पांच राज्यों में चुनाव, बंगाल में आर-पार की लड़ाई

  • पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुडुचेरी और केरल में होने हैं चुनाव
  • पांचों राज्यों में बीजेपी बंगाल में दिखा सकती है दमखम

अमरेंद्र कुमार राय , नई दिल्ली

चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी की 824 विधानसभा सीटों के लिए आठ चरणों में मतदान होगा। पहले चरण का मतदान 27 मार्च को होगा और आठवें चरण का मतदान 29 अप्रैल होगा। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से पहले की मीडिया रिपोर्ट्स देखें तो ऐसा महसूस होगा कि देश में केवल पश्चिम बंगाल में चुनाव होने वाला है और उसमें भारतीय जनता पार्टी की जीत होने वाली है। पश्चिम बंगाल की चर्चा सिर्फ इसलिए जोर-शोर से मीडिया चला रहा है क्योंकि वहां बीजेपी की संभावनाएं सबसे ज्यादा हैं। पांचों राज्यों में यदि कहीं बीजेपी अच्छा कर सकती है तो वह राज्य पश्चिम बंगाल ही है।
पार्टी को लग रहा है कि वहां ममता बनर्जी पिछले दस साल से लगातार सत्ता में हैं और वह मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी है। इस तरह सत्ता विरोधी लहर का लाभ उसे मिल सकता है। पड़ोसी राज्य असम में खुद बीजेपी पिछले पांच साल से सत्ता में है। पिछली बार उसने कभी बाहरी लोगों को राज्य से बाहर करने का आंदोलन चलाकर सत्ता में आई असम गण परिषद और कुछ दूसरे छोटे दलों को मिलाकर सत्ता तक पहुंच बनाने में सफल रही थी। लेकिन इस बार हालात बहुत बेहतर भी नहीं हैं। एक तो कुछ छोटे दल उससे जहां अलग हो गए हैं, वहीं विपक्षी दलों ने मिलकर महागठबंधन बना लिया है। सबसे बड़ी बात ये कि राज्य में सीएए को लेकर बड़ा आंदोलन भी चला। इस तरह वहां हालात उसके पक्ष में बिल्कुल भी अनुकूल भी नहीं हैं। बाकी तीन राज्य जहां चुनाव होने वाले हैं वो दक्षिण भारत के हैं जहां बीजेपी की कोई मौजूदगी ही नहीं है। उन तीनों राज्यों की विधान सभाओं में उसकी एक भी सीट नहीं है। इसीलिए भारतीय माडिया केवल पश्चिम बंगाल की बात ही कर रहा है। कुल मिलाकर कहना ये चाहिए कि अगर बीजेपी की जीत की सबसे ज्यादा कहीं सभावना बनती है तो वह राज्य सिर्फ और सिर्फ पश्चिम बंगाल ही है। हालांकि, जानकार यह भी जानते हैं कि वहां ममता बनर्जी से निपटना इतना आसान नहीं है जितना बीजेपी समझ रही है और मीडिया दिखा रही है। बीजेपी की दिक्कत ये है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में वह पिछला लोक सभा चुनाव दोबारा जरूर जीत गई है, लेकिन राज्यों में हुए चुनावों में उसे गहरा झटका लगा है। हिंदी भाषी राज्यों में हुए चुनावों में वह राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड में हार चुकी है। बिहार में किसी तरह से जीत पाई। हालांकि, मध्य प्रदेश में उसने पिछले दरवाजे से फिर से सरकार बना ली, पर उसकी सच्चाई सबके सामने आ चुकी है। इसी तरह वह कर्नाटक और गोवा में भी चुनाव हार चुकी है और पिछले दरवाजे से ही सत्ता में आ पाई है। अब जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें भी तीन में तो उसका हारना बिल्कुल ही पक्का है। असम में भी उसकी राह बहुत मुश्किल हो गई है। इसलिए वह अपना सारा ध्यान सिर्फ पश्चिम बंगाल पर लगाए हुए है, ताकि बाकी राज्यों के चुनावों की तरफ लोगों का ध्यान न जाए और उसकी असफलता की चर्चा न हो। उसकी इस कोशिश में मीडिया उसके चाकर की तरह काम कर रहा है।

जानकारों की मानें तो पांचों राज्यों में अगर कहीं बीजेपी जीत सकती है तो वह राज्य पश्चिम बंगाल ही है। पार्टी को लग रहा है कि वहां ममता बनर्जी पिछले दस साल से लगातार सत्ता में हैं और वह मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी है। इस तरह सत्ता विरोधी लहर का लाभ उसे मिल सकता है। पड़ोसी राज्य असम में खुद बीजेपी पिछले पांच साल से सत्ता में है। पिछली बार वह कभी बाहरी लोगों को राज्य से बाहर करने का आंदोलन चलाकर सत्ता में आई असम गण परिषद और कुछ दूसरे छोटे दलों को मिलाकर सत्ता तक पहुंच बनाने में सफल रही थी। लेकिन इस बार हालात खराब हैं। एक तो कुछ छोटे दल उससे जहां अलग हो गए हैं , वहीं विपक्षी दलों ने मिलकर महागठबंधन बना लिया है। सबसे बड़ी बात ये कि राज्य में सीएए को लेकर बड़ा आंदोलन भी चला। इस तरह वहां हालात उसके पक्ष में बिल्कुल भी नहीं हैं। बाकी , तीन राज्य जहां चुनाव होने वाले हैं वो दक्षिण भारत के हैं जहां बीजेपी की कोई मौजूदगी ही नहीं है। उन तीनों राज्यों की विधान सभाओं में उसकी एक भी सीट नहीं है। इसीलिए भारतीय माडिया केवल पश्चिम बंगाल की बात ही कर रहा है। कुल मिलाकर कहना ये चाहिए कि अगर बीजेपी की जीत की सबसे ज्यादा कहीं सभावना बनती है तो वह राज्य सिर्फ और सिर्फ पश्चिम बंगाल ही है। हालांकि , जानकार यह भी जानते हैं कि वहां ममता बनर्जी से निपटना इतना आसान नहीं है जितना बीजेपी समझ रही है और मीडिया दिखा रही है। बीजेपी की दिक्कत ये है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में वह पिछला लोक सभा चुनाव दुबारा जरूर जीत गई है, लेकिन राज्यों में हुए चुनावों में उसे गहरा झटका लगा है। हिंदी भाषी राज्यों में हुए चुनावों में वह राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड में हार चुकी है। बिहार में किसी तरह से जीत पाई। हालांकि मध्य प्रदेश में उसने पिछले दरवाजे से फिर से सरकार बना ली है पर उसकी सच्चाई सबके सामने आ चुकी है। इसी तरह वह कर्नाटक और गोवा में भी चुनाव हार चुकी है और पिछले दरवाजे से ही सत्ता में आ पाई है। अब जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें भी तीन में नुकसान की अटकलें जानकार लगा रहे हैं। असम में भी उसकी राह बहुत मुश्किल हो गई है। इसलिए वह अपना सारा ध्यान सिर्फ पश्चिम बंगाल पर लगाए हुए है ताकि बाकी राज्यों के चुनावों की तरफ लोगों का ध्यान न जाए और उसकी असफलता की चर्चा न हो। उसकी इस कोशिश में मीडिया उसके चाकर की तरह काम कर रहा है।

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी पिछले दस साल से  सत्ता में

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी पिछले दस साल से लगातार सत्ता में हैं। वे जमीनी नेता हैं। उन्होंने अपनी आक्रामक राजनीति और लड़ाकू चरित्र के बल पर अजेय समझी जा रही वामपंथी सरकार को हराया। कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि ममता बनर्जी 34 सालों से सत्ता में काबिज वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकेंगी। पर वो ऐसा करने में सफल रहीं। 2009 में जब लोग लोक सभा के चुनाव हुए तो ममता बनर्जी ने शानदार प्रदर्शन किया और 2011 के विधान सभा चुनावों में वामपंथ को धूल चटा दी। बीजेपी भी वही सोच रही है। 2019 के लोक सभा चुनावों में उसने राज्य की 18 सीटें जीती हैं। उसे लगता है कि अब होने जा रहे चुनावों में वह ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की तरह ही सत्ता हथिया लेगी। इसके लिए उसने अभियान भी चलाया है और भारतीय मीडिया की मदद से माहौल भी बनाया है। पिछले दो सालों में ममता बनर्जी की पार्टी (टीएमसी) के कई दिग्गज नेताओं को वह अपनी ओर मिलाने में सफल रही है। लेकिन सच्चाई क्या है… सच्चाई यह है कि ममता बनर्जी राज्य में अब भी बहुत मजबूत हैं। निश्चित तौर पर उनके कुछ प्रमुख नेताओं ने उनका साथ छोडा है और बीजेपी का दामन थामा है। इसका कुछ असर जरूर पड़ेगा। पर जितना सोचा जा रहा है उतना असर नहीं पड़ने जा रहा। जिस लोक सभा चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर बीजेपी अपने आप को मजबूत मान रही है उसी लोक सभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी को बीजेपी से ज्यादा सीटें मिली हैं। अगर बीजेपी ने लोक सभा की 18 सीटें जीती हैं तो ममता बनर्जी ने 22 सीटें जीती हैं। आप कह सकते हैं कि लोक सभा चुनावों के बाद ममता के कई दिग्गज नेता उनका साथ छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए हैं। इससे ममता बनर्जी कमजोर और बीजेपी मजबूत हुई है। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि बीजेपी के भी कई नेताओं ने ममता बनर्जी का हाथ थाम लिया है। चूंकि मीडिया इसकी चर्चा नहीं करता इसलिए लोगों को इस तरह की खबरें पता नहीं चल पा रहीं। अभी हाल ही में बीजेपी एससी मोर्चा के प्रदेश उपाध्यक्ष दीपक रॉय और एससी प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्य सुब्रत रॉय ने पार्टी छोड़ दी है। इसके अलावा नदिया और डायमंड हार्बर के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भी बीजेपी छोडकर तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन कर लिया है। एक खास बात और ध्यान में रखने वाली है। बीजेपी जिस लोकसभा के प्रदर्शन के आधार पर इतरा रही है उसे यह नहीं भूल जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में उसका वोट लोक सभा में बढ़ जाता है। जबकि विधान सभा चुनाव में वह घट जाता है। 2014 के लोक सभा चुनावों से पहले पश्चिम बंगाल में बीजेपी का वोट करीब 5-7 प्रतिशत था। लेकिन लोक सभा चुनावों में वह बढ़कर 16 प्रतिशत के करीब हो गया। लेकिन जब 2016 में विधान सभा के चुनाव हुए तो उसका वोटों का प्रतिशत वापस घटकर छह प्रतिशत के करीब ही रह गया। इसी तरह पिछले लोक सभा चुनावों में बीजेपी का वोट बढ़कर करीब 40 प्रतिशत हो गया। पर कहा नहीं जा सकता कि वही प्रदर्शन पार्टी विधान सभा चुनावों में भी दोहरा पाएगी। अब तक का उसका इतिहास उसके उलट ही रहा है।

बीजेपी की एक और जबरदस्त रणनीति है। चुनावों से ऐन पहले वह मीडिया के जरिए चुनावी सर्वे कराती है। मीडिया से इसलिए ताकि लोगों को लगे कि यह सर्वे निश्पक्ष होकर किए गए हैं। उन सर्वे में बीजेपी को जीतता हुआ दिखाया जाता है। पर पिछले कुछ चुनावों में इसका ठीक उल्टा हुआ है। इसलिए लोगों की समझ में बीजेपी की यह रणनीति भी आ गई है। अब लोग किसी सर्वे पर भरोसा ही नहीं करते। मानने लगे हैं कि यह बीजेपी का खेल है। बावजूद इसके अभी तक जितने भी सर्वे कराए गए हैं उसमें ममता बनर्जी की ही सरकार बनती दिख रही है। सभी सर्वे का कहना है कि ममता की सीटें जरूर कम होंगी लेकिन उन्हें पर्याप्त बहुमत आसानी से मिल जाएगा। 289 सीटों वाली विधान सभा में अब भी उनके पास करीब 200 विधायक हैं। बीजेपी बहुत कोशिश करके 100 का आंकड़ा भी पार कर ले तो उसके लिए यही बड़ी बात होगी। हो सकता है बीजेपी भी इस बात को जानती हो। पर वह तब यह जरूर कह सकेगी कि उसने राज्य में सरकार भले न बनाई हो पर ममता को कड़ी चुनौती दी और मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर उभरी है। इसे ही वह अपनी सफलता बताएगी।

मिथुन और भागवत की मुलाकात को लेकर चर्चाएं

पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले मिथुन चक्रवर्ती और संघ प्रमुख मोहन भागवत की मुलाकात को लेकर सियासी अटकलों का दौर अब भी थमा नहीं है। लेकिन पिछले दिनों अभिनेता ने कयासबाजियों पर विराम लगाने की कोशिश की लेकिन जानकर गठजोड़ की संभावनाओं से इंकार भी नहीं कर रहे। हालांकि, मिथुन की तरफ से इसे सिर्फ औपचारिक मुलाकात बताया जा रहा है लेकिन जानकार इसके विश्लेषण में जुटे हुए हैं।
बता दें कि संघ प्रमुख मोहन भागवत मुंबई स्थित मिथुन चक्रवर्ती के आवास पर मुलाकात करने पहुंचे थे। दोनों के बीच करीब एक घंटे तक बातचीत हुई। जिसके बाद से पश्चिम बंगाल का सियासी तापमान बढने लगा था। हालांकि, मिथुन की तरफ से इसे सिर्फ औपचारिक मुलाकात बताया जा रहा है लेकिन जानकार इसके विश्लेषण में जुटे हुए हैं। दरअसल, मिथुन चक्रवर्ती लेफ्ट के करीबी माने जाते रहे हैं।

तृणमूल ने मां, माटी और मानुष को ठगा

केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस के शासन के दौरान पश्चिम बंगाल में मां, माटी और मानुष को ह्यठगा गया है। भाजपा नेता ने शेखावत ने पिछले दिनों उत्तरी 24 परगना जिले के हबरा विधानसभा क्षेत्र में पार्टी के घर-घर अभियान के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर अपने लोगों के फायदे के लिए काम करने का आरोप लगाया था।
उन्होंने कहा था, तृणमूल कांग्रेस की सरकार समेत विभिन्न सरकारों के कारण पश्चिम बंगाल जो बर्बाद राज्य में बदल गया है, उसे भाजपा रवींद्रनाथ टैगोर का ह्यसोनार बांग्ला (स्वर्ण बंगाल) बनाना चाहती है। यह बात भी गौरतलब है कि शेखावत की उपस्थिति में तृणमूल कांग्रेस के 200 से अधिक कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हुए थे।

असम बीजेपी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती

असम बीजेपी के लिए दूसरी बड़ी चुनौती है। वहां जब 2016 में पार्टी ने चुनाव जीता तो इसे बहुत बड़ा राजनीतिक संदेश माना गया। लेकिन असम ने हाल के सालों में नागरिकता कानून पर मजबूत आंदोलन देखा है। बीजेपी का गठबंधन भी छोटे दलों से टूट गया है। अब स्थिति ये है कि वहां तीन प्रमुख गठबंधन बन गए हैं। पहला गठबंधन सत्ताधारी बीजेपी का है। इस गठबंधन में बीजेपी के साथ असम गण परिषद (एजीपी) और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) है। इसे चुनौती देने के लिए कांग्रेस ने महागठबंधन बनाया है। इसमें कांग्रेस के साथ ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ), तीन वामपंथी पार्टियां-सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई एमएल और आंचलिक गण मोर्चा (एजीएम) शामिल हैं। एक तरह से इन्होंने सीटों पर भी सहमति जता दी है। राज्य की 126 सीटों में से 97 सीटों पर कांग्रेस, करीब बीस सीटों पर एआईयूडीएफ, पांच-छह सीटों पर वामपंथी पार्टियां और तीन-चार सीटों पर एजीएम लड़ सकती है।

2016 के विधान सभा चुनावों में बीजेपी, असम गण परिषद और बोडो पीपुल्स फ्रंट साथ मिलकर लड़े थे। इसमें बीजेपी को 60, असम गण परिषद को 14 और बोडो पीपुल्स फ्रंट को 12 सीटें मिली थीं। अब बोडो पीपुल्स फ्रंट इस मोर्चे से अलग हो चुका है। कांग्रेस और एआईयूडीएफ पिछले चुनाव में अलग-अलग लड़े थे। तब कांग्रेस को 26 और एआईयूडीएफ को 13 सीटें मिली थीं। अब इस बार ये दोनों साथ मिलकर लड़ रही हैं। साथ ही वामपंथी पार्टियां और आंचलिक गण मोर्चा भी हैं। तो एक तरफ जहां बीजेपी के नेतृत्व वाले सत्ताधारी मोर्चे में बिखराव आया है वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन बना है। रही सही कसर दो क्षेत्रीय दलों ने पूरी कर दी है। ये क्षेत्रीय दल हैं असम जातीय परिषद और रायजोर दल। रायजोर दल ने ही सीएए आंदोलन राज्य में चलाया था। ये दोनों मिलकर चुनाव लड़ने जा रहे हैं। इन दोनों का राज्य की 45 सीटों पर असर है। माना जा रहा है कि ये इन सीटों पर बीजेपी गठबंधन को काफी नुकसान पहुंचाएंगे।

तमिलनाडु का बीजेपी में कुछ नहीं

तमिलनाडु का बीजेपी में कुछ नहीं है। हालांकि ऑल इंडिया द्रविण मुनेत्र कड़गम की आपसी लड़ाई का फायदा उठाकर वह वहां की सरकार को नियंत्रित कर रही है। अब वहां एनडीए की ही सरकार मानी जाती है। लेकिन चुनाव नजदीक आते ही मुख्यमंत्री के पलानी स्वामी ने एलान कर दिया है कि वह बीजेपी के साथ कोई चुनावी गठबंधन नहीं करेंगे। मतलब ये कि जिस ऑल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के जरिए बीजेपी राज्य में अपनी घुसपैठ करना चाहती थी उसकी संभावना ही खत्म हो गई। फिलहाल बीजेपी का राज्य विधान सभा में कोई सदस्य नहीं है और आगामी चुनावों में भी यही स्थिति रहने वाली है। वैसे भी इस बार के पलानी स्वामी की सत्ता जाने वाली है। विपक्षी द्रविण मुनेत्र कड़गम ने वहां कांग्रेस के साथ मिलकर गठजोड़ किया है और वह लगातार सत्ताधारी दल पर हमले बोल रही है। हाल ही में एबीपी और सी वोटर ने एक सर्वे किया है। जिससे पता चलता है कि पलानी स्वामी की सरकार बुरी तरह से हार रही है। 234 सीटों वाली विधान सभा में द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन को 158-166 सीटें मिलने की संभावना जताई गई है। सत्ताधारी दल के 60-68 सीटों पर सिमट जाने की बात उभर कर सामने आई है। द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन को जहां 41 प्रतिशत मत मिलने की संभावना है वहीं सत्ताधारी गठबंधन को 29 प्रतिशत के करीब। तमिलनाडु से ही जुड़ा हुआ राज्य है पुडुचेरी। वहां भी अन्नाद्रमुक, द्रमुक और कांग्रेस का ही आधार है। बीजेपी का कुछ भी नहीं। आम तौर पर वहां की राजनीति पर तमिलनाडु का ही असर ज्यादा रहता है। फिलहाल वहां कांग्रेस का ठीकठाक आधार है और पिछले चुनाव में उसी की जीत हुई थी। सरकार भी उसी ने बनाई थी। बीजेपी ने उसके चार विधायकों को तोड़ कर उससे अलग कर दिया है और सरकार के अल्पमत में आने के बाद वहां के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा है। बहुत संभव है अगले चुनाव में बीजेपी कांग्रेस से अलग हुए उन्हीं चार विधायकों पर दांव लगाए। पुडुचेरी विधान सभा में कुल 33 सीटें हैं। तीस निर्वाचित और तीन मनोनीत सदस्य। पिछले चुनाव में कांग्रेस के 14 विधायक जीते थे और वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। अब जबकि बीजेपी ने उसके विधायकों में तोड़फोड की है और वहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक की पृष्ठभूमि वाली तेलंगाना की राज्यपाल को वहां की भी कमान सौंप दी है तो इसका कुछ असर पड़ सकता है। लेकिन जैसा कि सबको पता है कि पुडुचेरी पर तमिलनाडु का असर पड़ता है और वहां सर्वे के अनुसार द्रमुक-कांग्रेस का वर्चस्व स्थापित होने जा रहा है, ऐसे में ज्यादा संभावना यही है कि कांग्रेस अगले चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन करेगी।

केरल,बीजेपी का एक भी विधायक नहीं

केरल भी तमिलनाडु और पुडुचेरी की ही तरह दक्षिण भारत का राज्य है और वहां भी बीजेपी का ज्यादा कुछ नहीं है। वहां से बीजेपी का एक भी विधायक नहीं है। वहां की राजनीति मुख्य रूप से वामपंथ की अगुआई वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) और कांग्रेस की अगुआई वाले लोकतांत्रिक डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) द्वारा संचालित होती है। एक बार वहां एलडीएफ की सरकार होती है तो दूसरी बार यूडीएफ की। बीच में एक-दो बार एलडीएफ ने बहुत शानदार प्रदर्शन किया और इतिहास बदलते-बदलते रह गया। लेकिन इस बार ऐसा लग रहा है कि वह दुबारा सत्ता में आकर इतिहास बदल देगा। हाल के हुए पंचायत और स्थानीय चुनावों में उसने एकतरफा जीत हासिल की है। चुनावी सर्वे में भी उसे बढ़त दिखाया गया है और उम्मीद जताई गई है कि वह सत्ता में वापसी कर सकता है। केरल में विधान सभा की कुल 140 सीटें हैं। सर्वे के अनुसार एलडीएफ को उसमें से 81-89 सीटें मिल सकती हैं जबकि यूडीएफ को 49-57 सीटें मिलने की उम्मीद जताई गई है। बीजेपी को 0-2 और अन्य को भी 0-2 सीटें मिल सकती हैं। हालांकि बीजेपी को अगर एक सीट भी मिल जाएगी तो वह उसे बड़ी उपलब्धि ही मानेगी। वह उसे राज्य में खाता खुलने के रूप में देखेगी। यही सोचकर उसने मेट्रो मैन ई श्रीधरन को बीजेपी ज्वाइन कराया है और राज्य में पार्टी का चेहरा बनाने की कोशिश की है। पर दिक्कत ये है कि ई श्रीधरन की उम्र 88 साल है। बीजेपी ने खुद यह तय कर रखा है कि पार्टी में 75 साल से ज्यादा उम्र वालों के लिए कोई पद नहीं है। ऐसे में श्रीधरन की इमेज भी शायद ही उसके काम आए। श्रीधरन ने मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जताई है लेकिन लोग उनकी चाहत पर हंस रहे हैं। कह रहे हैं कि श्रीधरन साहब 88 साल के हो ही चुके हैं 10-15 साल और रुक गए होते। पीछे केंद्र सरकार ने बजट पेश किया। उस बजट में भी चुनावी राज्यों का विशेष ख्याल रखा गया। पश्चिम बंगाल और असम के साथ ही तमिलनाडु और केरल के विकास पर भी अलग से जोर दिया गया। अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु और केरल के विकास की कई योजनाओं की घोषणा की है। पर इन घोषणाओं का लाभ उठाने के लिए गिने-चुने लोग भी बीजेपी के पास नहीं हैं। इसीलिए बीजेपी इन पांच राज्यों के चुनावों में अपना सारा जोर सिर्फ पश्चिम बंगाल पर ही दे रही है।

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