कांग्रेस का अंतरद्वंद्व

 सही मायने में देखा जाये तो आज जो कांग्रेस बची भी है उसे एकजुट केवल नेहरू-गांधी परिवार ही रख सकता है। कांग्रेस को युवाओं को पार्टी की विचारधारा से जोड़ने के लिए लंबी रणनीति बनानी होगी…

धर्मपाल धनखड़

पुडुचेरी में वी. नारायणसामी की सरकार गिरने के साथ ही दक्षिण भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया। एक-एक करके कांग्रेस के चार विधायकों के इस्तीफा देने से सरकार अल्पमत में आ गयी। उपराज्यपाल ने सरकार को विश्वासमत हासिल करने को कहा था, लेकिन वी. नारायणसामी ने पहले ही इस्तीफा दे दिया और सरकार गिर गयी। कांग्रेस विधायकों के इस्तीफों से पैदा हुए राजनीतिक संकट के दौरान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उपराज्यपाल किरण बेदी को हटाकर उनकी जगह तमिलिसाई सौंदराराजन को नियुक्त कर दिया। तमिलिसाई के शपथ ग्रहण समारोह में नारायणसामी भी मौजूद थे। ऐसे संकट के दौरान उपराज्यपाल का अकारण हटाया जाना भावी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। हालांकि, लंबे समय से उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच टकराव चल रहा था। इसके चलते जनकल्याण की कई योजनाएं अटकी हुई थीं। जिससे जनता में किरण बेदी के प्रति रोष बढ़ रहा था और नारायणसामी को सहानुभूति मिल रही थी। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि इस सहानुभूति को रोकने के लिए किरण बेदी को हटाना जरूरी था। उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के झगड़े में नुकसान दोनों को हुआ। किरण बेदी को पद से हाथ धोना पड़ा और नारायणसामी की तो सरकार ही गिर गयी। उधर, बीजेपी ने बहुमत का आंकड़ा होते हुए भी सरकार नहीं बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। अब मई में पांच राज्यों असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल के साथ पुडुचेरी में भी विधानसभा चुनाव होंगे।पिछले साल कांग्रेस की मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और पुडुचेरी समेत कांग्रेस की पांच राज्यों में सरकार थी। इसके साथ ही वह महाराष्ट्र में भी गठबंधन सरकार में शामिल हैं। पिछले साल यानी 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ बगावत कर दी। सिंधिया समर्थक विधायकों के इस्तीफे देने से कांग्रेस सरकार अल्पमत में आ गयी और कमलनाथ को इस्तीफा देना पड़ा और शिवराज चैहान की अगुआई में फिर से भाजपा की सरकार बन गयी। राजस्थान में सचिन पायलट के विद्रोह के कारण गहलोत सरकार के लिए संकट पैदा हो गया था। जिसे केंद्रीय नेतृत्व ने समय रहते संभाल लिया और सरकार गिरने से बचा ली। पुडुचेरी में वी. नारायणसामी की सरकार के गिरने से एक बात निश्चित हो गयी है कि दल-बदल विरोधी कानून पूरी तरह निष्क्रिय हो चुका है। विधायकों के दल-बदल करने पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन इस्तीफा देने पर नहीं। नयी बात ये सामने आयी कि विधायकों के इस्तीफे दिलवा कर भी सरकार गिराई जा सकती है। और इसमें किसी तरह की कानूनी कार्रवाई का भी सामना नहीं करना पड़ेगा। इस तरह देखा जाए तो दक्षिण भारत, केरल को छोड़कर, कांग्रेस का मजबूत किला रहा है। एक-एक करके कांग्रेस के सारे दुर्ग ढहते चले गये और भाजपा का कब्जा होता गया। पुडुचेरी दक्षिण में कांग्रेस का आखिरी गढ़ था। मई में होने वाले चुनाव के मद्देनजर भाजपा को पुडुचेरी के साथ तमिलनाडु में भी इसका फायदा मिलता दिख रहा है। अब कांग्रेस नेतृत्व को ये विचार करना होगा कि किस तरह वह अपनी विरासत को संभाल सकती है।
कांग्रेस काफी समय से केंद्र में मजबूत नेतृत्व का संकट झेल रही है। प्रभावशाली केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में क्षेत्रीय क्षत्रपों को नियंत्रण में रख पाने में पार्टी आलाकमान कमान को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस की मजबूरी ये है कि वो नेहरू-गांधी परिवार की जद से बाहर नहीं निकल पा रही है। पार्टी के पुराने दिग्गज नेता राहुल गांधी की नापसंदगी के बाद भी अपने हक में फैसला करवाने में सफल रहते हैं। इसके चलते राहुल गांधी ने जिन युवा नेताओं को आगे बढ़ाया, अंततः उन्हें पीछे हटना पड़ा। कई नेताओं को तो कांग्रेस छोड़कर अन्य पार्टियों में अपना भविष्य तलाशने को विवश होना पड़ा। इसके उदाहरण के तौर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया, अशोक तंवर और सचिन पायलट को देखा जा सकता है।
राहुल गांधी ने अशोक तंवर को हरियाणा प्रदेश कांग्रेस की बागडोर पार्टी को मजबूत करने के लिए सौंपी थी। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की पकड़ के चलते तंवर तमाम कोशिशों के बावजूद पांच-छह साल में धरातल पर पार्टी को मजबूत करना तो दूर अपनी कार्यकारिणी भी नहीं बना पाये। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट ने पार्टी को मजबूत किया। चुनाव में जीत हासिल करने के बाद मध्यप्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया। इससे असंतुष्ट होकर सिंधिया ने बगावत कर दी और सरकार गिर गयी। वैसे ही पायलट ने भी हताशा में बगावत की, लेकिन उन्हें केंद्रीय नेतृत्व ने समय रहते संभाल लिया।
मई में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। एक तरफ जर्जर कांग्रेस और दूसरी तरफ मजबूत केंद्रीय नेतृत्व और एकजुट संगठन के साथ भाजपा है। दोनों में मुकाबला होना है, ऐसे में साफ दिखाई पड़ता है कि पलड़ा किसका भारी रहेगा, ये बताने की जरूरत नहीं। भाजपा छोटे से छोटे चुनाव को एक युद्ध की तरह पूरी तैयारी के साथ बूथ स्तर पर लड़ती है, वहीं कांग्रेस को मजबूरी में प्रभावशाली क्षत्रपों का सहारा लेना पड़ता है। इससे नये उभरते नेताओं को हताशा और निराशा हाथ लगती है। सही मायने में देखा जाये तो आज जो कांग्रेस बची भी है उसे एकजुट केवल नेहरू-गांधी परिवार ही रख सकता है। यदि परिवार से बाहर किसी मजबूत नेता को पार्टी की कमान सौंपी जाती है तो ये प्रभावशाली नेताओं को स्वीकार्य नहीं होगा और पार्टी को टूट का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, कांग्रेस केंद्र सरकार के खिलाफ विरोध का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहती। लेकिन उसका विरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाता है। ऐसे में कांग्रेस को युवाओं को पार्टी की विचारधारा से जोड़ने के लिए लंबी रणनीति बनानी होगी। यहां ये बात भी सही है कि विपक्ष का ना होना या कमजोर होना लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

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