सिल्क्यारा से सबक

हादसे के लिए प्रथम दृष्टया निर्माण कंपनी जिम्मेदार है। अब तक की जांच में सामने आया है कि सुरंग निर्माण में सुरक्षा मानकों की घोर अनदेखी की गयी है। सुरंग निर्माण में सबसे बड़ी खामी एस्केप रूट नहीं बनाया जाना थी। नियमानुसार तीन किलोमीटर से ज्यादा लंबी सुरंग के निर्माण के लिए समानांतर एस्केप रूट बनाया जाना अनिवार्य होता है…

धर्मपाल धनखड़
उत्तरकाशी (Uttarkashi) के सिल्क्यारा में निर्माणाधीन सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों को 17वें दिन सुरक्षित निकाल लिया गया। निश्चित रूप से ये राहत एवं बचाव के काम में लगे कर्मियों और विशेषज्ञों की अथक मेहनत और साहस का सद्परिणाम है। और जिस तरह से सुरंग में फंसे मजदूरों ने भी विषम परिस्थितियों में हिम्मत नहीं हारी और जीवन के प्रति उम्मीद बनाये रखी, ये उनके जीवटता की जीत है। चार सौ घंटे तक चला ये अभियान विश्व के दुर्गम और कठिन अभियानों में से एक था। बचाव अभियान के दौरान जहां अनेक दिक्कतें आईं वहीं, केंद्र सरकार ( Central Government)  के विभिन्न मंत्रालयों, राहत एवं बचाव के काम में लगी विभिन्न एजेंसियों, बीआरओ, सेना, वायु सेना और देशी-विदेशी विशेषज्ञों के बीच अनूठा तालमेल और समन्वय देखने को मिला।
सिल्क्यारा सुरंग हादसे ( Silkyara Tunnel Accident) के लिए प्रथम दृष्टया निर्माण कंपनी जिम्मेदार है। अब तक की जांच में सामने आया है कि सुरंग निर्माण में सुरक्षा मानकों की घोर अनदेखी की गयी है। सुरंग निर्माण में सबसे बड़ी खामी एस्केप रूट नहीं बनाया जाना थी। नियमानुसार तीन किलोमीटर से ज्यादा लंबी सुरंग के निर्माण के लिए समानांतर एस्केप रूट बनाया जाना अनिवार्य होता है। यहां ट्रेंच केज या सेफ ट्यूब का भी प्रयोग नहीं किया गया। सुरंग धंसने की स्थिति में सेफ यू ट्यूब के जरिये फंसे हुए कामगारों को बाहर निकाला जा सकता है। सुरंग निर्माण के समय बिछाई जाने वाली ह्यूम ट्यूब भी निकाल ली गयी थी। सुरंग निर्माण के दौरान तय मानकों का पालन नहीं किया गया। इनमें रैपिड इवैक्यूएशन का होना जरूरी है। सुरंग निर्माण में बरती गयी अनियमितताओं और सुरक्षा मानकों का पालन नहीं किया जाना इस दुर्घटना का मूल कारण माना जा रहा है। जाहिर है निर्माण कंपनी प्रबंधन ने खर्च कम करने और ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में सुरक्षा मानकों की अनदेखी करके कामगारों के बहुमूल्य जीवन को जोखिम में डालने का काम किया है।
कहते हैं कि हर हादसे से कुछ सबक मिलते हैं। चारधाम यात्रा के मार्ग में पड़ने वाली सिलक्यारा सुरंग हादसा भी भविष्य के लिए एक चेतावनी और सबक ही है। इस हादसे ने हिमालयी राज्यों में चल रही तमाम विकास परियोजनाओं पर सवालिया निशान लगा दिया है। देश भर में सड़क, रेल मार्ग और पनबिजली परियोजनाओं के लिए अनेक सुरंगों का निर्माण करवाया जा रहा है। विकास को रफ्तार देने में सुरंगों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इस हादसे के बाद केंद्र सरकार ने देश भर में निर्माणाधीन सभी 29 सुरंगों का रिव्यू करने के आदेश दिये हैं। इसके लिए कोंकण रेलवे से करार भी किया गया है। जल्द इसकी रिपोर्ट भी आ जायेगी। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत तो ये है कि हर हादसे के बाद जांच करवायी जाती है। अध्ययन करवाये जाते हैं, लेकिन जांच रिपोर्ट्स के निष्कर्षों को लागू करना तो दूर की बात है, इन्हें पढ़ने तक की जहमत कोई नहीं उठाता। उत्तराखंड में ही इसके कई उदाहरण हैं।
2013 में हुई केदारनाथ त्रासदी के बाद पर्यावरणविद् डा. रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में ऐसी आपदाओं को लेकर आगाह किया था और विभिन्न नदियों पर चल रही बांध परियोजनाओं को तत्काल बंद करने की सिफारिश की थी। लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसी प्रकार विशेषज्ञों की अनेक रिपोर्ट्स धूल फांक रही हैं। केदारनाथ त्रासदी के बाद उत्तराखंड में ही जोशीमठ में पहाड़ धंसने से अनेक मकानों में दरारें आना, आल वेदर रोड के मार्ग में पड़ने वाले कई जगहों पर मकानों में दरारें आना, चमोली में ऋषि गंगा नदी में बाढ़ से हुई तबाही आदि तमाम आपदाओं के पीछे पहाड़ों में अंधाधुंध निर्माण गतिविधियों को माना जा रहा है।
जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तराखंड तक भूस्खलन, भू-धंसाव, बाढ़, भूकंप की अनेक घटनाएं हो रही हैं। अकेले उत्तराखंड में ही पिछले एक साल में एक हजार भूस्खलन की घटनाएं हुई हैं। हिमाचल में पिछले दिनों बारिश से हुई तबाही के बाद अब भू-धंसाव की बड़ी घटना लाहौल-स्पीति में सामने आयी है। विकास की अंधी दौड़ में पहाड़ को खोखला किया जा रहा है। एक के बाद एक अनेक हादसों के बाद भी सरकार और लोग सबक लेने को तैयार नहीं हैं।
विशेषज्ञों की तमाम चेतावनियों, यहां तक कि समय समय पर सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से दिये गये निर्देशों को भी दरकिनार किया जा रहा है। ये सर्वविदित तथ्य है कि हिमालय विश्व की सबसे नवीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। हिमालय केवल पत्थरों ढेर नहीं है। ये भारत के पारिस्थितिकी संतुलन, मौसम की विविधता, और सदानीरा जीवनदायिनी नदियों का प्रमुख स्रोत है। इसलिए इसे बचाना अहम है। हिमाचली क्षेत्र के विकास के लिए पर्यावरण के अनुकूल योजनाएं बनायी जानी चाहिए और उनके निर्माण में सुरक्षा मानकों और पर्यावरण नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाये, ताकि भविष्य में ऐसे हादसों से बचा जा सके।

Leave a Reply