- यूपी में कई दागी-दबंग चुनाव मैदान उतरने का बेताब
- पार्टियों की शह के वजह से हो रहा राजनीति और अपराध का गठजोड़
संजय सक्सेना, लखनऊ।
उत्तर प्रदेश में चुनाव का बिगुल बजते ही तमाम राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन का काम तेज कर दिया है। हर पार्टी जिताऊ प्रत्याशियों की तलाश कर रही है। बात डिमांड की कि जाए तो अबकी से भाजपा और उसके बाद समाजवादी पार्टी में टिकट के दावेदारों की संख्या सबसे अधिक दिखाई दे रही है। सभी दलों के छोटे-बड़े सभी नेता टिकट की आस लगाए बैठा है तो ऐसे दावेदारों की संख्या भी कम नहीं है जिनकी आपराधिक या दबंग वाली छवि है।
आपराधिक छवि के यह नेता कहीं मतदाताओं को डरा कर तो कहीं अपनी बिरादरी में रॉबिनहुड वाली छवि के सहारे चुनाव जीतना चाहते है। ऐसा पहली बार नहीं है कि जब दागी-दबंग चुनाव मैदान में ताल ठोकने का सपना देख रहे हैं।
पिछले कुछ दशकों में राजनीति में अपराधिक/दबंग/माफिया वाली छवि के नेताओं का बोलबाला बढ़ा है। इसकी शुरुआत कांग्रेस राज में हो गई थी जिसे आगे चलकर भाजपा, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और अन्य छोटे-छोटे दलों ने भी खूब बढ़ावा दिया। यह और बात है कि इन्हीं दलों के नेता तमाम मंचों से राजनीति में शुचिता की बात करते रहे।
अपराध का खात्मा करने का ढिंढोरा पीटते रहे लेकिन जब सत्ता हाथ लग जाती तो फिर यह नेतागण सब कुछ भूल कर गुंडे-माफियाओं को पालने-पोसने लगते थे। इसमें से कई तो काफी सुर्खियां बटोरते रहे। ऐसे ही बाहुबलियों में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, अमरमणि त्रिपाठी,रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, हरिशंकर तिवारी, डीपी यादव, विजय मिश्र, बादशाह सिंह, धनंजय सिंह, बृजेश सिंह, विकास दुबे, जय प्रकाश शाही, अरूण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना, मुजफ्फरनगर का संजीव उर्फ जीवा, नोएडा का सुंदर भाटी उर्फ नेताजी,अनिल दुजाना उर्फ अनिल नागर और अनिल भाटी, सिंहराज भाटी जैसे तमाम नाम शामिल हैं।
इनके अलावा त्रिभुवन सिंह, खान मुबारक, सलीम, सोहराब, रुस्तम, बब्लू श्रीवास्तव, उमेश राय, कुंटू सिंह, सुभाष ठाकुर, संजीव माहेश्वरी जीवा, मुनीर शामिल हैं। उक्त में से कुछ स्वर्ग सिधार चुके हैं तो कई अपराधी जेलों में बंद हैं। इन माफियाओं का जेहन में नाम आते ही यह भी याद आ जाता है कि यह सभी कभी न कभी, किसी न किसी दल या नेता की सरपरस्ती में ही पले-बढ़े थे। सफेदपोश नेता इनके द्वारा अपने काले धंधे चलवाते थे। चुनाव जीतने में इनकी मदद लेते थे। बाद में इसमें से कई स्वयं राजनीति में कूद गए और माननीय तक बने।
ऐसा नहीं था कि राजनीति में बढ़ते अपराध को रोकने के लिए कोई उपाय नहीं किए गए थे, लेकिन धूर्त राजनीतिज्ञों ने ऐसे सभी कानूनों और चुनाव आयोग के प्रयासों में सेंधमारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट तक ही मंशा और उसके आदेश की भी धता बुला दी। खैर, बात अतीत से निकल कर वर्तमान की हो तो इस बार भी निर्वाचन आयोग आपराधिक छवि वालों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए सख्ती बरतने जा रहा है।
इसके तहत उसने राजनीतिक दलों को सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश का कड़ाई से पालन करने को कहा है कि उन्हें आपराधिक छवि वालों को उम्मीदवार बनाने पर यह बताना होगा कि उनका चयन क्यों किया गया? राजनीतिक दलों को यह जानकारी समाचार पत्रों और अन्य माध्यमों से सार्वजनिक करनी होगी। हालांकि, फिलहाल यह व्यवस्था पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में ही लागू हो जाएगी, लेकिन देखना यह है कि राजनीतिक दल इस पर कितनी गंभीरता से अमल करते हैं?
उधर, दागी छवि के नेताओं को मैदान में आने से रोकने के लिए एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) ने अपने प्रयास तेज कर दिये हैं। एसोसिएशन ने जिन नेताओं के विरुद्ध संगीन मामलों में कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल हैं, उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है। एडीआर व यूपी इलेक्शन वाच ने 17वीं विधानसभा के 396 सदस्यों के शपथ पत्रों के विश्लेषण के आधार पर दावा किया है कि इनमें 45 विधायकों के विरुद्ध लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धाराओं के तहत आने वाले संगीन अपराधों में कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल हैं।
ऐसे दागियों को विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी बनने पर रोक लगनी चाहिए। एडीआर के मुख्य समन्वयक संजय सिंह का कहना है कि जिन 45 विधायकों के विरुद्ध कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल हैं, उनमें भाजपा के 32, सपा के पांच, बसपा व अपना दल (एस) के तीन-तीन विधायक शामिल हैं। उक्त संख्या देख कर यह जरूर लगता है कि भाजपा अपराधियों को संरक्षण देने में अन्य दलों से काफी आगे है, लेकिन दागी छवि वाले विधायकों की संख्या बीजेपी में सबसे अधिक नजर आ रही है तो इसकी वजह यही है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने सबसे अधिक 312 सीटें जीती थीं, जबकि सपा 47 और बसपा 19 सीटें जीत पाई थी।
इसलिए इनके दागी विधायकों की संख्या भी कम नजर आ रही है। बहरहाल, बात कानून की कि जाए तो कानूनन किसी आपराधिक कृत्य में किसी व्यक्ति के दोषी ठहराये जाने पर उसको लोकसभा या विधान सभा की सदस्यता से अयोग्य घोषित किये जाने का प्रावधान है।
एडीआर ने ऐसे उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग सुप्रीम कोर्ट व निर्वाचन आयोग से भी की है जिनके खिलाफ लंबे समय से आपरािधक मामले कोर्ट में लंबित हैं। इसके साथ ही एडीआर ने माननीय के खिलाफ लंबित मुकदमों का भी जल्द निस्तारण कराये जाने की मांग की है। वर्तमान में जिन विधायकों पर 20 वर्ष से भी अधिक समय से मामले कोर्ट में लंबित हैं, उनमें पहले नंबर पर मीरजापुर के मड़िहान क्षेत्र से भाजपा विधायक रमाशंकर सिंह का नाम है।
दूसरे नंबर पर मऊ के विधायक मुख्तार अंसारी व तीसरे नंबर पर बिजनौर के धामपुर से भाजपा विधायक अशोक कुमार राणा का नाम है। 32 विधायकों के विरुद्ध दस वर्ष या उससे अधिक अवधि से कुल 63 आपराधिक मामले लंबित हैं।
राजनीति का अपराधीकरण कम हो इसके लिए सख्त कदम उठाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि चुनाव मैदान में उतरने वाले दागी उम्मीदवार बढ़ते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, इनमें से तमाम जीत हासिल कर विधानसभाओं और लोकसभा में भी पहुंच जा रहे हैं। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने वाले या फिर उसके लिए खतरा बने लोग ही विधानमंडलों में जाकर कानून बनाने का काम करें? दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है।
इसके चलते न केवल राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, बल्कि विधानमंडलों में विचार-विमर्श का स्तर भी गिरता जा रहा है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार निर्वाचन आयोग का दबाव रंग लाएगा, लेकिन इसकी भी आशंका है कि राजनीतिक दल आपराधिक छवि वालों को उम्मीदवार बनाने के लिए कोई न कोई रास्ता तलाश ही लेंगे। आखिर यह एक तथ्य है कि अतीत में राजनीतिक दल दागी छवि वालों को इस बहाने चुनाव मैदान में उतारते रहे हैं कि वे उन्हें सुधरने का मौका देना चाहते हैं।
निर्वाचन आयोग के साथ आम जनता को भी यह देखना होगा कि ऐसी थोथी दलीलों के साथ दागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतर कर सफल न होने पाएं। क्योंकि आखिर यह जनता ही है जो जाति, मजहब, क्षेत्र के नाम पर आपराधिक छवि वालों को वोट देने का काम करती है।
लब्बोलुआब यह है कि जितनी जरूरत निर्वाचन आयोग के स्तर पर यह सुनिश्चित करने की है कि आपराधिक इतिहास वाले चुनाव मैदान में न उतरने पाएं, उतनी ही इसकी भी कि मतदाता भी ऐसे उम्मीदवारों से दूरी बनाए। अच्छा यह होगा कि राजनीतिक दल निर्वाचन आयोग के उस प्रस्ताव पर सहमत हों, जिसके तहत यह कहा जा रहा है कि संगीन आरोपों से घिरे उन लोगों को प्रत्याशी बनाना निषेध किया जाए, जिनके खिलाफ आरोप पत्र दायर हो चुका हो।
दुर्भाग्य से राजनीतिक दल इस पर यह कहने में लगे हुए हैं कि दोषी सिद्ध न होने तक हर कोई निर्दोष है। अच्छा हो कि वे यह समझें कि इस तरह की ही सोच राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा दे रही है। इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग सोचते हैं कि सुप्रीम कोर्ट राजनीति से अपराधीकरण खत्म कर सकता है तो सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह केन्द्र या राज्य की विधायिका के कार्यों पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की ओर से लगातार अपील की जाती रही है कि राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाई जाए।
दागी उम्मीदवारों को चुनने का निर्णय राजनीतिक दलों को करना होता है। यदि राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं लेते हैं, तो राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाना नामुमकिन है। सियासी दलों को एकजुट होकर संसद में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के खिलाफ कड़ा कानून बनाना होगा।
लेकिन, ऐसा होना मुश्किल ही नजर आता है. आखिर, आसानी से चुनाव जीत सकने वाले नेताओं को आखिर कोई राजनीतिक पार्टी क्यों किनारे करेगी। यहां भारत के लोगों को भी इस मामले पर व्यापक रूप से जागरूक होने की जरूरत है। लोग अगर ऐसे लोगों का चयन करना पूरी तरह से बंद कर देंगे, तो राजनीतिक दलों पर अपने आप ही साफ छवि के नेताओं को उम्मीदवार बनाने का दबाव बनेगा।