‘किसान लीला’ एक लाट साहब की!

  • चाणक्य मंत्र का विशेष खुलासा

वीरेंद्र सेंगर
नयी दिल्ली। वे ‘लाट साहब’ हैं, अब राज्यपाल कहलाते हैं। यूं तो देशज बोली में आज भी गर्वनर को ‘लाट साहब’ ही माना जाता है। दिल्ली को ही देख लीजिए ‘छोटा’ सा राज्य है। वह भी पूर्ण राज्य नहीं है। यहां तो उपराज्यपाल होता है। यानी लाट साहब का गुटका संस्करण, इसकी कितनी ज्यादा पावर होती है। उसके सामने चुना हुए मुख्यमंत्री बस, बड़ा बाबू ही नजर आता है। इतने से भी मोदी सरकार का पेट नहीं भरा, सो उसने संसद के दोनों सदनों में इस बार कानून पास करा दिया। इससे छोटे लाट साहब और ‘पावरफुल’ ही नहीं, ‘पावर हाउस’ बन जाएंगे, बेचारे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सियासी उछल कूद करने में ही अपनी ऊर्जा लगाते रहेंगे। दरअसल, वे भी साफ्ट हिंदुत्व के साथ मोदी जी के ‘गुटका संस्करण’ बनने के फेर में रहे हैं।फिलहाल, ‘पावर हाऊस’ बने छोटे लाट साहब से ही भिड़ते रहे। दिल्ली वालों की मुफ्त में ‘अयोध्या दर्शन‘ कराते रहे। यही करने को बचा है।हम यहां छोटे लाट साहब की चर्चा नहीं कर रहे। फिलहाल पूरे ‘लाट साहब’ की चर्चा कर रहे हैं। भले वे मेघालय जैसे राज्य के गर्वनर हों, लेकिन वे वरिष्ठ राजनेता रहे हैं। वो बड़े ठसक वाले ‘लाट साहब‘ हैं। नाम है, सत्यपाल मलिक। एक दौर में खांटी समाजवादी रहे हैं। सांप्रदायिक ताकतों के धुर आलोचक रहे हैं। पढ़ाई के दौरान ही वे मेरठ में धमाकेदार छात्र राजनीति कर चुके हैं। इतना क्रांतिकारी भाषण करते थे कि बड़े-बड़े तत्कालीन राजनेताओं को लगा था कि देश को एक होनहार तेज तर्रार नेता मिलने वाला था। मिला भी लेकिन अटकाव-भटकाव आते रहे।पूर्व प्रधानमंत्री और किसानों के मसीहा माने जाने वाले चौधरी चरण सिंह के वे करीबी हो गये थे। उन्हीं से संसदीय राजनीति का राजधर्म समझा। वीपी सिंह सरकार में क्षेत्रीय मंत्री भी रहे, बाद में भाजपा की में आ गये। संगठन में राष्ट्रीय पदाधिकारी भी बने, लेकिन सालों तक हाषिए में पड़े रहे। बागपत से चैधरी अजित सिंह के मुकाबले भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़े थे, लेकिन सम्मान बचाने लायक भी वोट नहीं पा पाए थे, यह अलग कहानी है।सत्यपाल मलिक साहब बहुत ज्ञानी नेता हैं। बहुत पढ़ते हैं, लेकिन दशकों से जमीनी राजनीति से जुड़े नहीं रहे। वे दिल्ली के एक सितारा होटल में मित्र मंडली के साथ चाय पर मिलते थे। मैं भी मलिक साहब का वैचारिक दोस्त रहा हूं, सक्रिय पत्रकारिता के दौर में खूब मुलाकात होती थी। मलिक जी हमेशा किसानों और मजदूरों की दयनीय हालत पर चिंता व्यक्त जरूर करते थे। ‘ऑफ रिकार्ड’ बातचीत में पार्टी के अंदर के दर्द को भी बयां करते थे। इसकी चर्चा करना नैतिक नहीं होगा। सो, कर भी नहीं रहा। सिर्फ इतना बताना जरूरी है कि संघ परिवारी बनने के बाद भी मलिक साहब दिल से ‘खांटी’ सेक्यूलर ही रहे, उन्हें संघ परिवार का सांप्रदायिक चेहरा कभी रास नहीं आता था।हम लोग यही कहते थे कि मलिक साहब! आप दिल से समाजवादी हैं, ऐसे संघ परिवार आपको कैसे ‘अपना’ मानें। सो, आपकी नियति यही है कि चुपचाप सियायत के इस बियावन में पड़े रहिए। इस पर सत्यपाल भाई चिंहुक उठते, समाजवादी तेवरों को दिखाने लगते। ऐसे में हमें भी सहानुभूति होती क्योंकि वे दिल से सेक्यूलर इंसान रहे हैं। छल कपट की सियासत से दूर।लेकिन एक दिन अचानक सत्यपाल मलिक जी की सियासी लाटरी खुल गयी, वे बिहार जैसे बड़े राज्य के ‘लाट साहब‘ बना दिए गये, फिर वहां से जम्मू-कश्मीर भेज दिए गये। ये बड़ी परीक्षा का दौर था। यहां पर उनकी सेक्यूलर छवि काम आयी। वे मुस्लिम आवाम में भी लोकप्रिय हुए। राज भवन में लगने वाले ‘जनता दरबार‘ लोकप्रिय हो चला था। लोग लाट साहब के मुरीद हो चले थे। फिर इस राज्य का दर्जा घटा दिया गया। यहां ‘छोटे लाट साहब’ के लिए जगह बनीं, ऐसे में वे गोवा जैसे छोटे राज्य में भेज दिए गये। कहते हैं, वहां के धुर भगवा सीएम से उनकी नहीं बनी, सो दिल्ली ने उनको मेघालय जैसे बेहद लघु राज्य में भेज दिया। शायद ऐसे में मलिक साहब का अपने ‘अदना‘ बनाने की टीसें उभरती रहीं। पिछले साल नवंबर से दिल्ली के मोर्चों पर जबरदस्त किसान आंदोलन शुरू हुआ।मलिक साहब की भी बेचैनी बढ़ी और मोदी सरकार की भी। आंदोलनकारी नेतृत्व के बीच सरकार ने घुसपैठ करने के कई दांव चले। मुजफ्फरनगर से सांसद और केंद्रीय राज्यमंत्री संजीव बालियान को जाट प्रभाव वाले गांवों में आंदोलन विरोधी जमीन तैयार करने के लिए लगाया गया। वे अपने फोजे-फाटे के साथ पहुंचे भी, लेकिन अपनी बिरादरी के लोगों ने ही उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। कई गांवों में उन्हें अपमानित होकर लौटना पड़ा। इससे जाट बिरादरी में मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा और भड़का। भाजपा के पास और कोई प्रभावशाली जाट नेता था ही नहीं, जो ‘खेला’ बदल दे।इसी बीच लाट साहब सत्यपाल मलिक की सियासी इंट्री होती है। मार्च के दूसरे सप्ताह में बागपत के पास एक बड़ा गांव है, अभी नगर। यही लाट साहब का पैतृक गांव है। गांव में मलिक साहब के अभिनंदन में एक कार्यक्रम रखा गया। इसी समारोह में भाषण करते हुए ‘लाट साहब’ का दिल किसानों के लिए पिघल पड़ा। उन्होंने एकदम पुराने कड़क तेवर दिखा दिए। बोले, केंद्र सरकार किसानों के साथ भिड़ कर अपना नुकसान कर रही है। सरकार में बैठे लोगों को समझ लेना चाहिए कि जाट और सरदार 300 सालों तक अपना अपमान नहीं भूलते। पंगा लेने वाले को सबक सिखाते हैं । बात सिर्फ इतनी तक सीमित नहीं रही, वे बोल गए कि एक कुतिया के मरने पर ट्विटर पर बड़े राजनेता शोक जताते हैं। यहां आंदोलन के दौरान 250 किसान शहीद हो गये किसी ने श्रद्धांजलि देने की औपचारिकता तक नहीं निभाई। ये अच्छा नहीं हुआ। मैं किसानों का दर्द जानता हूं। उनके साथ हूं, किसी को बुरा लगे, तो लगता रहे।राज्यपाल मलिक साहब के एक करीबी जाट सामाजिक कार्यकर्ता हैं, वे यहां बड़े जाट नेताओं के सहयोगी रहे हैं। वे भी सत्यपाल मलिक के बुलाने पर पहुंचे थे। उन्होंने मुझे उनके भाषण का ऑडियो सुनाया। मैं कई कारणों से उनके नाम का खुलासा नहीं कर रहा। ये भी बताया गया कि सामूहिक भोज के दौरान उनके शुभ चिंतकों ‘लाट साहब’ से पूछा आपको डर नहीं लगता, इतना सख्त भाषण दे दिया। कहीं ‘लाट साहब’ न चली जाएं? हालांकि ये बात फुसफुसा कर पूछी गयी थी। लेकिन दबंग ‘लाट साहब‘ ने जोर से जवाब दिया। उन्हें परवाह नहीं है। सरकार चाहे, तो पद छीन सकती है। लेकिन मैं सच्ची वाली बात करता रहूंगा। सरकार चहेगी तो बीच-बचाव की भूमिका भी अदा करना चाहूंगा।मैंने भी ‘फेसबुक’ पर एक बड़ी टिप्पणी लिख डाली थी। ‘लाट साहब’ के शुभ चिंतकों ने मुझसे संपर्क किया। जब उलाहना दिया कि उन्होंने गर्वनरी दांव पर लगा दी। आपके साहब! को सैल्यूट करना चाहिए। आप तो बड़े टिप्पणियां कर रहे हैं। मलिक साहब! कई दिनों तक दिल्ली के मेघालय भवन में सेहत लाभ लेते रहे। सियासी दलों में संशय के बादल छाए रहे। भाजपा के आईटी सैल ने इतने पर भी ‘लाट साहब’ को गद्दार या देशद्रोही नहीं करार दिया। भाजपा नेताओं ने भी उनके प्रति चुप्पी साध ली। दरबारी मीडिया को भी देश भक्ति का दौरा नहीं पड़ा। मोदी जी की शासन शैली से परिचित भी हैरान हैं कि उन्हें बर्खास्त नहीं किया गया। अचरज है, लाट साहब के जरिए सरकार राकेश टिकैत की फोन पर अमित शाह से बातचीत भी करा दी थी।

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