सुशील उपाध्याय।
डॉक्टर अंबेडकर का एक बहुत मशहूर कथन है, जिसमें वे कहते हैं कि यदि मुझे किसी देश और समाज के विकास को देखना हो तो मेरे लिए महिलाओं का विकास एक महत्वपूर्ण पैमाना है। इस कथन को सामने रख कर हाल के वर्षों में छोटे शहरों में आए बदलावों को देखें तो कई ऐसी महत्वपूर्ण बातें दिखाई देती हैं जिन्हें अब से 10 साल पहले तक लगभग असंभव माना जाता था। इन दिनों हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून या आसपास के किसी भी छोटे शहर में चले जाइए तो आपको बहुत आसानी से ई-रिक्शा और ऑटो चलाती हुई लड़कियां मिल जाएंगी। भले ही यह बदलाव कोई बहुत बड़ी बात न लगता हो, लेकिन कई मामलों में सुखद है। चाहे यह सब मजबूरी में हुआ हो अथवा खुशी से, लेकिन
इसने महिलाओं को घर से बाहर की दुनिया को समझने का मौका भी दिया। हालांकि, यह संख्या अभी उतनी अधिक नहीं है, जिससे यह मान लिया जाए कि ऑटो या ई-रिक्शा चलाने के काम में छोटे शहरों में महिलाओं का दबदबा कायम हो जाएगा, लेकिन इन सारी महिलाओं और लड़कियों को सेल्यूट बनता है कि उन्होंने पुरुषों के धंधे में दखल देने की कोशिश की है।
एक और बड़ा बदलाव हाल के वर्षों में देखने को मिला, जो दिल्ली या मुंबई जैसे बड़े शहरों में संभवतः पहले से हो रहा होगा और छोटे शहरों तक अब पहुंचा है, वो ये कि किसी भी पेट्रोल पंप या गैस स्टेशन पर अब लड़कियां बड़ी संख्या में दिख रही हैं। कई जगह इक्का-दुक्का ही पुरुष नजर आ रहे हैं। यह महत्वपूर्ण संकेतक है क्योंकि जब महिलाओं के बराबरी पर आने या आधुनिक होने की बात होती थी तो अक्सर अपनी कार चलाती हुई महिलाएं, ऑफिस जाती हुई या अच्छी कंपनियों में बड़े पदों पर जिम्मेदारी संभालती महिलाओं के उदाहरण दिए जाते हैं, लेकिन उन उदाहरणों से जमीनी स्तर पर समाज के बदलावों का पता नहीं चलता था। वे अच्छे उदाहरण भर थे, बदलाव के मजबूत संकेतक नहीं थे। पर, अब छोटी जगहों पर और आमतौर से कमजोर पारिवारिक पृष्ठभूमि से आने वाली लड़कियां गैरपरंपरागत कामों को संभालती दिखती हैं। इनकी उपस्थिति से बदलाव की संभावनाओं और उम्मीदों को साफ-साफ देखा जा सकता है।
किसी लड़की का प्रशासनिक अफसर, पुलिस ऑफिसर या सैनाधिकारी बन जाना अच्छी बात है, लेकिन जब कुछ लड़कियां होमगार्ड, पीआरडी जवान या सिक्योरिटी गार्ड के रूप में किसी एटीएम की सुरक्षा या चैराहे पर ट्रैफिक संभालने की ड्यूटी निभाती दिखती हैं तो तब यह और महत्वपूर्ण बात हो जाती है। और ऐसा नहीं कि केवल प्राइवेट सेक्टर के कारण ही बदलाव आए हैं बल्कि, सरकारें भी भूमिका निभा रही है। अब से चार-पांच साल पहले तक इस बात की कल्पना करना मुश्किल था कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की बसों में महिला कंडक्टर दिखाई देंगी। अब केवल उत्तर प्रदेश के भीतर ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश से दूसरी जगहों पर जाने वाली बसों में भी महिला कंडक्टर जिम्मेदारी निभा रही हैं। चुनौतीपूर्ण भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्यों में उत्तराखंड ने सबसे पहले यह पहल की कि कंडक्टर के पदों पर लड़कियों की भर्ती की जाएगी। अब इससे भी आगे की बात हो रही है। शहर के भीतर या छोटी दूरियों की बसों में महिला ड्राइवरों को भी मौका दिए जाने के प्रस्ताव तैयार किया गया है। यकीनन ड्राइवर और कंडक्टर का काम चुनौतीपूर्ण है, लेकिन यदि आपने कभी किसी ऐसी बस में यात्रा की हो जिसमें लड़कियां ही कंडक्टर, ड्राइवर रही हों तो साफ-साफ महसूस किया होगा कि सवारियों के प्रति उसका व्यवहार पुरुषों कार्मिकों की तुलना में ज्यादा बेहतर है।
अपनी पारिवारिक और सामाजिक बंदिशों को तोड़कर खुद के पैरों पर खड़े होने की चाहत के उदाहरण हमारे चारों तरफ बिखरे हुए हैं। अभी हाल ही में देहरादून में एक ऐसी लड़की को देखा जिसने एक पुरानी कार को मॉडिफाई करा कर उसे फलों की दुकान में परिवर्तित कर लिया। अब ये लड़की हर रोज अपनी फलों की चलती-फिरती दुकान को लेकर अलग-अलग मोहल्लों में जाती है। उसकी गाड़ी में एक रिकाॅर्डेड मैसेज है, जिसके जरिए लोगों को उसके आने का पता चल जाता है। ध्यानद देने वाली बात यह है कि उसने गली-मुहल्लों में फल-सब्जी बेचने के पुरुषों के इस पेशे को नई तरह से परिभाषित और व्यवस्थित करने की कोशिश की है। वह केवल फल या सब्जी बेचने वाली नहीं है, बल्कि बिजनेस करने वाली लड़की है। बड़े शहरों में एमबीए चायवाली या बीटेक गोलगप्पेवाली लड़कियां अपेक्षाकृत आसानी से अपना कारोबार कर सकती हैं, लेकिन छोटी जगहों पर ये सब इतना आसान नहीं है।
ऐसे ही और उदाहरण देखने हैं तो हरिद्वार शहर में अनेक प्रमुख जगहों पर खाना-नाश्ता उपलब्ध कराने वाली ऐसी कई छोटी वैन मिल जाएंगी, जिनका संचालन महिलाएं और लड़कियां कर रही हैं। यह कहना आसान होता है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, लेकिन कड़वा सच यह है कि जब आप एक लड़की के तौर पर सड़क पर आकर अपनी मेहनत के बल पर कोई काम करना चाहते हैं तो समाज बहुत अजीब निगाहों से देखता है। जो इन निगाहों का सामना करना सीख जाते हैं उन्हें जल्द ही एहसास होता है कि वे सही राह पर आगे बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान का एक मशहूर धारावाहिक इन दिनों चर्चा में है ‘सर-ए-राह’, जिसमें एक लड़की (एक्ट्रेस सबा कमर) अपने पिता के बीमार होने पर उनकी टैक्सी चलाना शुरु करती है तो परिवार-पड़ोस और बाहर के लोग कई तरह के सवाल खड़े करते हैं, लेकिन अंततः वह सफल रहती है।
ऐसी ही कई कहानियां हमारे आसपास यथार्थ में घटित हो रही हैं। बस, उनको देखने की जरूरत है और सम्मान देने की भी। मैंने देहरादून में एक पांव से दिव्यांग महिला को ई-रिक्शा चलाते देखा है। इस महिला को आप महंत इंद्रेश मेडिकल कॉलेज के आसपास देख सकते हैं। (तकनीकी तौर पर वह ड्राइविंग लाइसेंस पाने के मानक पूरा करती है।) ये तमाम छोटी-छोटी बातें कितना बड़ा बदलाव ला रही हैं, इन्हें एक घटना को सामने रखकर देखा जा सकता है। अब से 20 साल पहले मेरे एक साथी रिपोर्टर (उन दिनों मैं भी पत्रकार था) ने अमर उजाला में एक महिला पर स्टोरी की थी। वह देहरादून शहर में संभवतः अकेली महिला थी जो सुबह-सुबह अपनी साइकिल पर ब्रेड लादकर उन्हें लोगों के घरों तक सप्लाई करती थी। ऐसा एक अन्य मामला किसी दूसरे छोटे शहर का था, जहां कोई महिला न्यूजपेपर हाॅकर का काम करती थी।
तब इन घटनाओं को एक बड़ी घटना की तरह देखा गया। मुझे उस महिला का नाम तो याद नहीं है, यदि वह आज भी काम करती होगी तो अपने आसपास दिखने वाली ई-रिक्शा ड्राइवर, एटीएम पर मौजूद सिक्योरिटी गार्ड, मॉडिफाइड कार में फल बेचने वाली या पेट्रोल पंप पर फ्यूल टैंक भरने वाली या और भी न जाने ऐसी कितनी लड़कियों को देखकर राहत और संतोष जरूर महसूस करती होगी। यकीनन, बदलाव का यह सिलसिला डाॅक्टर अंबेडकर के पैमाने पर भी खरा उतरेगा।