डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
दादी प्रकाशमणी प्रजापिता ब्रह्माकुमारी(Prajapita Brahmakumaris) ईश्वरीय आध्यात्मिक विश्वविद्यालय की मुख्य प्रशाशिका रही है।मम्मा यानि जगदम्बा सरस्वती के बाद साकार मे ब्रह्माकुमारीज संस्था की प्रमुख, दादी प्रकाशमणी रही। जिन्होंने सन 1969 से सन 2007 तक संस्था का कार्यभार संभाला। उन्ही के समय मे देश विदेश में संस्था की बहुत सी गीता पाठशाला और राजयोग सेवाकेंद्र खोले गए।
दादी प्रकाशमणि (Dadi Prakashmani) का लौकिक नाम रमा था। रमा का जन्म हैदराबाद, सिंध जो अब पाकिस्तान में है,में 01 सितंबर सन 1922 को हुआ था। उनके पिता विष्णु जी के महान उपासक थे ’ जबकि रमा का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति भाव रहता था। रमा 15 वर्ष की आयु मे ही ओम मंडली के संपर्क में आ गई थीं। ओम मंडली की स्थापना सन 1936 मे की गई थी। रमा के ओम मंडली मे आने से पहले ही घर बैठे श्रीकृष्ण का साक्षात्कार हो गया था, साक्षात्कार के दौरान उन्हें भगवान शिव का प्रकाशमान स्वरूप भी दिखा था।
रमा की दीवाली के दौरान छुट्टियां चल रही थीं।इस कारण उनके लॉकिक पिता ने रमा से अपने घर के पास सत्संग में जाने के लिए कहा ।इस आध्यात्मिक सभा यानि सत्संग को दादा लेखराज जो बाद में ब्रह्मा बाबा कहलाये ,के द्वारा किया गया जाता था, जो भगवान शिव (Lord Shiva)पर आधारित था। उनकी संत्संग मंडली को ओम मंडली के नाम से जाना जाता था।दादी प्रकाशमणि ने सत्संग के पहले दिन ही शिव परमात्मा के निमित्त बने ब्रह्माबाबा से दृष्टि ली तो उन्हें एक अलग ही दिव्य अनुभव हुआ। दादी प्रकाशमणी ने एक विशाल शाही बगीचे में श्रीकृष्ण साक्षात्कार देखा था । दादा लेखराज यानि ब्रह्माबाबा को देखकर उन्हें वही दृष्टि मिली,जो श्रीकृष्ण के साक्षात्कार (interview )से मिली थी।
उन्हें विश्वास हो गया कि ब्रह्माबाबा कोई साधारण मानव रूप में काम नहीं कर रहा है बल्कि यह केवल और केवल परमात्मा का ही कार्य हो सकता है।ब्रह्माबाबा ने ही रमा को ‘प्रकाशमणी’ नाम दिया ,जो उनके अलौकिक जन्म की शुरुआत थी।सन 1939 मे पूरा ईश्वरीय परिवार यानि ओम मंडली कराची (पाकिस्तान) मे आकर बस गई थी। इसके बाद मार्च सन 1950 मे ओम मंडली भारत के माउंट आबू मे आ गई, जो आज भी प्रजापिता ब्रह्मा कुमारीज का मुख्य केंद्र है। सन 1952 से मधुबन – माउंट आबू से उनके द्वारा अन्य भाई बहनों के साथ ईश्वरिया सेवा शरु की गयी ’ ब्रह्मा कुमारी बहने व ब्रह्माकुमार भाई जगह कगाह जाकर ईश्वरीय ज्ञान सुनाते थे और जनसाधारण को उक्त ज्ञान की धारणा करवाते थे ’ दादी प्रकाशमणि भी इस ईश्वरीय सेवा मे जुट गई थी ’ ज़्यादा तर वे मुंबई मे रहती थी।
प्रजापिता ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने बाद से दादी प्रकाशमणी मधुबन यानि माउंट आबू में संस्था की जिम्मेदारी संभालने लगी थी। दादी प्रकाशमणि के कुशल नेतृत्व में ब्रह्माकुमारीज संस्था निरंतर वृद्धि करती रही और उनके अथक प्रयासों से कई देशों में राजयोग सेवा-केंद्र खोले गए।
दादी प्रकाशमणि का स्वभाव बहुत मधुर, सहनशील और सहयोगी था। दादी प्रकाशमणि अपना अधिकांश समय ईश्वरीय सेवाओं में व्यतीत करती थी।वे आध्यात्मिक संगोष्ठियों में भाग लेने, व्याख्यान देने, राजयोग सेवा केंद्र खोलने और यहां तक कि मधुबन में आने वालो के लिए भोजन तैयार करने में मदद करने की सेवा करती रहती थी। वे सभी को एक माँ,एक बहन , एक मार्गदर्शक और एक मित्र के रूप में सबसे से अच्छा व्यवहार करती थी। दादी प्रकाशमणि की खासियत थी कि ब्राह्मण परिवार यानि ब्रह्माकुमारीज को अपना परिवार मानकर संस्था के सभी भाई बहनों की पालना करती थी।वे कहती थी, “कोई भी अजनबी नहीं है, हम सभी एक पिता के बच्चे हैं।”दादी प्रकाशमणि के शब्दों में, “सारा विश्व हम सभी आत्माएँ एक बाप के बच्चे है। कोई भी पराया नहीं है।
“जैसे एक परिवार में होता है, इस संगठन का आधार प्रेम है, और यह परिवार फलता-फूलता है क्योंकि यह प्रेम और सम्मान के साथ पोषित है। केवल एक शक्तिशाली आत्मा ही प्रेम दे सकती है। केवल एक शक्तिशाली आत्मा विनम्र होने का बल रखती है। अगर हम कमजोर हैं, तो हम स्वार्थी हो जाते हैं। अगर हम खाली हैं, हम लेते हैं; लेकिन अगर हम भरे हुए हैं, तो हम स्वचालित रूप से सभी को देते हैं। यही हम शिव बाबा के बच्चे ब्राह्मणों की प्रकृति है।
“अगर आप मानते हो की आप सभी के हैं, और एक ट्रस्टी के रूप में हर किसी की देखभाल करते हैं, तो आप श्रेष्ठ ईश्वरीय कार्यों को करने में सक्षम हैं। लगाव होने के बजाय निस्वार्थ प्रेम होना चाहिए।”स्वपरिवर्तन से विश्व परिवर्तन की संकल्पता के साथ संस्था की आध्यात्मिक क्रांति के अभियान से जुड़ते हुए स्वयं को ईश्वरीय कार्य हेतु समर्पित करने वाली दादी प्रकाशमणि को देश-विदेश में ईश्वरीय संदेश देने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
सही मायनो में इस धरा पर देवदूत के रूप में उभरीं दादी प्रकाशमणि ने सन 1969 में ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने पर संस्था की प्रशासिका के रूप में कार्यभार संभाला था।अपनी नैसर्गिक प्रतिभा, दिव्य दृष्टि, सहज वृत्ति और मन-मस्तिष्क के विशेष गुणों के बलबूते पर दादी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संस्था की न केवल पहचान स्थापित कीबल्कि इसके अद्भूत विकास का करिश्मा भी कर दिखाया।
दादीजी सदैव स्वयं को ट्रस्टी और निमित्त समझकर चलती थीं।उन्हें शांतिदूत पुरस्कार तथा मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की गई। दादी प्रकाशमणि जीवन मूल्यों के साथ-साथ स्वस्थ एवं स्वच्छ प्रकृति की भी पक्षधर थीं।