अनिल शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार
सगंज में नक़ली शराब माफिया द्वारा एक पुलिस कांस्टेबल की हत्या और एक दरोगा पर हुए प्राणघातक हमले के बाद पुलिस और एक्साइज़ महकमे की नींद टूटी है। चारों तरफ से घिर रहे यूपी के डीजीपी ने एचसी अवस्थी ने कहा कि शराब माफियाओं के अब दिन गिने हुए हैं। वे भाग जाएं या जेल में स्थान पाएं हालांकि डीजीपी ने यह नहीं बता सके कि 3 साल से चल रही उनकी सरकार में अब तक इन शराब माफियाओं के दिन कैसे बचे-खुचे रह गए।
2017 में योगी आदित्यनाथ जब गद्दीनशीं हुए थे तब उन्होंने नक़ली शराबबंदी के ख़िलाफ़ एक सख़्त अध्यादेश लाने की हुंकार भरी थी। बाद में अध्यादेशों की प्राथमिकता बदली और वह अवैध शराबबंदी सरकार के प्रमुख एजेंडे से ग़ायब हो गई जो हर साल प्रदेश में अनेक लोगों की जान लेती रही है। प्रदेश में हमेशा से नक़ली शराब का कारोबार अबाध गति से चलता रहा है। इतिहास गवाह है कि पुलिस और एक्साइज विभाग तभी जागते हैं जब कोई बड़ा हादसा हो जाता है। हाल ही में (8 जनवरी 2021) सिकंदराबाद (बुलंदशहर) में नक़ली शराब पीने से 5 लोगों की मौत हो गयी थी। तब एक्साइज विभाग के कुछ निचले स्तर के कर्मचारियों को निलंबित करके और कुछ वरिष्ठ को स्थानांतरित करके सरकार ने अपना पिंड छुड़ाया।
23 नवम्बर 2020 को उप्र के अतिरिक्त मुख्य सचिव संजय भूसरेड्डी ने बड़े फख्र के साथ पीटीआई को बताया था कि 18 से 22 नवम्बर के बीच प्रदेश में देशी शराब की विभिन्न लाइसेंसी दुकानों पर मारे गए छापों में 18,000 लीटर नक़ली शराब पकड़ी गयी। इन मामलों में 283 लोगों को गिरफ्तार किया गया। 1,52, 575 किग्रा ‘लहन’ (नक़ली शराब बनाने में उपयोग में लाया जाने वाला कच्चा माल) की बरामदगी के साथ कुल 888 मुकदमे दर्ज किये गए। दरअसल, कुम्भकर्णी नींद से जागने की प्रदेश एक्साइज़ विभाग की यह कार्रवाई बंथरा (लखनऊ) और अमलिया (इलाहबाद) में नक़ली शराब पीकर डेड़ दर्जन से अधिक लोगों की मृत्यु और तमाम लोगों के अस्पताल में दाखिल कराये जाने की खबरों के आने से सूबे में मची हड़कंप के बाद हुई थी। अप्रैल से जून (2020) के दौरान मारे गये छापों को भी अतिरंजित उपलब्धि के तौर पर एक्साइज विभाग ने प्रचारित-प्रसारित किया था जिनमें 4 लाख लीटर से ज़्यादा नक़ली शराब की बरामदगी हुई थी और 14, 732 मामले दर्ज किये गए थे।
प्रदेश का कोई ऐसा जिला नहीं है जो अवैध शराब के व्यापक कारोबार से अछूता हो। ग्रामीण अंचलों में तो नक़ली शराब की असंख्य भाटियों का जाल फैला ही है, शहरों के बाहरी क्षेत्र भी ‘भट्टियों’ की भरमार से अटे पड़े हैं। आसपास का ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसे इन फैक्ट्रियों की बाबत जानकारी न हो तब सवाल यह उठता है कि एक्साइज, पुलिस और गुप्तचर विभाग की नज़रों से ये कैसे छूट जाते हैं? ज़ाहिर है उनकी इन कारोबारियों के साथ अच्छी ‘रैट-पैट चलती है।
मिसाल के तौर पर कासगंज के मामले को ही लिया जाए। कासगंज स्थित काली नदी की कटरी (घाटी) में नगला धीमर गांव में चलने वाले मोती सिंह धीमर का शराब का व्यवसाय लगभग 10 किमी के क्षेत्र में फैला है। इसकी दबंगई का हाल यह है कि इस पूरे क्षेत्र में कोई दूसरा व्यक्ति अवैध शराब निर्माण नहीं कर सकता। इस इलाक़े में सरकारी तौर पर आवंटित शराब ठेकों में लाइसेंसी शराब की बिक्री 25% से ज़्यादा नहीं हो पाती। इन ठेकेदारों के ऊपर मोती सिंह का इस क़दर दबाव है कि वे या तो उसकी अवैध शराब के ‘पाउच’ को अपनी दुकान से बेचें अन्यथा उनके लिए सालाना लाइसेंस फीस की वसूली निकल पाना भी मुश्क़िल हो जाता है।
मोती सिंह ने लगभग 2 दर्जन बड़ी भट्टियां लगा रखी हैं। प्रतिदिन इन भट्टियों से हज़ारों लीटर अवैध शराब की ‘ढुलाई’ होती है। आसपास के कोई 10-12 गांवों में सिर्फ और सिर्फ मोती की शराब ही बिक सकती है। सुबह 6 बजे से लेकर रात 12 बजे तक भांति-भांति के खोखों पर इनकी खुले आम ‘सेल’ चलती रहती है। इस शराब की सप्लाई की ज़िम्मेवारी मोती की है। इसके लिए उसने एक बड़ा ‘नेटवर्क’ भी बना रखा है। सवाल यह उठता है कि खुलेआम इतने बड़े पैमाने पर होने वाले इस व्यवसाय की पुलिस और एक्साइज विभाग को भनक भी नहीं लगी? सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या यूपी पुलिस की प्राथमिकताएं लोकता्त्रिरक अधिकारों के लिए चल रहे आम नागरिकों, किसानों, मज़दूरों और युवाओं के आंदोलनों को कुचलने भर की ही है?
आन्दोलनकर्ता किसानों, लोकता्त्रिरक अधिकारों के लिए लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के विरुद्ध गंभीर और हमलावर रुख अपनाने वाली यूपी पुलिस अपराधियों और माफियाओं के सामने बेहद कमज़ोर साबित हो रही है। बीते मंगलवार देर शाम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कासगंज ज़िले में हुई एक पुलिसकर्मी की नृशंस हत्या और एक दरोगा को ख़ून से तरबतर कर दिए जाने की घटना ने लोगों को गाठ वर्ष कानपुर के बिकरू कांड की याद ताज़ा कर दी। इन पुलिस वालों ने क्षेत्र के शराब माफ़िया के यहां कुर्की पूर्व का नोटिस चस्पा करने की ‘जुर्रत’ की थी।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, शाम 7 बजे के आसपास सिढ़पुरा थाने को नगला धीमर गाँव के लोगों ने सूचना दी कि गांव के बाहर कोई व्यक्ति निर्वस्त्र और लहूलुहान हालत में पड़ा है। सूचना मिलने पर स्थानीय पुलिस जब वहां पहुंची तो उनके होश उड़ गए। निर्वस्त्र और लहूलुहान हालत में पड़ा व्यक्ति उनके अपने थाने के सब इन्स्पेक्टर अशोक पाल थे। वहां पहुंचे कुछ पुलिसकर्मियों में से कुछ को यह पता था कि अशोक पाल थाने के एक अन्य कांस्टेबल देवेंद्र सिंह के साथ उक्त गांव में कुर्की का नोटिस तामील करवाने गए थे। पुलिसकर्मियों का दल अपने सहकर्मी को गाड़ी में लाद कर तत्काल जिला अस्पताल रवाना हो गया। जानकारी मिलने पर ज़िले की पुलिस में हड़कंप मच गया। पुलिस अधीक्षक एमके सोनकर ने कई थानों की पुलिस को कांस्टेबल की तलाश में निकट के जंगल में रवाना किया। कोई एक घंटे की खोजबीन के बाद सिपाही देवेंद्र सिंह बरामद हुआ। क्षत-विक्षत उसके शरीर पर भी कपड़े गायब थे। अस्पताल पहुंचते-पहुंचते उपचार के दौरान देवेंद्र सिंह की मृत्यु हो गयी।
आईजी पियूष मोरडिया ने स्थानीय मीडिया को बताया कि दोनों पुलिसकर्मी ज़हरीली शराब के मामले में कुर्की पूर्व का नोटिस तामील करवाने के इरादे से गांव में पहुंचे थे, जबकि शराब माफिया ने दोनों को बंधक बना लिया और बाद में उन्हें क्रूर तरीके से पीट-पीट कर ज़ख़्मी कर डाला। पुलिस ने मौक़े से शराब की भट्टी और दूसरा सामान बरामद किया है।
बताया गया है कि शराब माफिया मोती ने काली नदी की तलहटी में शराब बनाने का संयंत्र स्थापित कर रखा था। दोनों पुलिसकर्मी जब वहां पहुंचे तो उन्होंने इनको घेर लिया और सब इंस्पेक्टर की पिस्तौल और मोटर साईकल छीन ली। इसके बाद उन्हें बेरहमी से पीटा। फिलहाल सभी बड़े पुलिस अधिकारियों सहित बड़ा पुलिस दल गांव में मौजूद है। सम्बंधित अपराधियों की खोजबीन जारी है। बताया गया है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूरे घटनाक्रम को स्वयं मॉनिटर कर रहे हैं। जिलाधिकारी कासगंज चंद्रप्रकाश सिंह के अनुसार, सीएम ने सम्बंधित अपराधियों को रासुका में निरुद्ध किये जाने के आदेश दिए हैं।
लोग अभी कानपुर के बिकरू कांड को भूले नहीं हैं जहां सरगना विकास दुबे और उसके गैंग ने 8 पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ में नृशंस हत्या कर दी थी। बाद में पुलिस ने मुठभेड़ में विकास और उसके कई साथियों को मार गिराने का दावा किया। हालांकि, पुलिस की ये कथित मुठभेड़ गहरे विवाद का विषय बानी और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा जिसके निर्देशन में एक उच्चाधिकार प्राप्त जांच कमेटी पूरे मामले की अब भी जांच कर रही है।
सन 2017 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा ने क़ानून व्यवस्था के सुधार को अपने चुनाव अभियान के केंद्र में रखा था। कुर्सी संभालने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आव्हान पर बड़े पैमाने पर पुलिस मुठभेड़ों की वारदातें सामने आईं। इसे लेकर खासा हंगामा मचा। पीयूसीएल सहित कई संगठनों ने पुलिस एनकाउंटर के नाम पर ‘निरपराध’ व्यक्तियों की हत्या किये जाने की जांच की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। योगी आदित्यनाथ के नारे ‘अपराधियों को ठोंक दो’ की भी हर जगह भर्त्सना हुई थी। इन सब के बावजूद प्रदेश में अपराधों की तादाद कम नहीं हुई। महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले में यूपी देश का अव्वल प्रदेश तो है ही, अन्य अपराधों में भी उसकी साख कोई बहुत अच्छी नहीं है। महिला विरुद्ध होने वाले अपराधों में अपराधियों की हिमायत में खड़े होने के लिए भी यूपी पुलिस सारे देश में कुख्यात है। हाथरस के दलित नवयुवती बलात्कार काण्ड में अपराधियों की वकालत में सिर्फ जिला पुलिस और प्रशासन ही नहीं, प्रदेश के एडिशनल डीजी (क़ानून व्यवस्था) भी जिस तरह से बीच बचाव करते पाए गए, उस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कस कर फटकार लगायी थी। किस मजबूरी में प्रदेश सरकार को समूचा हाथरस प्रकरण सीबीआई को सौंपना पड़ा, इसे लोग अभी भूले नहीं है।
एक तरफ बढ़ते हुए अपराधों के मामलों में योगी जी की पुलिस देश में शीर्ष स्तर पर गिनी जाती है, तो दूसरी तरफ लोकता्त्रिरक अधिकारों की लड़ाई में शामिल सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और भांति-भांति के दमन के हथकंडों को अपनाने में भी उसका कोई जवाब नहीं। ‘सीएए’, महामारी एक्ट और किसान आन्दोलन की गतिविधियां यूं तो पूरे देश में होती रही हैं लेकिन जिस क्रूर तरीके से यूपी पुलिस उनके उत्पीड़न में जुटी रही उसके लिए मुख्यमंत्री भले ही अपने पुलिसकर्मियों की पीठ ठोंक कर शाबासी देते रहें, लेकिन देश भर में उसकी बेतरह बदनामी हुई है। अदालतें भी प्रतिक्रया देने से ख़ुद को अछूता नहीं रख सकीं। ‘समान नागरिकता’ (सीएए) के लिए किये गए आंदोलन में शामिल अपने ही रिटायर्ड आईजी को ‘गुंडा एक्ट’ में निरुद्ध करने और उनकी तस्वीरों के पोस्टर-बैनर को चौराहों पर लगाने में वह भले ही निर्लज्ज बनी रही लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट ज़रूर शर्मिंदगी के सागर में डूबता नज़र आया। ‘कोर्ट’ ने तत्काल ऐसे बैनर-पोस्टर उतारने के सख्त आदेश दिए।
जिस समाज में पुलिस का आचरण लोकता्त्रिरक मूल्यों के प्रति घृणास्पद नहीं होगा उसी समाज में वह क्रूर अपराधियों से निबट पाने में आम जनता को अपना हमदर्द और भागीदार बना सकेगी और उसी समाज में अपराधों के ग्राफ पर अंकुश लगा सकेगी। सच्चे या झूठे एनकाउंटर इनका निदान नहीं। हो सकता है कि जल्द ही कासगंज के अभियुक्त भी ‘एनकाउंटरों’ की भेंट चढ़ जाएं लेकिन उससे समस्या का हल नहीं होने वाला। दुर्भाग्य से यूपी पुलिस तो इस मौलिक तथ्य को समझ पाने में असमर्थ है ही, उसके आकाओं को भी यह सोच रास नहीं आती शायद! ’