(आलेख : प्रभात पटनायक, अंग्रेजी से अनुवाद : राजेंद्र शर्मा)
अब तक अनेक शोधकर्ताओं द्वारा यह अच्छी तरह से साबित किया जा चुका है कि ग्रामीण भारत में मजदूरी की वास्तविक दरें, चाहे वह खेत मजदूरों का मामला हो या आम तौर पर ग्रामीण मजदूरों का, 2014-15 से 2022-23 के बीच, करीब-करीब जहां की तहां रुकी रही हैं। (देखिए, दास तथा उस्मानी का लेख, रिव्यू आफ एग्रेरियन स्टडीज, जुलाई-दिसंबर 2023 और द्रेज तथा खेरा के निष्कर्ष, द टेलीग्राफ, 21 अप्रैल 2024 में प्रकाशित।)इस तरह के अध्ययनों में वास्तविक मजदूरी में उतार-चढ़ाव की गणना करने के लिए जिस मूल्य सूचकांक का प्रयोग किया जाता है, खेत मजदूरों के मामले में कृषि मजदूर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक है या फिर आम तौर पर ग्रामीण श्रमिकों के मामले में ग्रामीण श्रम के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक है।
ग्रामीण श्रमिकों की वास्तविक मज़दूरी में शुद्ध गिरावट
लेकिन, समस्या यह है कि इन मूल्य सूचकांकों का आधार वर्ष 1986-87 है। इसका अर्थ यह हुआ कि वे मालों की उसी टोकरी की कीमतों में बढ़ोतरी को प्रतिबिंबित करते हैं, जो उक्त आधार वर्ष में संबंधित सामाजिक समूह के उपभोग की टोकरी हुआ करती थी। लेकिन, चूंकि संबंधित सामाजिक समूह की उपभोग की टोकरी में इस अवधि में उल्लेखनीय रूप से बदलाव हो चुका है, अब से करीब चार दशक पहले, 1986-87 की उपभोग टोकरी को ही आकलन का आधार बनाना, जाहिर है कि इस सामाजिक समूह पर मुद्रास्फीति के प्रभाव का आकलन करने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त है। बेहतर होगा कि आकलन के लिए, उपभोग की कहीं हाल की टोकरी को आधार बनाया जाए।
इसीलिए, हम वर्तमान चर्चा के लिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को ही आधार के रूप में लेंगे। यह भी एक सरकारी मूल्य सूचकांक ही है, फिर भी इसका आधार वर्ष 2010 है और इसी का सहारा लेकर हम श्रमिकों की मजदूरी के रुपयों में मूल्य से, उसके वास्तविक मूल्य की गणना करेंगे। और जब हम ऐसा करते हैं, तो हमें 2014-15 से 2022-23 के बीच ग्रामीण श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में, एक गिरावट दिखाई देती है, जो बेशक थोड़ी-सी गिरावट है, फिर भी शुद्ध गिरावट जरूर है। मिसाल के तौर पर जुताई के काम में लगे खेत मजदूरों की वास्तविक मजदूरी की दर 2014-15 से 2022-23 के बीच, जस की तस रहना तो दूर रहा, इस अवधि में 2.7 फीसद घट गयी है।
इसी प्रकार की गणनाएं अन्य गतिविधियों के संबंध में भी की जा सकती हैं और हम उसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि अनेक गतिविधियों में मजदूरों की वास्तविक मजदूरी की दर में गिरावट आयी है। इसलिए, हम यह कह सकते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान, ग्रामीण श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में शुद्ध गिरावट ही हुई है।
जीवन स्तर में शुद्ध गिरावट
यह एक चौंकाने वाला नतीजा है। जीडीपी में वृद्धि का इतना शोर इससे पहले किसी सरकार ने नहीं मचाया होगा, जितना वर्तमान सरकार ने मचाया है। यह दूसरी बात है कि इस सारे शोर-शराबे के बावजूद, इससे पहले के वर्षों के मुकाबले, मोदी राज में जीडीपी की वृद्धि दर वास्तव में धीमी ही हुई है। मोदी, भारत के 5 ट्रिलियन (50 खरब) डालर की अर्थव्यवस्था बन जाने की दिन-रात बातें करते हैं और उनके भक्त तो ऐसे आचरण करते हैं, जैसे इसे तो पहले ही हासिल भी किया जा चुका हो। लेकिन, जहां प्रधानमंत्री जीडीपी में वृद्धि के ही मोहपाश में कैद हैं, भारतीय आबादी का सबसे गरीब तबका यानी ग्रामीण श्रमिक, अपने जीवन स्तर में शुद्घ गिरावट झेलता रहा है।
लेकिन, बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। जैसा कि द्रेज और खेरा ने ध्यान दिलाया है, 2014 में इस तबके के लिए सामाजिक सुरक्षा की जो पांच योजनाएं उपलब्ध थीं — सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा, मातृत्व लाभ, सामाजिक सुरक्षा पेंशनें और आइसीडीएस व दोपहर का भोजन योजना के जरिए बाल पोषण — एनडीए सरकार ने पिछले एक दशक के दौरान इन सभी योजनाओं को कमजोर कर दिया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अब आबादी में नये जुड़ने वालों को बाहर कर दिया गया है, क्योंकि 2011 की जनगणना के बाद से कोई जनगणना ही नहीं हुई है।
मनरेगा के अंतर्गत दी जाने वाली मजदूरी, मुद्रास्फीति के हिसाब से नहीं बढ़ी है और मजदूरी का भुगतान भी अनुचित देरी से होता है। केंद्र सरकार की योजना के अंतर्गत वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली पेंशन, एक मजाक की तरह 200 रुपये महीना बनी रही है। मातृत्व लाभों को प्रति परिवार एक बच्चे तक सीमित कर दिया गया है। आइसीडीएस और दोपहर का भोजन योजना के लिए केंद्रीय बजट में 40 फीसद की कमी कर दी गयी है।
संक्षेप में इस दौर में न सिर्फ वास्तविक मजदूरी में कमी हो गयी है, बल्कि ग्रामीण कामगार गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा भुगतानों में भी वास्तविक मूल्य के लिहाज से कटौतियां कर दी गयी हैं। बेशक, इस दौर में लाभार्थियों की विशाल संख्या को हर महीने 5 किलोग्राम अनाज मुफ्त बांटा जाता रहा है। यह योजना शुरूआत में महामारी के दौरान लायी गयी थी, लेकिन अब उसका कुछ और समय के लिए विस्तार कर दिया गया है। लेकिन इससे तो, पिछले दशक के दौरान ग्रामीण गरीबों को जिस बढ़ी हुई बदहाली को झेलना पड़ा है, उसकी ज्यादा से ज्यादा आंशिक रूप से ही भरपाई हो पाती है।
वास्तविक मजदूरी की गति पलटी
2014-15 में वास्तविक मजदूरी की गति में जो पलटी आयी, वह काफी ध्यान खींचने वाली है। इससे पहले तक, कुछ अर्से से वास्तविक मजदूरी की दरें बढ़ोतरी पर रही थीं। लेकिन, इसके बाद अचानक वास्तविक मजदूरी की दरों का बढ़ना रुक गया और इस दौर के आखिर में इन दरों ने डुबकी लगा दी। यही कारण है, जो कुल मिलाकर हुई इतनी उल्लेखनीय गिरावट के पीछे मौजूद है। इस पलटी को मोदी सरकार द्वारा की गयी आर्थिक मूर्खताओं से ही नहीं समझा जा सकता है, जिनके बारे में सभी जानते हैं। ऐसी पहली मूर्खता नोटबंदी थी, लेकिन वह घटना तो बाद की थी। ग्रामीण गरीबों पर उसका जो सत्यानाशी असर पड़ा था, उससे वास्तविक मजदूरी में 2014-15 से शुरू हुए गतिरोध की व्याख्या नहीं की जा सकती है। इसी प्रकार, गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के लगाए जाने का बेशक, लघु उत्पादन क्षेत्र पर गंभीर प्रतिकूल असर पड़ा था और इसने बेरोजगारी पैदा करने में योग दिया था, फिर भी इसके सहारे भी, 2014-15 में वास्तविक मजदूरी में आये गतिरोध की व्याख्या नहीं की जा सकती है।
कोविड-19 की पृष्ठभूमि में किए गए अतिवादी लॉकडाउन की तरह, इन दोनों कदमों ने भी बेशक उत्पादन को तहस-नहस करने में, बेरोजगारी पैदा करने में और ग्रामीण गरीबों के बीच घोर बदहाली पैदा करने में, एक बड़ी भूमिका अदा की थी। लेकिन, ये सभी ऐसे कारक थे, जिन्होंने एक पहले से मौजूद रुझान को उग्रतर बनाने का ही काम किया था। इन्हें, ग्रामीण भारत में वास्तविक मजदूरी में हम जो गिरावट देख रहे हैं, उसका प्राथमिक कारण नहीं माना जा सकता है। इसका संबंध तो नव उदारवाद के संकट से ही है। 2008 में अमरीका में परिसंपत्ति मूल्य बुलबुले के बैठने से पैदा हुए संकट के प्रभाव को भारत में, तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा अपनायी गयी विस्तारकारी राजकोषीय मुद्रा ने किसी हद तक शांत कर दिया था। लेकिन, 2014-15 में भाजपा के सत्ता में आने पर, इसे पलट दिया गया। उसने पलटकर एक बहुत ही पुराणपंथी राजकोषीय नीति पर चलना शुरू कर दिया, जिस तरह की नीति नव उदारवाद को पसंद थी। इसका अर्थव्यवस्था में सकल मांग के स्तर पर और इसलिए रोजगार के स्तर पर सीधे-सीधे प्रतिकूल असर पड़ा और इस प्रक्रिया में इसने अर्थव्यवस्था को नव उदारवाद के संकट के बेरोक असर के सामने डाल दिया, जबकि इससे पहले तक सरकार द्वारा इस संकट के असर पर एक हद तक अंकुश लगाए रखा जा रहा था। और ग्रामीण क्षेत्र ही वह ठिकाना है, जहां अंतत: अर्थव्यवस्था पर रोजगार में गिरावट का असर दिखाई देता है, फिर चाहे जिस क्षेत्र में भी रोजगार में यह गिरावट हो रही हो।
अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर, खासतौर पर रोजगार की दर के सुस्त पड़ने की अभिव्यक्ति अंतत: ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसरों में कमी होने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वास्तविक मजदूरी में कटौतियां होने में होती है।
रोज़गार के अवसरों और कुल कमाई में कमी
ये दो परिघटनाएं यानी वास्तविक मजदूरी में कटौती और रोजगार के अवसरों में कमी, वास्तव में साथ-साथ चलती हैं। वास्तविक मजदूरी में कोई कटौती तब तक नहीं हो सकती है, जब तक अर्थव्यवस्था में श्रम की सुरक्षित सेना का सापेक्ष आकार और इसलिए निहितार्थत: ग्रामीण श्रम शक्ति के सापेक्ष ग्रामीण सुरक्षित श्रम का आकार, घट रहा हो। सुरक्षित श्रम के आकार में इस तरह की गिरावट से ग्रामीण श्रम बाजार में एक हद तक मजबूती ही आएगी और इससे वास्तविक मजदूरी में बढ़ोतरी ही हो सकती है, न कि इसका उल्टा हो सकता है। इस तरह, वास्तविक मजदूरी में गिरावट के साथ, ग्रामीण श्रम शक्ति में ग्रामीण बेरोजगारों के सापेक्ष आकार में बढ़ोतरी ही लगी रहती है।
लेकिन, ग्रामीण संकट या बदहाली के लिए इसके गंभीर निहितार्थ हैं। इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण मेहनतकश गरीब, वास्तविक मजदूरी में गिरावट के साथ ही साथ, रोजगार के अवसरों में कमी की मार भी झेल रहे होंगे। दूसरे शब्दों में, इस दौर में सिर्फ वास्तविक मजदूरी में ही गिरावट नहीं हो रही थी बल्कि समग्रता में वास्तविक आय में भी गिरावट हो रही थी, जो वास्तविक मजदूरी की दर और काम के दिनों की संख्या के गुणनफल के बराबर होती हैं। चूंकि मेहनतकश गरीबों की जीवन-दशा सिर्फ वास्तविक मजदूरी की दर पर निर्भर नहीं करती है बल्कि वास्तविक आमदनियों पर निर्भर करती है, मोदी के सत्ता में रहने के इस दशक के दौरान साफ तौर पर मेहनतकश ग्रामीण गरीबों की जीवन-दशाओं में उल्लेखनीय गिरावट आयी है। जब हम इस दौर में ग्रामीण गरीबों के लिए सुरक्षा प्रावधानों में गिरावटों को भी हिसाब में लेते हैं, तो हमारे सामने इस तबके के निचोड़े जाने की पूरी तस्वीर आ जाएगी।
भाजपा राज की नग्न वर्गीय प्रकृति
भाजपा के राज की नंगी वर्गीय प्रकृति इससे स्पष्ट हो जाती है। भाजपा के सत्ता में रहने के इस एक दशक के दौरान, देश के इजारेदार पूंजीपतियों की और उसमें भी खासतौर पर नये इजारेदार पूंजीपतियों के चहेते संस्तर की दौलत में बेतहाशा इजाफा हुआ है। पिकेट्टी और उनके ग्रुप के अनुसार आज भारत में आय की असमानता, मिसाल के तौर पर उसे अगर देश की राष्ट्रीय आय व कुल संपदा में सबसे ऊपर की सीढ़ी की कुल 1 फीसद आबादी के हिस्से के हिसाब से मापा जाए तो, आजादी से पहले, जब औपनिवेशिक शासक तथा राजा-महाराजा लोगों पर राज करते थे, उस जमाने के मुकाबले भी ज्यादा हो गयी है। और एक ओर तो यह हुआ है, और दूसरी ओर आबादी के सबसे गरीब तबकों यानी ग्रामीण भारत में खेत मजदूरों तथा अन्य ग्रामीण मजदूरों के जीवन स्तर में शुद्ध गिरावट होती गयी है।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफेसर थे। अनुवादक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)