विपक्ष के निशाने पर दुष्यंत

  • दुष्यंत के बढ़ते कद से चिंतित विपक्ष
  • कृषि कानूनों के मु्ददे पर दोराहे पर दुष्यंत

सुमित्रा

चंडीगढ़।  केंद्र के नए कृषि कानूनों को लेकर हरियाणा में विपक्षी दल मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पर कम और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला पर ज्यादा निशाना साध रहे हैं। चाहे कांग्रेस के नेता हों या चाहे इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) सभी लगातार दुष्यंत पर हमला कर रहे हैं। सिरसा में उनके घर का घेराव किया जा रहा है और अनिश्चितकालीन धरना दिया जा रहा है।   कांग्रेस और इनेलो की मांग भले ही ठीक नहीं मानी जाये, लेकिन इन पार्टियों का मकसद लोगों की नजरों में दुष्यंत चौटाला को संदिग्ध बनाना है। दुष्यंत वही सब बोलने के लिए मजबूर हैं, जो भाजपा उनसे बुलवाना चाहती है।

दुष्यंत उप प्रधानमंत्री स्व. चौधरी देवीलाल के परिवार के अकेले ऐसे सदस्य हैं, जो सबसे छोटी आयु के लोकसभा सदस्य बन गए। 31 साल की उम्र में हरियाणा के उप मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हासिल कर ली।  केंद्र के कृषि कानूनों की तारीफ तो मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने भी की है, लेकिन खट्टर से ज्यादा विरोध का सामना इन दिनों दुष्यंत को ही करना पड़ रहा है। लोगों के दिमाग में यह बात डालने के प्रयास किये जा रहे हैं कि दुष्यंत किसानों के मसीहा माने जाने वाले चौधरी देवीलाल के पड़पोते हैं और उन्हें सब कुछ छोड़ कर किसानों के साथ आ जाना चाहिए।

दूसरी वजह बरोदा उपचुनाव है। विधानसभा चुनावों में बरोदा क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार श्रीकृष्ण हुड्डा जीते थे। गत चुनावों में भाजपा और जननायक जनता पार्टी (जजपा) ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। तब भाजपा को 37 हजार से ज्यादा और दुष्यंत की पार्टी जजपा को 32 हजार से ज्यादा वोट मिले थे। राज्य में अब भाजपा-जजपा की गठबंधन सरकार है। उप चुनाव में भाजपा ने एक बार फिर अंतर्राष्ट्रीय पहलवान योगेश्वर दत्त को टिकट दिया है और जजपा उन्हें समर्थन दे रही है। मुख्यमंत्री खट्टर और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ यह मान कर चल रहे हैं कि दोनों पार्टियों के वोट मिला कर देखे जाएं तो करीब 70 हजार हो जाते हैं, जबकि कांग्रेस को पिछले चुनाव में 41 हजार से ज्यादा वोट मिले थे।

यदि कृषि कानूनों को लेकर हरियाणा और पड़ोसी राज्य पंजाब में बखेड़ा खड़ा नहीं होता तो शायद भाजपा के लिए अपने उम्मीदवार को चुनाव जितवाना मुश्किल भी नहीं था। ऐसे में दुष्यंत को भाजपा के कानूनों की पैरवी नहीं करनी चाहिए। दुष्यंत के विरोध की वजह उनके वोट बैंक को भाजपा के खाते में जाने से रोकना है। चौटाला परिवार में फूट के बाद दुष्यंत ने विधानसभा चुनावों से थोड़े समय पहले जजपा का गठन किया था। चुनावों में उनकी पार्टी 10 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। भाजपा 40 सीटें ही जीत पाई और सरकार बनाने के लिए आजाद विधायकों के साथ ही जजपा के विधायकों के समर्थन की भी जरूरत पड़ी। बदले में दुष्यंत उप मुख्यमंत्री बन गए और पार्टी के एक अन्य विधायक अनूप धानक को राज्य मंत्री का पद मिल गया। अब बरोदा उप चुनाव से पहले उन्होंने अपनी पार्टी के दो विधायकों और एक विधायक के बेटे को बोर्डों-निगमों का चेयरमैन बनवा लिया है।

चौटाला परिवार पिछले पंद्रह साल से सत्ता से बाहर था। राज में साझेदारी करके दुष्यंत को अपनी पार्टी को राज्य में मजबूत करने का मौका मिल गया है। अगर वे भाजपा के साथ नहीं जाते तो खट्टर आजाद विधायकों के सहारे भी अपनी सरकार चला लेते, लेकिन बदले में उन्हें ज्यादातर आजाद विधायकों को मंत्री की कुर्सी पर बैठाना पड़ता, फिर भी सरकार पर खतरे का बादल मंडराते रहते।  आया राम गया राम के लिए मशहूर रहे, हरियाणा में दल-बदल कोई नई बात नहीं है। थोड़ा पीछे जाएं तो हम देखेंगे कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में जब 2009 में चुनाव हुए थे तो कांग्रेस को भी 40 सीट मिली थी। पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई की जनहित कांग्रेस ने छह सीटें जीती थीं। बिश्नोई ने फैसला लेने में देर की और उनकी पार्टी के पांच विधायक हुड्डा से जा मिले। दुष्यंत ऐसा खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे। अगर दुष्यंत देर करते तो भाजपा अपनी सरकार के स्थायित्व के लिए जजपा के विधायकों को तोड़ने के लिए निश्चित तौर पर प्रयास करती और दुष्यंत खाली हाथ रह जाते। इस मायने में देखा जाये तो बिश्नोई की तुलना में दुष्यंत का समय के हिसाब से सही फैसला था।

जिन लोगों ने विधानसभा के चुनावों में भाजपा की सरकार बनने से रोकने के लिए कांग्रेस और जजपा के उम्मीदवारों को वोट दिए थे, उन्होंने खुद को उस समय ठगा-सा महसूस किया, जब दुष्यंत ने समर्थन देकर फिर से खट्टर की सरकार बनवा दी। इससे दुष्यंत के प्रति लोगों में नाराजगी बढ़ी है। विपक्षी दल अब कृषि कानूनों की आड़ में इस नाराजगी को और बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो जजपा समर्थक जाट मतदाताओं के वोट कांग्रेस की तरफ खिसक सकते हैं और इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। भाजपा-जजपा गठबंधन सरकार का अभी चार साल का कार्यकाल बाकी है और विकास के नाम पर ही योगेश्वर दत्त के लिए वोट मांगे जा रहे हैं।

बहरहाल, बरोदा में क्या होगा, यह 10 नवंबर को साफ हो जाएगा। यह मान कर चलिए कि बरोदा उप चुनाव के बाद दुष्यंत की जोर-शोर से की जा रही खिलाफत भी रुक जाएगी और सिरसा में उनके घर के बाहर लगे अनिश्चितकालीन धरने भी उठ जाएंगे।

 

 

 

 

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