पोलिंग बूथों पर इतना सन्नाटा क्यों है?

बादल सरोज

अभी नौतपा शुरू नहीं हुआ है – तब तक तो लू भी चलना शुरू नहीं हुई थी, मगर इसके बाद भी इतनी उच्च तीव्रता की घन गरज के साथ हुए लोकसभा चुनावों के मध्यप्रदेश में अब तक हुए पहले दोनों चरणों में मतदाताओं का रुख चौंकाने वाला रहा है। पहले चरण में 2019 की तुलना में 7.32 प्रतिशत कम मतदान हुआ। इससे घबराई सत्ता पार्टी ने अगले चरण में मतदान बढ़ाने के लिए कोशिशें तेज करने का आव्हान किया, तो वह और कम होकर 7.65 प्रतिशत रह गया। अगले चरणों में क्या होने वाला है, यह देखना अभी बाकी है।

अब तक हुयी 12 सीटों के चुनाव में सभी सीटों पर मतदान प्रतिशत में कमी आने से स्पष्ट है कि यह कोई स्थानीय कारण नहीं है। इसका चुनाव में खड़े हुए प्रत्याशियों से कोई ज्यादा लेना-देना नहीं है। यह एक साफ़ संकेत है : एक ऐसा संकेत, जिसमे नतीजों में उलट फेर करने की पर्याप्त क्षमता छुपी हुई है। सीटवार निगाह डालने पर ये संकेत ज्यादा साफ़-साफ़ पढ़ा और समझा जा सकता है।

पहले चरण में जिन 6 सीटों पर वोट डाले गए, उनमें बालाघाट में 4.95 प्रतिशत, छिंदवाडा 3.21, जबलपुर 8.91, मंडला 5.27, शहडोल 11.05, सीधी में 15.14 प्रतिशत ; दूसरे चरण में दमोह में 9.49 प्रतिशत, टीकमगढ़ 7.34, सतना 9.38, रीवा 10.89, खजुराहो 3.29 तथा होशंगाबाद में 7.47 प्रतिशत कम मतदान हुआ। इस तरह 6 सीटों पर तो यह कमी लगभग दो अंकों या उससे भी अधिक की है, जिनमे विन्ध्य की चारों सीटों पर यह सबसे ज्यादा है।

यह कमी सिर्फ संख्याओं या आंकड़ों का खेल नहीं है, इसके कुछ निहितार्थ हैं और वे वास्तविक हैं ; इस बात का इशारा केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ सरकार के नेता अमित शाह के बयान से मिल जाता है। उन्होंने इस कम मतदान की स्थिति को सुधारने के लिए अपनी पार्टी के नेताओं को अजीबोगरीब धमकी दी है। अमित शाह ने अपने स्वभाव के अनुकूल एक के साथ एक फ्री टाइप की एक स्कीम भी घोषित  की है। उन्होंने कहा है कि “जिन मंत्रियों के क्षेत्रों में कम मतदान हुआ है, उन्हें मंत्रिमंडल से हटाकर, जो विधायक अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र में अधिक मतदान करवाएंगे, उन्हें मंत्री बना दिया जाएगा।“ अगर सच में यह स्कीम लागू हुयी, तो अब तक हुए दोनों चरणों के मतदान को देखते हुए उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ला और दिल्ली से मुख्यमंत्री बनने की आशा में आये, मगर मंत्री भर बनकर रह गए प्रहलाद पटेल की मंत्रिमंडल से छुट्टी पक्की है। उनके अलावा जिन मंत्रियों की लालबत्ती जायेगी, उनमे राकेश सिंह, राव उदय प्रताप सिंह, संपतिया उइके, दिलीप जायसवाल, प्रतिमा बागरी और राधा सिंह भी शामिल है। अगले चरणों में भी यही सिलसिला जारी रहा, तो लगता है मोहन यादव सहित सारे का सारा मंत्रीमंडल ही नया बनाना होगा। मगर खुद अमित शाह जानते हैं कि वे अपने कहे पर कितने टिके रहने वाले हैं। बहरहाल ऐसी धमकी देने के पीछे उनकी मंशा सही है – वे कम मतदान के पीछे के लिखे को एकदम सही पढ़ रहे हैं।

इतने भारी शोर शराबे, हजारों करोड़ रुपया फूंककर चप्पे-चप्पे को मोदी और कमल की तस्वीरों से पाट देने, पहले अयोध्या काण्ड के बहाने और उसके बाद रामनवमी की आड़ लेकर हर खंभे पर भगवा लटका देने, छुटके से बड़के अखबार, गोदी मीडिया से गाँव-मोहल्लों की एंड्राइड फोन भर से चलने वाली ज्यादातर कथित न्यूज़ चैनल्स को विज्ञापनों और नकदी से लाद कर अपना बना लेने, खुद मोदी द्वारा उन्माद और नफरत भड़काने वाले भाषणों की नीचाईयों के रिकॉर्ड बनाने, अगले ही दिन उन्हें भी तोड़कर फिर एक नया रिकॉर्ड बनाने, लाभार्थियों की जन्मकुंडली रखे घूमते पन्ना-अन्नाओं के बावजूद मतदाता यदि वोट डालने नहीं निकल रहे हैं, तो अमित शाह को चिंतित होना ही चाहिए। यह सत्ता पार्टी का तिरस्कार भी है, धिक्कार भी है।

यह वह नोटा है, जिसने पोलिंग बूथ तक जाना भी ठीक नहीं समझा और अपनी गैरहाजिरी से घर बैठे ही नोटा का बटन दबा दिया। कुछ लोगों के अनुसार यह हाल में कुछ ज्यादा ही विवादित हुयी ईवीएम की वजह से भी हो सकता है कि कईयों ने यह मान ही लिया हो कि जब ईवीएम में सब कुछ फिक्स है, तो जाने का मतलब क्या। मगर ये कुछ ज्यादा ही दूर की कौड़ी है ; असल बात वही है, जो अमित शाह ने पकड़ी है और वह यह कि लीपा-पोती की सारी कोशिशो के बाद भी, सब कुछ के बावजूद भाजपा अपनी असफलताओं के हिमालयी ढेर को ढांप नही पायी है, कि उसके घोटालों और अपराधों ने उसके धुर समर्थकों को भी इस कदर निरुत्तरित और लज्जित कर दिया है कि उनमें से ज्यादातर न निकल रहे हैं, न निकाल रहे हैं l। जबलपुर, रीवा, सीधी, सतना और दमोह में वे युवा नदारद थे, जो पिछले चुनाव में ‘हर हर घर घर मोदी’ आलाप रहे थे। सभी जगह वह मध्यवर्ग, खासतौर से सवर्ण मध्यवर्ग, भी अरुचि और तटस्थता का शिकार था, जिसने पिछले कुछ वर्षों में अपनी अक्ल व्हाट्सएप के कूड़ेदान के हवाले की हुई है। सीधी, शहडोल, मंडला में आदिवासियों के बीच कम मतदान एक नया फिनोमिना है। कुल मिलाकर यह कि अमित शाह को सही-सही पता है कि कम मतदान का मतलब क्या है!!

कम मतदान सिर्फ मध्यप्रदेश में ही हुआ हो ऐसा नहीं है! इस बार के लोकसभा चुनाव घटते मतदान के चुनाव हैं – पोलिंग बूथ न जाकर मतदाताओं ने जो कहा है, उसे सुनकर ही भाजपा और उसके एकमात्र प्रचारक नरेंद्र मोदी अपना सारा सरोदा भूल चुके हैं। अंड-बंड, आंय-बांय कुछ भी बोले जा रहे हैं।

वे भारत के ऐसे पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिन्हें अपने ही देश की जनता में नफ़रत और जहर और विभाजन फैलाने और झूठ बोलने के लिए अपने ही द्वारा बिठाए गए केन्द्रीय चुनाव आयोग के कारण बताओ नोटिस का सामना करना पड़ा है। यह घबराहट जनता की भावनाओं को समझने से पैदा हुयी है। मंदिर चला नहीं, सी ए ए के पीछे का मकसद सधा नहीं, इस बार कोई पुलवामा अब तक मिला नहीं है – इसलिए काठ की हांड़ी तिबारा चढने की संभावना न देख कर हिन्दू-मुस्लिम पर उतर आये हैं।

यह शुभ संकेत है कि वे डर रहे हैं। लोकतंत्र की बेहतरी और सलामती के लिए जरूरी है कि इस डर को और बढाया जाए – मतदाताओं को प्रेरित किया जाए कि उनका वोट डालने न जाना भर काफी नहीं है, उनका वोट डालकर इस सरकार को गद्दी से हटाना और भी कारगर होगा!

(लेखक लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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