मैदान में किसान

आंदोलन के लिए जिम्मेदार कौन?

  • किसानों के दिल्ली कूच के बाद सभी हाइवे जाम, हजारों लोग परेशान
  • किसान-पुलिस के बीच बढ़ रहे टकराव लेकिन केंद्र के साथ नहीं बन रही बात

बलवंत तक्षक चंडीगढ़, वरिष्ठ पत्रकार

पिछले किसान आंदोलन के दौरान तीनों कृषि कानून वापस लेने के बाद केंद्र ने उन संगठनों से जो वादे किए थे, उन्हें पूरा करने की दिशा में क्या कोई कदम उठाए गए हैं? जब किसान संगठनों ने केंद्र सरकार की बेरुखी को देखते हुए फिर से दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया तोतीन केंद्रीय मंत्री बातचीत के लिए चंडीगढ़ पहुंच गए, लेकिन कई घंटे की वार्ता बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई। सब जानते हैं कि बिना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति के इस मामले में कुछ नहीं हो सकता। ऐसे में वार्ता-वार्ता का दिखावे वाला खेल तो हो सकता है, पर कोई मसला हल नहीं हो सकता।प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर निकले, केंद्रीय मंत्रियों वार्ता के लिए चंडीगढ़ आए और किसान संगठनों ने दिल्ली पर चढ़ाई की तैयारियां शुरू कर दी। ऐसा भी नहीं है कि किसानों ने बिना कोई चेतावनी दिए, केंद्र के खिलाफ अपनी जंग का ऐलान किया है। केंद्र सरकार भी अच्छे से जानती है कि कोरे आश्वासनों से किसान मानने वाले नहीं हैं। केंद्र सरकार जब भरोसा दिलाने के बावजूद उनकी मांगों पर गौर करती नजर नहीं आई तो किसान संगठनों के पास केंद्र पर दबावबनाने के लिए आंदोलन के अलावा दूसरा कोई क्या रास्ता हो सकता है? उन्हें एक बार फिर से मैदान में उतरना पड़ा है। किसान संगठनों के साथ केंद्र सरकार बातचीत भी कर रही है और साथ ही इसकी तैयारी में भी जुटी रही कि जो भी हो, किसानों को उनके ट्रैक्टरों के साथ दिल्ली नहीं पहुंचने देना है। इसके लिए सड़क पर बैरिकेडिंग की गई, सड़कों पर कीलें ठोक दी गई। पत्थरों की दीवार खड़ी कर दी गई। दिल्ली की चारों तरफ की सीमाएं सील कर दी गई। धारा-144 लगा दी गई। बॉर्डर पर भारी पुलिस का बंदोबस्त करने के साथ ही अर्द्धसैनिक बलों की 50 कंपनियां तैनात कर दी गई। इसका एक ही मकसद था कि जो भी हो, किसान दिल्ली में दाखिल नहीं हो पाएं, लेकिन दूसरी तरफ केंद्र के रवैये से नाराज किसानों ने भी इस चुनौती को स्वीकार करते हुए घोषणा की कि चाहे जितने अवरोधक खड़े किए जाएं, दिल्ली कूच से उन्हें कोई नहीं रोक सकता। केंद्र सरकार को अपनी मांगें मानने को मजबूर करने के लिए वे हर हाल में दिल्ली पहुंचेंगे।  जाहिर है ऐसे हालात में किसानों और पुलिस जवानों के बीच टकराव बढ़ने की आशंका थी। शंभु बॉर्डर पर ऐसा हुआ भी। किसानों पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और आंदोलनकारी किसानों की तरफ से पुलिस पर पत्थर फेंके गए। दोनों ही पक्षों के कई लोग जख्मी हुए हैं। किसान दिल्ली पहुंचने के लिए बलिदान हैं और हिंसक टकराव की आशंका अभी भी बनी हुई है। इस आंदोलन के चलते दिल्ली के लोग भी आशंकित हैं। कब क्या हो जाए, कुछ कहना मुश्किल है। किसान आंदोलन के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो
किसानों को आंदोलन के लिए कटघरे में खड़ा करते हैं। किसानों के बार-बार के आंदोलन पर सवाल भी खड़े करते हैं, लेकिन वे शायद यह भूल जाते हैं कि देश का पेट भरने वाला किसान वर्ग आज किस हालत में है? अपने परिवार का गुजारा चलाना उसके लिए कितना मुश्किल हो गया है? क्यों सरकारों की तरफ से लगातार उनके साथ छल किया जाता है? अपनी तरफ से दिलाए गए भरोसे पर केंद्र सरकार क्यों अमल नहीं करती? आखिर किसान अपना रोना किस के सामने रोये? कभी किसान की फसल ओलावृष्टि की वजह से नष्ट हो जाती है, कभी सूखे की भेंट चढ़ जाती है। कभी फसल को सर्दी मार जाती है तो कभी बेवजह की बारिश सब खत्म कर देती है। किसान कभी अपनी फसल के लिए जरूरी पानी का बंदोबस्त नहीं कर पाता तो कभी समय पर खाद-बीज की व्यवस्था नहीं कर पाता। कहने का मतलब यह कि किसान पूरी तरह भगवान भरोसे रहता है  फसल नष्ट हो जाने पर किसान को सरकारों की तरफ से मुआवजे का झुंझना थमा दिया जाता है तो कभी फसल बीमा के नाम पर उन्हें आश्वस्त रहने के लिए कर दिया जाता है। खाद-बीज के दाम बढ़ाने से किसानों में नाराजगी नहीं बढ़े, इसके लिए चुपचाप 50 किलो की बोरी का वजन घटा दिया जाता है। व्यापारी खाद-बीज पर तो मुनाफा कमाता ही है, किसान से खरीदी जाने वाली फसल पर भी कमाई करता है। व्यापारी घर बैठा कमाता है और किसान सर्दी-गर्मी झेलते हुए भी घाटा झेलने को मजबूर है। शायद ही कोई किसानों की तकलीफ के बारे में सोचता हो? ऐसे में किसान संगठन अपनी तकलीफों की तरफ केंद्र सरकार का ध्यान खींचने के लिए आंदोलन शुरू करें तो भी उन्हें ही आलोचना झेलनी पड़ती है। पंजाब के किसानों ने अब एक बार फिर से आंदोलन शुरू किया है, इसलिए यह जान लेना जरूरी है कि वे केंद्र सरकार से क्या चाहते हैं?
किसानों  की मांगें हैं: सभी 23 फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की जाए, फसलों का भाव लागत से 50 फीसदी ज्यादा हो, किसानों का कर्ज माफ हो, बिजली संशोधन बिल 2022 को रद्द किया जाए, लखीमपुर खीरी कांड के दोषियों को सजा दिलाई जाए और जख्मी हुए किसानों को मुआवजा मिले, कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज मुकदमे रद्द हों, प्रदर्शन के दौरान जिन किसानों की मौत हो गई, उनके परिजनों को मुआवजा और एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाए। वैसे यह सभी पुरानी मांगें हैं। इन मांगों पर पहले भी बातचीत हो चुकी है। केंद्र इन्हें मानने या इन पर सहानुभूति से विचार करने का भरोसा भी दिला चुका है, लेकिन इतना अर्सा बीत जाने पर भी कुछ नहीं हुआ तो फिर किसान संगठन क्या करते? वे फिर से मैदान में उतर आए। इसमें गलत क्या है? यदि मांगें नाजायज हैं तो फिर केंद्र के मंत्री किसलिए उनके साथ बैठक कर समस्या सुलझाने की बात करते हैं?  आंदोलन के बीच एक नजर केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा के बयान पर भी डालना जरूरी है।
मुंडा कहते हैं कि फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी देने वाला कानून सभी हितधारकों से विचार-विमर्श किए बिना नहीं लाया जा सकता। अब उनसे कौन पूछे कि यह मांग तो कई दशकों से चली आ रही है और सभी हितधारकों के साथ इस मुद्दे पर बातचीत से उन्हे किसने रोका है? मुंडा कहते हैं कि हम कांग्रेस पार्टी जैसे नहीं हैं, जो वादा करके पीछे हट जाएं। लेकिन इससे अजीब बात क्या हो सकती है कि किसानों के पक्ष में रिपोर्ट देने वाले स्वामीनाथन को तो भारत रत्न दिया जा सकता है, लेकिन उनके सुझावों को मानने के लिए केंद्र सरकार सहमत नहीं है। मुंडा यह भी कहते हैं कि कुछ लोग उनके आंदोलन का राजनीतिक लाभ उठा कर किसानों को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि केंद्र सरकार ऐसे कुछ लोगों को राजनीतिक लाभ उठाने का मौका ही क्यों दे रही है?
भले ही मुंडा कुछ भी कहें, विपक्षी दल हालात का अपने लिए क्यों नहीं फायदा उठाना चाहेंगे। भाजपा से किसान संगठनों की नाराजगी बढ़ती होगी तो क्यों नहीं कांग्रेस या आम आदमी पाटी एक बड़े वोट बैंक को अपनी तरफ लुभाना चाहेगी। दोनों ही पार्टियां आज किसानों के साथ खड़ी हैं। कांग्रेस ने जहां किसानों की मांगों का समर्थन किया है, वहीं आप ने खेल स्टेडियम को किसानों की गिरफ्तारी की स्थिति में अस्थाई जेल बनाने से इनकार कर दिया है। दोनों ही पार्टियां चाहेंगी कि यह आंदोलन लंबा खिंचा तो आने वाले लोकसभा चुनावों में उन्हें किसानों का वोट मिल सकता है। भाजपा भी जरूर किसानों की नाराजगी से होने वाले नुकसान की भरपाइ की रणनीति बना रही होगी।
आखिर किसानों की इस मांग में गलत क्या है, जो वे यह कहें कि कृषि वस्तुओं, दूध उत्पादों, फल- सब्जियों, मांस पर आयात शुल्क कम करने के लिए भत्ता बढ़ाया जाए। कीटनाशक, बीज और उर्वरक अधिनियम में संशोधन कर सभी फसलों के बीजों की गुणवत्ता में सुधार की मांग करें। यह भी कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को मूल रूप से लागू करने की बात करें। इस बाबत राज्य सरकारों को दिए निर्देश रद्द करने के लिए कहें। साथ ही यह मांग भी गलत नहीं ठहराई जा सकती कि प्रधानमंत्री फसल बीमा में सरकार खुद बीमा प्रीमियम का भुगतान करे और सभी फसलों को इस योजना का हिस्सा बनाए।  किसानों की इस मांग को भी नाजायज नहीं ठहराया जा सकता कि उन्हें प्रदूषण कानून से बाहर रखा जाए। फसलों का उत्पादन किसान सिर्फ अपने लिए ही नहीं, बल्कि देश के लोगों का पेट भरने के मकसद से भी करते हैं। किसान चाहते हैं कि 60 साल की उम्र के बाद उन्हें हर महीने दस हजार रुपए पेंशन के रूप में दिए जाएं। अगर केंद्र सरकार को यह मांग अनुचित लगती है तो इसे छोड़ कर दूसरी मांगों पर क्यों नहीं कोई फैसला किया जाता। इसे विचार के लिए लंबित रख लिया जाए तो भी किसानों को शायद कोई ऐतराज नहीं होगा, लेकिन एक-दो मांगों की आड़ में सभी मुद्दों को लटका देने की नीति कैसे ठीक मानी जा सकती है?  किसी भी आंदोलन को देखते हुए इंटरनेट सेवाएं बंद कर देना, बॉर्डर सील कर देना, प्रदर्शनकारियों आंसू गैस के गोले छोड़ना हालात पर काबू पाने के लिए ठीक हो सकता है, लेकिन केंद्र को साथ ही स्थाई समाधान भी खोजना चाहिए, ताकि बार-बार ऐसी स्थितियां पैदा नहीं हों, जिनकी वजह से आम लोगों को तकलीफें झेलनी पड़ें।  पिछले किसान आंदोलन के दौरान विधानसभा चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को नुकसान का डर था, लेकिन परिणाम पक्ष में आए। ऐसे में भाजपा का यह डर खत्म हो गया लगता है कि किसान आंदोलन से उनके वोट बैंक को कोई नुकसान हो सकता है। अब तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े जाट नेता और पूर्व प्रधानमंत्री स्व.चरण सिंह के पौत्र जयंत चौधरी भी भाजपा के साथ आ गए हैं। आंदोलन में इस बार हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों की भागीदारी नहीं है। यह आंदोलन पंजाब के किसानों का है। शायद यह भी एक वजह हो कि भाजपा इसकी चिंता नहीं कर रही है। अगर लोकसभा चुनाव सिर पर हों तो किसान संगठनों की नाराजगी किसी भी राजनीतिक दल के लिए फायदेमंद नहीं है। ऐसे में देखना होगा कि भाजपा कैसे इस बार किसान आंदोलन से निपटती है? किसानों की मांगें मानी जाएंगी या उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाएगा, यह आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा।

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