ्ट वे बता रहे हैं।
पर जब मतदात की बात आती है, तो यह देखा जाता है कि वंचित समाज की पार्टियों के कितने उम्मीदवार भाजपा ने दिए। इस मामले में भाजपा का रिकॉर्ड समाजवादी पार्टी से बेहतर नहीं है।
जातियों की बात करें, तो कुर्मी जाति की अनुप्रिया पटेल की पार्टी और निषादों की निषाद पार्टी के साथ भाजपा का गठबंधन है। कुर्मी जाति के आंशिक मत ही भाजपा को मिलेंगे, क्योंकि सरकारी कंपनियों का निजीकरण कर आरक्षण समाप्त करने की केन्द्र सरकार की नीति से कुर्मी आहत हैं और उनके उम्मीदवारों का समाजवादी पार्टी से भी काफी टिकट मिले हैं।
निषादों का वोट बीजेपी का अच्छा खासा मिलेगा, क्योंकि कुर्मियों की तरह निषादों में आरक्षण बड़ा मुद्दा नहीं है। मौर्य-कुशवाहा-सैनी-शाक्य जाति समूह ज्यादातर भाजपा विरोधी हो गए हैं।
आरक्षण की समाप्ति उनके लिए भी मुद्दा है। एक और ओबीसी जाति है गुज्जर। उनके बीच में आरक्षण कोई मुद्दा नहीं है, हालांकि राजस्थान में वे ओबीसी कैटेगरी से निकालकर एसटी कैटिगरी में शामिल करने के लिए वे खूनी आंदोलन करते रहे हैं। इसलिए उनके ज्यादातर वोट बीजेपी को ही जाएंगे।
इन सबसे अलग एक बड़ी तादाद अन्य ओबीसी जातियों की है जिनकी संख्या दर्जनों मे हैं। अलग उनकी संख्या ज्यादा नहीं है, लेकिन मिल जाने पर अनुसूचित जातियों की कुल संख्या से भी ज्यादा हो जाती है। इस बार चुनाव में वही जीतेगा, जिनके पास इनके मत जाएंगे।