पहाड़ से खिलवाड़ का परिणाम है उत्तराखंड का सुरंग हादसा!

टनल हादसों से सबक लेने का वक्त

परियोजनाओं को धरातल पर उतारने से पहले सटीक आकलन जरूरी

डॉ गोपाल नारसन रुड़की।

हिमालय के पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ को ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है। साथ ही, हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता रहता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरूपण होता है। ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है। पहाड़ पर तोड़-फोड़ या धमाके होना या फिर उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होने का ही दुष्परिणाम है कि हिमालय ( Himalayas) क्षेत्र में निरंतर भूकंप आते रहते हैं। इन भूकंपों से देश की राजधानी दिल्ली तक के प्रभावित होने की आशंकाएं बलवती हो रही हैं। हिमालय की संरचना में परिवर्तन होने से कई बार यमुना में पानी का संकट भी खड़ा हो जाता है। पहाड़ पर अधिक सुरंग या अविरल धारा को रोक कर बांध बनाने से पहाड़ का नैसर्गिक स्वरूप बिगड़ जाता है। जो विभिन्न प्राकृतिक आपदा के रूप में हमारे सामने आते हैं।
भारत सरकार ( Indian government)की ओर से बतौर सलाहकार उत्तरकाशी सुरंग ( Uttarkashi Tunnel) से मजदूरों को निकालने के लिए मदद के लिए आमंत्रित किए गए भूमिगत निर्माण और टनल बनाने के ऑस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स इस अभियान को अपने जीवन का ‘सबसे कठिन’ बचाव कार्य अभियान मानते हैं। उत्तरकाशी के सिलक्यारा में बन रही यह सुरंग 12,000 करोड़ रुपये की लागत से बन रहे 890 किलोमीटर लंबे चार धाम प्रोजेक्ट का हिस्सा है। उत्तरकाशी के यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर धरासू और बड़कोट के बीच सिल्क्यारा के नजदीक निर्माणाधीन करीब 4531 मीटर लम्बी सुरंग है जिसमें सिल्क्यारा की तरफ से 2340 मीटर और बड़कोट की तरफ से 1600 मीटर निर्माण हो चुका है। यहां गत 12 नवम्बर सुबह करीब पांच बजे सिल्क्यारा की तरफ से करीब 270 मीटर अंदर, करीब 30 मीटर क्षेत्र में ऊपर से मलबा सुरंग में गिरने की वजह से 41 लोग फंस गये थे। यह टनल चार धाम रोड प्रोजेक्ट के तहत बनाई जा रही है, जो हर मौसम में खुली रहेगी।

टनल कटिंग का करीब 90 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है। इस दुर्घटना का सबसे दुखद पक्ष यह है कि इस सुरंग का एक हिस्सा 2019 में भी धंसा था। संयोग है कि उस वक्त कोई मजदूर उसमें नहीं फंसा था।
किसी भी तरह की परियोजनाओं को धरातल पर उतारने से पहले उनसे जुड़े नफा-नुकसान का पूर्व आकलन ठीक से कर लिया जाए। जान जोखिम में डालकर निर्माण कार्योंं में जुटे श्रमिकों की सुरक्षा भी हर मोर्चे पर सुनिश्चित करनी होगी। निर्माण प्रक्रिया में गुणवत्ता प्रबंधन की ‘शून्य दोष’ अवधारणा सिर्फ किताबों तक ही सीमित क्यों रहे? यह सही है कि आपदा कभी कह कर नहीं आती और न ही ऐसे हादसों का पूर्वानुमान संभव है। लेकिन इस हादसे में तो आपदा प्रबंधन में जुटे अधिकारियों ने भी माना है कि यदि बेहतर सुरक्षा उपाय और अलार्म सिस्टम होता तो मजदूर इस तरह से सुरंग में नहीं फंसते। ऐसे हादसों की वजह संबंधित एजेंसी का कमजोर तकनीकी पक्ष तो है ही, भू-वैज्ञानिकों की चेतावनियों की अनदेखी भी इसके लिए जिम्मेदार है। इससे पहले 2018 में थाईलैंड में इस तरह की एक घटना हुई थी।

इस दौरान थाईलैंड में फुटबॉल टीम के 12 बच्चे और एक कोच था। इसके बाद सभी को 18 दिन बाद जाकर लोगों को टनल से निकाला गया था। जबकि यहां 41 श्रमिकों को बचाने में 17 दिन का रिकॉर्ड समय लगा है।
उत्तराखंड के उत्तरकाशी की सुरंग से जिंदगी की जंग जीत कर 17 दिनों में बाहर आए पहले बैच के पहले मजदूर को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने गले लगा लिया। और उनका माला पहना कर स्वागत किया। पाइप के जरिए सबसे पहले बाहर आने वाले मजदूर का नाम विजय होरो है। वह खूंटी का रहना वाला है। टनल से बाहर निकलने के बाद विजय ने अपने परिवार से मुलाकात की, वह अपनी पत्नी और माता-पिता से मिला तो सभी भावुक हो गए और परमात्मा का शुक्रिया अदा किया।
उत्तराखंड मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सभी रेस्क्यू किए गए मजदूरों से मुलाकात की और उन्हें जिंदगी की जंग जितने के लिए बधाई दी तथा उनका हालचाल जाना। इस दौरान केंद्रीय राज्य मंत्री जनरल (से.नि) वीके सिंह भी मौजूद रहे। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने श्रमिकों और रेस्क्यू अभियान में जुटे हुए कर्मियों के मनोबल और साहस की जमकर सराहना की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तरकाशी के टनल से 41 मजदूरों को बाहर निकाले जाने के बाद कहा कि हमारे श्रमिक भाइयों के रेस्क्यू ऑपरेशन की सफलता हर किसी को भावुक कर देने वाली है। टनल में जो साथी फंसे हुए थे, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि आपका साहस और धैर्य हर किसी को प्रेरित कर रहा है। एक मजदूर के पिता ने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रख कर पैसे उधार लिए, ताकि वो उत्तरकाशी में अपने बेटे को बचा पर बाहर निकालने के लिए चल रहे रेस्क्यू ऑपरेशन को देख सकें, अपने बेटे से बात कर सकें।
करीब 3 फीट व्यास के पाइप सुरंग तक पहुंचने के बाद मजदूरों तक पहुंची रेस्क्यू टीम के सदस्यों ने सभी मजदूरों को काले चश्मे दिए ताकि अंधेरे में रहने के कारण मजदूरों के बाहर निकलने पर आंखों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न हो, उत्तरकाशी टनल से 17 दिन बाद 41 मजदूर जब बाहर की दुनिया में दाखिल हुए तो नजारा खुशियों भरा हो गया। इससे पूर्व रेस्क्यू ऑपरेशन की पल-पल की अपडेट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लेते रहे और उनका मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के साथ संपर्क रेस्क्यू ऑपरेशन पूरा होने तक बना रहा। टनल से बाहर निकाले गए मजदूरों के लिए टनल के बाहरी भाग में गद्दे लगाए गए थे। उन गद्दों पर मजदूरों को बाहर निकालने के बाद रखा गया और वातावरण के अनुकूल मजदूरों के शरीर को तैयार करने के बाद उन्हें एंबुलेंस से अस्पताल भेजने की प्रक्रिया शुरू की गई। मजदूरों के शारीरिक तापमान और स्वास्थ्य की स्थिति की जांच के लिए मेडिकल टीम भी सुरंग के अंदर मौजूद रही। खुदाई का काम पूरा होने के बाद स्वयं मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी टनल में पहुंच गए थे। टनल के भीतर भी मुख्यमंत्री धामी, प्रधानमंत्री से संपर्क साधे रहे।
दीपावली पर 12 नवंबर की सुबह करीब 5 बजे सुरंग का एक हिस्सा गिरने से ये 41 मजदूर टनल में फंस गए थे। करीब 418 घंटे के बाद स्केप टनल के निर्माण का कार्य पूरा होने और मजदूरों तक रेस्क्यू टीम के पहुंचने पर सभी ने राहत की सांस ली। जिससे मजदूरों की जान बचाने में सफलता मिल पाई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा, ‘मुझे यह जानकर राहत और खुशी महसूस हो रही है कि उत्तराखंड में एक सुरंग में फंसे सभी श्रमिकों को बचा लिया गया है। बचाव कार्य में बाधाओं का सामना करने के कारण 17 दिनों तक की उनकी पीड़ा मानवीय सहनशक्ति का प्रमाण रही है। देश उनके साहस को सलाम करता है। अपने घरों से दूर, बड़ा जोखिम मोल लेते हुए महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए देश उनका आभारी है।’ राष्ट्रपति ने उन टीमों और सभी विशेषज्ञों को बधाई दी जिन्होंने इतिहास के सबसे कठिन बचाव अभियानों में से एक को पूरा करने के लिए अविश्वसनीय धैर्य और दृढ़ संकल्प के साथ काम किया है।
ऑगर मशीन से ड्रिलिंग की बाधाएं दूर करने में प्रवीन और बलविंदर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिन्होंने ऑगर मशीन के आगे सरिया व गार्टर जैसी बाधाएं आने पर पाइप में घुसकर उन्हें काटा था। संकरे से पाइप में गैस कटर से लोहा काटना किसी के लिए भी आसान नहीं था। प्रवीन यादव ने बताया कि इसके लिए उन्हें घुटनों के बल पाइप के अंदर जाकर तीन-तीन घंटे तक पाइप में रहना पड़ता था।
एनएचआईडीसीएल के प्रबंध निदेशक महमूद अहमद व निदेशक अंशु मनीष खल्खो ने सुरंग के अंदर ऑगर मशीन से ड्रिलिंग के काम की निगरानी की थी। झारखंड निवासी खल्खो ने सुरंग के अंदर फंसे झारखंड निवासी मजदूरों से झारखंडी बोली में बात कर उनका मनोबल बढ़ाये रखा। रेस्क्यू के दौरान मजदूरों के आक्रोश को शांत करने में प्रबंध निदेशक महमूद की भूमिका सराहनीय कही जा सकती है।
इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन के अध्यक्ष अर्नोल्ड डिक्स के आने से रेस्क्यू ऑपरेशन सफलता की ओर बढ़ा। उन्होंने रेस्क्यू ऑपरेशन में लगी एनएचआईडीसीएल व जिला प्रशासन को सही सलाह दी। साथ ही, सुरंग के ऊपर से क्षैतिज ड्रिलिंग के लिए भी सर्वे कर मार्गदर्शन किया। एनएचआईडीसीएल के महाप्रबंधक कर्नल दीपक पाटिल ने राहत एवं बचाव अभियान का जिम्मा संभाला था। उनके अनुभव को देखते हुए उन्हें यहां विशेष रूप से भेजा गया था। यहां पहुंच कर उन्होंने सुरक्षा व्यवस्था के साथ सुरंग के अंदर रेस्क्यू ऑपरेशन को भी गति देने का काम किया और अंततः सफल हुए। तमिलनाडु निवासी विनोद ने सुरंग में फंसे मजदूरों तक जीवन रक्षा के तौर पर छह इंच की पाइप लाइन पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने इस ड्रिलिंग को पूरा करने में तीन दिन का समय लगाया। वह रात-दिन इसी काम में लगे रहे। छह इंच की पाइप आरपार होने के बाद मजदूरों तक पका भोजन पहुंचना शुरू हुआ,जिससे उनका जीवन सुरक्षित हो पाया।
पोकलेन मशीन के ऑपरेटर संदीप सिंह ने सुरंग के ऊपर क्षैतिज ड्रिलिंग के लिए 24 घंटे में अस्थायी सड़क तैयार कर दी थी। संदीप ने बताया कि यह काम उनके लिए भी आसान नहीं था। खड़ी पहाड़ी पर 1200 मीटर सड़क को बनाने के लिए उन्हें अपने एक अन्य साथी के साथ रात-दिन काम करना पड़ा था। लेकिन उन्हें खुशी है कि उनकी मेहनत रंग लाई और सभी मजदूरों को बचाया जा सका।उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और विश्व बैंक ने सन 2018 में एक अध्ययन करवाया था। िजसके तहत उत्तराखंड राज्य में 6300 से अधिक स्थान भूस्खलन जोन के रूप में चिन्हित किए गए। राज्य में चल रही हजारों करोड़ रुपये की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या फिर जंगलों को उजाड़ कर कंक्रीट के जंगल खड़े कर रही हैं और इसी कारण भूस्खलन जोन की संख्या निरंतर बढ़ रही है।
मालूम हो कि प्रकृति द्वारा जिस पहाड़ के निर्माण में कई हजार वर्ष लगते हैं, हम उसे कंक्रीट के जंगल निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देते हैं। जबकि किया गया निर्माण बमुश्किल सौ साल चलता हैं। पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं हंै, पहाड़ जंगल, जल और आबोहवा की दशा और दिशा तय करने के साध्य होते हैं। हमारी सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है। वहीं, पहाड़ की नाराजगी भी समय-समय पर हमें झेलनी पड़ रही है। धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद आवश्यक है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। हमारे लिए लिए पहाड़ पर्यटन स्थल बन कर रह गए हैं। विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में पर्यटन के बढ़ते दबाव ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया है। विकास के नाम पर वाहनों के लिए चैड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट के जंगल उगाने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया है।
कुल मिला कर कहा जाए तो हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल व प्राकृतिक संसाधनों का मुख्य आधार है। जल संरक्षण पर आई रिपोर्ट के तहत हिमालय से निकलने वाली 60 प्रतिशत जलधाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्र कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणामस्वरूप धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की संभावना अब महज कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। माना जा रहा है कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप कई आबादी जल मग्न हो जाएंगी। वहीं, धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी भी पड़ेगी, ऐसी आशंका है। ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट आ सकता है।
बेशक, ‘अंत भला तो सब भला’ हो गया। लेकिन, उत्तरकाशी सुरंग हादसे से सबक लेने की जरूरत है। क्योंकि उक्त हादसा पहाड़ से नाजायज छेड़छाड़ का परिणाम है, ऐसे हादसों को रोकने के लिए पहाड़ पर निर्माण को लेकर पुनः विचार विमर्श जरूरी है।

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