सत्ता के हाईवे पर सपा, बसपा व रालोद

  • क्यों है अखिलेश बम-बम
  • सबसे बुरे दौर में मायावती
  • जयंत की प्रतिभा का इम्तिहान

अमित नेहरा, नई दिल्ली।

भारत में कुल 543 लोकसभा सीटें (Lok Sabha seats)  हैं और उत्तर प्रदेश(UP) में सबसे अधिक आबादी होने के कारण ये राज्य कुल 80 सीटों के साथ लोकसभा सीटों के मामले में देशभर में नम्बर वन पर है। अंदाजा लगा लीजिए कि दूसरे नम्बर पर महाराष्ट्र है जिसमें 48 सीटें हैं यानी उत्तर प्रदेश से 32 सीटें कम! इनके बाद पश्चिम बंगाल में 42 सीटें, बिहार में 40 सीटें और तमिलनाडु में 39 सीटें हैं।
जाहिर है कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ही देश की राजनीतिक दिशा तय करता है। दिल्ली की सत्ता तक जाने वाला हाईवे उत्तर प्रदेश से ही होकर गुजरता है। इसलिए आने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी सभी पार्टियों का सबसे ज्यादा फोकस उत्तर प्रदेश पर ही है।
गौरतलब है कि 2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार अकेले पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो उसे उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें मिली थीं। जबकि कांग्रेस 2014 में यहां केवल दो सीटों पर सिमट गई थी। सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही अपनी सीट बचा पाए थे। और तो और 2009 में उत्तर प्रदेश में 20 सीटें जीतने वाली मायावती 2014 में यहां एक भी सीट नहीं बचा पाई। इसी तरह समाजवादी पार्टी ने 2009 में यहां 23 सीटें जीती थीं, 2014 में सपा यहां केवल 5 सीटें ही निकाल पाई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाली पार्टी रालोद का भी प्रदर्शन बेहद खराब रहा। वर्ष 2014 और 2019 में इसका कोई भी सांसद नहीं चुना गया।

इस स्पेशल रिपोर्ट में हम उत्तर प्रदेश की स्थानीय पार्टियों व क्षत्रपों की चर्चा करेंगे। इनमें अखिलेश यादव, मायावती और जयंत चौधरी पर फोकस रहेगा जो क्रमशः समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी व राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये तीनों नेता व पार्टियां इस समय कहाँ हैं व क्या कर रही हैं। इनकी आगामी रणनीति क्या रहने वाली है और उसका उत्तर प्रदेश व देश की राजनीति पर क्या असर रहेगा, इसकी भी चर्चा करेंगे।

अखिलेश यादव व समाजवादी पार्टी 

अखिलेश यादव देश के सबसे बड़े राज्य में देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को चुनौती देने वाले अकेले राजनेता के रूप में उभरे हैं। उन्होंने कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को उत्तरप्रदेश में एक तरह से अप्रासंगिक बना दिया है। हालांकि वो कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं।

अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी (सपा) के संस्थापक स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव के पुत्र हैं। वर्ष 1973 में जन्मे अखिलेश यादव ने 2012 में 38 साल की उम्र में उत्तर प्रदेश के 20वें मुख्यमंत्री बने। इस प्रकार वे मुख्यमंत्री पद संभालने वाले भारत के सबसे कम उम्र के व्यक्ति बन गए। अखिलेश यादव ने सपा नेता के तौर पर साल 2000 में अपनी राजनीतिक जीवन शुरुआत की और कन्नौज निर्वाचन क्षेत्र के लिए लोकसभा के सदस्य के रूप में चुने गए। इसके बाद अखिलेश ने 2004 और 2009 में लोकसभा चुनाव जीते और 2012 में उन्हें समाजवादी पार्टी के नेता के रूप में नियुक्त किया गया और उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सदस्य बनाया गया। सपा ने 2012 के विधानसभा चुनाव में 224 सीटें जीत लीं और 12 मार्च 2012 को अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया।

वर्ष 2012 का चुनाव उन्होंने ज़रूर जीता था लेकिन वह चुनाव उनके पिता मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ा गया था। इसके बाद अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने अब तक तीन चुनाव लड़े हैं 2017 का विधानसभा चुनाव, 2019 का लोकसभा चुनाव और 2022 का विधानसभा चुनाव और तीनों में उनको सत्ता नहीं मिल पाई है।
पिछले तीन चुनावों से अखिलेश ने गठबंधन कर सत्ता हासिल करने की कोशिश की है। उन्होंने 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से और 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की प्रमुख विरोधी रहीं मायावती से चुनावी गठबंधन किया।

2022 के विधानसभा चुनाव में सपा का वोट शेयर 32.06 परसेंट रहा है जबकि इससे पहले 2017 के चुनावों में पार्टी का वोट शेयर 21.82 फीसदी था। इससे उनकी सीटों में तीन गुना इज़ाफ़ा हो और वो 47 से बढ़ कर 111 हो गईं।
इस चुनाव में अखिलेश ने कुछ छोटी पार्टियों जैसे जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल, ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, केशव देव मौर्य के महान दल, संजय सिंह चौहान की जनवादी पार्टी और अपना दल (के) के साथ चुनावी समझौता किया था।
वैसे तो अखिलेश यादव इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं। लेकिन पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और सपा के बीच तनातनी के संकेत मिले हैं।
अखिलेश ने इस दौरान कह दिया कि इंडिया के तहत अगर राज्य स्तर पर गठबंधन नहीं हुआ तो बाद में भी नहीं होगा। उन्होंने मध्य प्रदेश के चुनाव में सीट बंटवारे को लेकर कांग्रेस से बात न बनने पर ये चेतावनी दी है। सपा ने मध्य प्रदेश की 9 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित किए थे। इसमें पांच सीटें ऐसी थीं, जिन पर कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार घोषित कर रखे थे। सपा ने पहले ही अपने लिए संभावित सीटों की सूची कांग्रेस को दी थी, जिसे कोई खास तवज्जो नहीं मिली। कांग्रेस के रवैये से नाराज सपा ने मध्य प्रदेश की 70 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए और जमकर चुनाव प्रचार भी किया।
उधर, राजस्थान में भी सपा पांच सीटों पर कांग्रेस को चुनौती दी है। लेकिन कांग्रेस ने इन दोनों राज्यों में अखिलेश यादव को कोई भाव नहीं दिया।
ऐसे में अखिलेश यादव से जब कांग्रेस से गठबंधन को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस को बताना होगा कि इंडिया गठबंधन भारत के स्तर पर होगा या नहीं। अगर देश के स्तर पर है तो देश के स्तर पर है, अगर प्रदेश स्तर पर नहीं है तो भविष्य में भी प्रदेश स्तर पर नहीं होगा।
वैसे, अखिलेश यादव ऐलान कर चुके हैं कि समाजवादी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। उन्होंने कहा है कि अगर गठबंधन हुआ तो भी सपा 80 में से कम से कम 65 सीटों पर चुनाव अवश्य लड़ेगी। सवाल उठता है कि क्या ऐसे में कांग्रेस और रालोद दोनों पार्टियां केवल 15 सीटों पर समझौते पर तैयार हो जाएंगी? और वे दोनों 15 में कितनी सीटें आपस में बाटेंगी?

मायावती और बहुजन समाज पार्टी

पिछले तीन दशकों में उत्तर प्रदेश में दलित चेतना को साधकर मायावती इस प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। वे सबसे पहले जून 1995 से अक्टूबर 1995 तक मुख्यमंत्री रहीं। उसके बाद वे मार्च 1997 से सितंबर 1997 तक मुख्यमंत्री बनीं। मायावती तीसरी बार मई 2002 से अगस्त 2003 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। लेकिन मायावती को पांच साल का कार्यकाल पूरा करने का मौका चौथी बार में मिला। मायावती मई 2007 से मार्च 2012 तक पूरे पांच साल उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं हैं।
67 वर्षीय मायावती की वर्तमान राजनीतिक हैसियत अपने सबसे निचले स्तर पर है। अगर पिछले दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों के आँकड़े देखे जाएं तो पता चलता कि उत्तर प्रदेश में बसपा अब में कोई खास दमख़म नहीं बचा जिसके बूते पर वह स्वयं उत्तर प्रदेश में सरकार बना ले।
आगामी लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर भाजपा ने एनडीए के कुनबे बढ़ाना शुरू कर रखा है। दूसरी तरफ़, कांग्रेस ने कई विपक्षी पार्टियों को लेकर इंडिया गठबंधन बना लिया है। गठबंधन की इस राजनीति में मायावती की राजनीति एकला चलो वाली दिखाई दे रही है। मायावती न तो एनडीए का हिस्सा बन रही है और न ही विपक्षी गठबंधन इंडिया का। मायावती पहले ही ऐलान कर चुकी हैं कि लोकसभा चुनाव 2024 में उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीट पर अकेले चुनाव लड़ेगी। देखा जाए तो मायावती की तरह ही नवीन पटनायक की बीजेडी ओडिशा में, के. चंद्रशेखर राव की बीआरएस तेलंगाना में और जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश में न तो एनडीए में और न ही इंडिया में शामिल होने की घोषणा कर रखी है।
लेकिन, मायावती और इन तीनों नेताओं की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में बेहद फ़र्क़ है। ये तीनों क्षत्रप अपने-अपने राज्यों में सत्ता में हैं और राजनीतिक तौर से बेहद मज़बूत स्थिति में हैं। वे अपनी ताक़त से अपने-अपने राज्यों में किसी और दल का फायदा नहीं होने देना चाहते हैं, इसलिए दोनों में से किसी गुट का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं। इसके विपरीत मायावती की वर्तमान स्थिति बेहद नाजुक है और अब तक के कैरियर में सबसे निचले स्तर पर है। ऐसे में मायावती का किसी भी गठबंधन का हिस्सा न बनना या बनने की कोशिश नहीं करना बेहद चौंकाने वाला है।
ये भी हो सकता है कि बसपा की दयनीय स्थिति को देखते हुए न तो विपक्षी गठबंधन इंडिया और न ही एनडीए मायावती को अपने पाले में लाने के लिए कोई ख़ास प्रयास कर रहे हों। वैसे, बसपा बेशक इस समय अकेले चुनाव लड़कर उत्तरप्रदेश में कुछ ख़ास करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन उनका कोर वोट बैंक अभी भी उसके साथ है। अगर ये कोर वोट बैंक एनडीए या इंडिया में मिल जाए तो उत्तर प्रदेश के नतीजों में उलटफेर की संभावना से इंकार नहीं जा सकता।
कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी और उत्तरप्रदेश के 1989 के विधानसभा चुनाव में पहली बार उतरकर 13 सीटें जीतकर व कुल 9.41 परसेंट वोट लेकर प्रदेश की राजनीति में तहलका मचा दिया था। उसके बाद 1991 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 9.44 परसेंट वोट शेयर के साथ 12 सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद 1993 के विधानसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर केवल 11.12 परसेंट ही था लेकिन उसने 67 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया। वजह यह थी बसपा ने यह चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था। उत्तराखंड के अलग राज्य बनने से पहले 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़कर बसपा को प्रदेश की कुल 425 सीटों में से फिर 67 सीटों पर ही जीत मिल गई मगर उसका वोट शेयर 19.64 परसेंट तक पहुंच गया था। वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव बसपा को 98 सीटें व 23.06 परसेंट वोटें मिली थीं।
लेकिन, मायावती और बसपा का उत्कर्ष 2007 उत्तरप्रदेश विधान सभा चुनाव में आया। उस चुनाव में बसपा ने प्रदेश की कुल 403 में 206 सीटें जीतकर बहुमत का आँकड़ा पार कर लिया था। सबसे ज़्यादा सीटों पर जीत के साथ ही यह पहला और आख़िरी मौक़ा था, जब विधानसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर 30 परसेंट के आँकड़े को पार कर गया था। बसपा का कुल वोट शेयर 30.43 परसेंट रहा।
मगर 2012 में हुए विधानसभा चुनाव से मायावती व बसपा के दुर्दिन शुरू हो गए। इस चुनाव में बसपा ने केवल 80 सीट जीतीं और वोट शेयर 25.91 परसेंट रह गया। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा महज़ 19 सीटों पर सिमट गई और वोट शेयर गिरकर सिर्फ़ 22.23 परसेंट रह गया।
2022 के विधानसभा चुनाव में सीटों की संख्या की दृष्टि से बसपा का उत्तर प्रदेश से सफाया हो गया। सभी 403 सीटों पर लड़ने के बावजूद बसपा को केवल एक सीट मिली और वोट शेयर 12.88 परसेंट पर आ गया। उसके 287 उम्मीदवारों की तो जमानत ही जब्त हो गई!
यदि, उत्तर प्रदेश में बसपा के लोकसभा में प्रदर्शन देखा जाए तो पार्टी को 1991 में एक सीट, 1996 में 6 सीटें,1998 में 4 सीटें, 1999 में 14 सीटें जबकि 2004 में बसपा ने 24.7% वोट पाकर उत्तर प्रदेश में 19 सीटें जीत लीं।
उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में बसपा का उत्कर्ष 2009 में आया पार्टी ने 27.4 परसेंट वोट लेकर 20 सीटें जीत लीं।
लेकिन 2014 में बसपा सभी 80 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ी और 19.60 परसेंट वोट मिलने पर एक भी सीट नहीं जीत पाई। इसके बाद 2019 में बसपा और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ और बसपा 10 सीट जीतने में सफल रही, पार्टी का वोट शेयर रहा 19.34 परसेंट।
यदि, मायावती विपक्षी गठबंधन इंडिया का हिस्सा न बनकर अकेले चुनाव लड़ेंगी तो इससे उत्तरप्रदेश में भाजपा को फायदा होगा और समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आरएलडी के गठजोड़ को नुकसान होगा। यानी मायावती का तटस्थ रहना भी एनडीए को मजबूत करेगा।

जयंत चौधरी और राष्ट्रीय लोकदल

हाल ही में दिल्ली को अधिकार देने वाले बिल पर वोटिंग के दौरान राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के मुखिया जयंत चौधरी संसद में गैरहाजिर हो गए। इससे संकेत गया कि वे इंडिया गठबंधन से अलग होना चाहते हैं। लेकिन कुछ समय पश्चात ही वे कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के दफ्तर में बुलाई गई इंडिया गठबंधन में शामिल विपक्षी दलों की मीटिंग में शामिल हो गए। जयंत के बार-बार बदलते रुख को लेकर इंडिया गठबंधन सकते में है।
पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह के पौत्र व पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय अजित सिंह के पुत्र की पार्टी रालोद का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जबरदस्त प्रभाव है। जयंत चौधरी की पार्टी का गठबंधन फिलहाल समाजवादी पार्टी के साथ है। दोनों पार्टियों ने 2022 का विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा था।
उनके साथ आजाद समाज पार्टी (आसपा) भी हैं। इंडिया गठबंधन में भी ये दल शामिल हैं। लेकिन जयंत चौधरी एनडीए के खिलाफ विपक्ष की हर मुहिम से या तो दूरी बनाकर या फिर बयानों से हलचल मचा देते हैं।
गौरतलब है कि एनडीए के खिलाफ पटना में 23 जून को विपक्षी दलों की पहली मीटिंग में जयंत मीटिंग में नहीं पहुंचे थे। तब चर्चा चली थी कि जयंत चौधरी, भाजपा से नजदीकी बढ़ा रहे हैं। जयंत की चुप्पी ने इस सस्पेंस और बढ़ा दिया था। सोशल मीडिया पर जयंत की चावल को लेकर खिचड़ी और खीर खाने वाली द्विअर्थी पोस्ट ने भी खलबली मचा दी थी।
लेकिन इन्हीं अटकलों को विराम देते हुए जयंत चौधरी बेंगलुरु में 17 जुलाई को इंडिया गठबंधन की हुई बैठक में जा पहुंचे थे। इसके बाद वे विपक्षी सांसदों के दल के साथ मणिपुर हिंसा का जायजा लेने भी पहुंचे। लेकिन दिल्ली को अधिकार दिए जाने के बिल पर संसद में होने वाली वोटिंग से जयंत फिर दूर हो गए। हालांकि, रालोद ने कहा कि जयंत चौधरी अपनी पत्नी के ऑपरेशन होने के कारण संसद नहीं जा सके थे। रालोद का कहना था कि बिल पर वोटिंग में काफी अंतर था, अगर स्थिति निर्णायक होती तो जयंत चौधरी संसद में जरूर जाते और वोटिंग करते।
माना जा रहा है बार-बार एनडीए के करीबी होने की चर्चा को हवा देकर जयंत इंडिया पर दबाव बनाने की कोशिश में है। दरअसल, इंडिया गठबंधन बनने से पहले सपा और रालोद का साथ मिलकर 2024 में लोकसभा चुनाव लड़ना तय माना जा रहा था। इसके चलते रालोद के प्रदेशाध्यक्ष ने सपा हाईकमान को एक पत्र लिखकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोकसभा की 12 सीटों (बागपत, मथुरा, मेरठ, कैराना, मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, अमरोहा, फतेहपुर सीकरी, हाथरस, नगीना व बिजनौर) पर चुनाव लड़ने का दावा किया था। इंडिया गठबंधन के बाद भी रालोद का इन सीटों पर दावा बरकरार है।
जब जयंत चौधरी भारी पड़े अखिलेश पर
अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से कुछ सीटें लेने के लिए खूब प्रेशर बनाया। धमकी भी दी लेकिन कांग्रेस यहाँ सपा को कोई भी सीट देने के लिए टस से मस नहीं हुई।
मगर जयंत चौधरी की कूटनीति ने राजस्थान में कमाल दिखा दिया। जयंत चौधरी ने बेहद चतुराई से राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से अपनी पार्टी के लिए एक सीट ले ही ली। सपा व रालोद दोनों ही उत्तर प्रदेश की पार्टियां हैं।
वैसे तो रालोद ने 2018 का राजस्थान विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। तब रालोद ने दो सीटों भरतपुर और मालपुरा से अपने प्रत्याशी उतारे थे और कांग्रेस ने यहां से उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे थे। रालोद के सुभाष गर्ग ने भरतपुर में 15,710 वोटों से जीत हासिल की थी और उन्हें मंत्री बनाया गया हालांकि पार्टी मालपुरा में हार गई थी।

जब जयंत चौधरी भारी पड़े अखिलेश पर

अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से कुछ सीटें लेने के लिए खूब प्रेशर बनाया। धमकी भी दी लेकिन कांग्रेस यहाँ सपा को कोई भी सीट देने के लिए टस से मस नहीं हुई।
मगर जयंत चौधरी की कूटनीति ने राजस्थान में कमाल दिखा दिया। जयंत चौधरी ने बेहद चतुराई से राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से अपनी पार्टी के लिए एक सीट ले ही ली।
सपा व रालोद दोनों ही उत्तर प्रदेश की पार्टियां हैं। वैसे तो रालोद ने 2018 का राजस्थान विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। तब रालोद ने दो सीटों भरतपुर और मालपुरा से अपने प्रत्याशी उतारे थे और कांग्रेस ने यहां से उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारे थे। रालोद के सुभाष गर्ग ने भरतपुर में 15,710 वोटों से जीत हासिल की थी और उन्हें मंत्री बनाया गया हालांकि पार्टी मालपुरा में हार गई थी। 
कांग्रेस की स्थिति इस समय केंद्रीय स्तर पर अपेक्षाकृत अधिक मजबूत है। रालोद ने कांग्रेस से राजस्थान में 6 सीटों की मांग की। काफी ना नुकुर के बाद कांग्रेस ने एक सीट (भरतपुर) रालोद को दे ही दी। कांग्रेस प्रदेश की बाकी सभी 199 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस द्वारा रालोद को राजस्थान में अपना सहयोग बनाना एक बहुत बड़ी बात है। उस प्रदेश में जहाँ वह फिर से सत्ता प्राप्त करने के लिए लड़ रही हो। जयंत चौधरी ने राजस्थान में चुनाव प्रचार करके अपने आपको चौधरी चरण सिंह व अजित सिंह की छाया से निकलने का प्रयास भी किया है।

1999 में हुई रालोद की स्थापना

1999 में जयंत चौधरी के पिता अजित सिंह ने की थी। उनके दादा चौधरी चरण सिंह भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं।
जयंत चौधरी का सियासी सफर 2009 में मथुरा से सांसद चुने जाने से शुरू हुआ, वे 2012 में माठ से विधायक बने, लेकिन दो महीने बाद ही त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में जयंत मथुरा से खड़े हुए और हार गए। फिर 2019 लोकसभा चुनाव में भी जयंत चौधरी को बागपत से हार का सामना करना पड़ा। छह मई 2021 को उनके पिता अजित सिंह का निधन हो गया। उन्हें रालोद का राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया और पार्टी की सम्पूर्ण जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। जयंत पर अपने पिता अजित सिंह और दादा पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह की विरासत को संभालने और अजगर (अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) को पुनर्जीवित करने की भी जिम्मेदारी है। उन्होंने पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट और मुस्लिम समीकरण को साध रखा था। इसी के सहारे रालोद किंगमेकर की भूमिका में रही, लेकिन 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद यह समीकरण टूट गया। इसके बाद जाट और मुस्लिम अलग-अलग हो गए।
लेकिन, किसान आंदोलन के बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक बार फिर दोनों समुदाय एक साथ खड़े हो गए। पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में जयंत चौधरी ने अखिलेश यादव का हाथ थामा और 8 सीटें जीत लीं। उन्हें समझौते में 33 सीटें ही मिली थीं।
आगामी 2024 लोकसभा चुनाव में जयंत चौधरी को अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देना होगा। क्योंकि 2014 के बाद से रालोद की चमक धुंधली हो रही है। जयंत को 2022 के विधानसभा चुनाव से भी ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करना होगा।
वैसे सपा ने घोषणा कर रखी है कि अगर इंडिया गठबंधन के साथ लोकसभा चुनाव हुआ तो वह उत्तरप्रदेश की 80 में से 65 पर चुनाव लड़ेगी। रालोद ने कह रखा कि वह 12 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतरेगी। ऐसे में कांग्रेस के लिए तो 3 ही सीटें बचेंगी!

चलते-चलते
दरअसल उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के किस घटक को कितनी लोकसभा सीटें मिलेंगी इसका फैसला कोरी बयानबाजी से तय नहीं होगा।
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में ‘इंडिया’ गठबंधन को लेकर फिलहाल कोई हलचल नहीं दिख रही है। लेकिन यह हकीकत है कि पांच राज्यों के चुनाव नतीजे ही उत्तरप्रदेश में सीटों का बंटवारा तय करने करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। अगर कांग्रेस इन राज्यों में रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन करती है तो सपा और रालोद पर वो मनोवैज्ञानिक रूप से दवाब बनाने में कामयाब हो जाएगी। कांग्रेस इन चुनावों में जैसा प्रदर्शन करेगी, उसी के हिसाब से यूपी में उसकी सीटें तय होंगी। अगर उसका प्रदर्शन लचर रहता है तो उसे यहाँ भी मन मसोसकर रहना पड़ेगा।
फिलहाल 3 दिसंबर का इंतज़ार कीजिए और उसके बाद तेल व तेल की धार देखिए।

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