उत्तराखंड को लेकर भू वैज्ञानिक समय-समय पर सुझाव भी देते रहते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इन वैज्ञानिक सुझावों पर गंभीरता से राज्य सरकार ने अमल नहीं किया है जिससे आपदा से होने वाले नुकसान को खत्म करने या फिर कम करने को लेकर कोई दीर्घकालिक रणनीति आज तक नहीं बन पाई
रणविजय सिंह
उत्तराखंड (Uttarakhand) में आपदा से तबाही अब कोई नयी बात नहीं है। नयी बात हर साल केवल तबाही से होने वाला नुकसान है। इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। सबसे अहम सवाल यह है कि आपदा से हर साल होने वाले नुकसान को किस तरह से खत्म किया जाए। क्योंकि राहत एवं मुआवजा बांटने के नाम पर करोड़ों की धनराशि खर्च होती है। राज्य गठन से पहले और फिर राज्य गठन के बाद से राहत और बचाव कार्यों पर होने वाले खर्च हर साल ही बढ़ते जा रहें हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य दोनों ही फंडिंग करते हैं। हालात बिगड़ने पर अन्य राज्यों की ओर से भी उत्तराखंड को आर्थिक मदद मिलती है।
आपदा (calamity ) से निपटने और प्लानिंग पर भी हर साल करोड़ों की धन राशि खर्च होती है। उत्तराखंड बनने से पहले और उत्तराखंड बनने के बाद भी इससे छुटकारा नहीं मिल पाया है। उत्तराखंड को लेकर भू वैज्ञानिक (bhu vaigyanik)समय-समय पर सुझाव भी देते रहते हैं लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इन वैज्ञानिक सुझावों पर गंभीरता से राज्य सरकार ने अमल नहीं किया है जिससे आपदा से होने वाले नुकसान को खत्म करने या फिर कम करने को लेकर कोई दीर्घकालिक रणनीति आज तक नहीं बन पाई।
आपदा प्रबंधन को लेकर लंबी चर्चा की अब कोई आवश्यकता नहीं है। अब समय आ गया है कि भूस्खलन (landslide) से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए ठोस रणनीति बनाकर उस पर तत्काल प्रभाव से अमल किया जाए। यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो हर साल यूं ही आपदा आएगी और बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता रहेगा। पूरा विश्व जानता है कि आपदा को रोकना किसी के बस में नहीं है। हां, आपदा से नुकसान कम हो, यह प्रदेश के लिए काफी महत्वपूर्ण है। अब इस दिशा में सभी को सोचने और समझने की जरूरत है।
हर साल ही आपदा की वजह से चारधाम यात्रा प्रभावित होती है। इससे स्थानीय लोगों को काफी नुकसान होता है। स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था चारधाम यात्रा पर ही टिकी रहती है। वैसे भी कोरोना के समय से ही स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था अब तक पटरी पर नहीं आ पाई है। सड़कों का हाल काफी बदतर है। छोटे-छोटे पुल पूरी तरह से ध्वस्त हो गये हैं। फंड के अभाव में इस तरह के सैकड़ों पुल मरम्मत का इंतजार कर रहे हैं। वर्षो से बन रहा आल वेदर रोड का काम अब तक पूरा ही नहीं हो पाया है। कई स्थानों पर यह पुल आपदा की भेंट चढ़ चुका है। आल वेदर रोड के कामों में और तेजी लाने की जरूरत है। भूस्खलन हो या फिर भूकंप,इसे दैवीय आपदा कहा गया है। इस पर इंसान का बस नहीं है। जिस पर इंसान का बस नहीं, उस पर तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है लेकिन जहां इंसान बहुत कुछ कर सकता है, वहां तो करने में किसी को कोई परहेज नहीं करना चाहिए।
हिमालय का मिजाज लगातार बिगड़ रहा है। मानवीय छेड़छाड़ रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इंसान अपनी हरकतों को छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसे में भूस्खलन को रोकना संभव ही नहीं है। आपदा प्रबंधन को सशक्त करना होगा,यह तभी संभव है कि जब इसको सशक्त करने की दिशा में मजबूत और ईमानदार प्रयास किए जाएं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रिसर्च से जुड़े काम अकेले उत्तराखंड के बूते की बात नहीं है। इसके लिए सभी हिमालयी राज्यों को आपस में मिलजुल कर संयुक्त प्रयास करना होगा। नये अनुसंधान की जानकारी सभी राज्यों को देने की आवश्यकता है।
आपदा प्रबंधन को भी जमीनी हलचल समझने को जरूरत है। प्रदेश की जमीनी हलचल को समझते हुए प्लानिंग की आवश्यकता है। वैसे देखा जाए तो सभी पर्वतीय राज्य लगभग आपदा की चपेट में हैं। इसलिए नये रिसर्च की जानकारी सभी राज्यों को शेयर करने की आवश्यकता है। हां सरकार को भी इस दिशा में बेपरवाह नहीं होना चाहिए। भूस्खलन से प्रभावित गांवों की शिफ्टिंग अभी तक नहीं होना। निश्चित रूप से चिंता का विषय है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, उसको राजनीति नहीं करनी चाहिए। आपदाग्रस्त क्षेत्रों को दुरुस्त करने की दिशा में प्रयास करने की जरूरत है। बहरहाल, आपदा प्रबंधन की व्यवस्था मजबूत कैसे हो इस दिशा में प्रयास करने की जरूरत है। आपदा प्रबंधन सशक्त होगा तभी जाकर आपदा से हर साल होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।