अनहोनी के डर से उत्तराखंड में कई जगह नही मनाई जाती होली!

आओ मिलकर होली खेलें
नफ़रत के सब भाव धोलें
होली का अर्थ पवित्रता है
होली पर आओ पवित्र होलें
पांचों विकार छोड़ दे अब
ईर्ष्या,द्वेष सब छोड़ दे अब
होली पर हम होली होलें
आनंद, प्रेम की होली खेलें
रंग,गुलाल,अबीर लगाओ
गुंजिया,भजिया जमकर खाओ
भक्त प्रह्लाद से ईश्वरवादी बनो
अन्याय प्रतिकार के प्रेरक बनो
बुआ होलिका न हो जगत में
हिरण्यकश्यप के विरोधी बनो
अन्याय की ताकत क्षणिक है
न्याय की ताकत अडिग है
होली पर सब देशवादी बनो
परमात्मा के पथगामी बनो।
डॉ श्रीगोपालनारसन एडवोकेट 
इस संगमयुग में अपार खुशियों के बावजूद  दुनिया मे शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो ,जिसे कोई दुःख न हो।हालांकि जो भी दुःख है वह अपने अपने कर्मों के कारण है।इस दुनियादारी के दुःखो के बीच ही हम थोड़े समय के लिए होली जैसे पर्व के माध्यम से थोड़ा सा सुख खोजते है।क्षणिक सुख की यही घड़ी हमे होली पर मदहोश कर देती है और हम विनोद भाव से हंसी ठिठोली कर होली का रसास्वादन प्राप्त करते है।लेकिन सत्य यही है कि आज सारा संसार दुःखो की होली खेल रहा है। सभी एक दूसरे पर पांचों विकारों व उनके वंशों के बदरंगों की बौछार कर रहे हैं ।किसी पर काम का रंग चढ़ा है तो किसी पर क्रोध का रंग, कोई लोभ में मदहोश है तो कोई मोह के रंग से रंगा हुआ है।
स्वार्थ, इर्ष्या, द्वेष, घृणा, अमानवीयता, आपराधिक आकर्षण और बेवजह की आवश्यकता के सूक्ष्म बदरंगो से तो कोई बचा ही नहीं है । इन सबके मूल में है देह अभिमान का रंग, जिसके कारण आज हम सबकी आत्मा भी बदरंग हो गयी है ।जबकि आत्मा का वास्तविक गुण रूपी रंग  ज्ञान, शान्ति, प्रेम, सुख, पवित्रता, शक्ति व आनंद का है ,जो कही  छिप सा गया है और उसके ऊपर विकारों का कीचड़ आ जाने से सब उल्टा पुल्टा हो गया है । हम सभी को विकारों के रंग के बजाए आत्मिक रंगों से रंगकर सारे विश्व को आत्ममय बनाना चाहिए । यह आत्मिक रंग एक परमात्मा के सत्संग द्वारा प्राप्त होता है ।
शिव परमात्मा ही नयी दुनिया के स्थापनार्थ कल्प कल्प संगमयुग में अवतरित होकर अपने आत्मा रूपी बच्चों को अपने संग के रंग से रंगकर आप समान पवित्र बना देते हैं ।इसे ही सच्ची होली मनाना भी कहते है। होली मनाने के लिए पहले अपवित्रता व बुराईयो को भस्म करना होगा ।विकार भाव भूलकर पतित से पावन बनकर हमे आपस मे भाई भाई की वृत्ति रखनी होगी तभी हम अविनाशी रंग का अनुभव कर सकेंगे ।
परमपिता परमात्मा शिव ने हमें होली शब्द के तीन अर्थ बताये हैं पहला होली अर्थात्‌ बीती सो बीती, जो हो गया उसकी चिन्ता न करो तथा आगे के लिए जो भी कर्म करो, योगयुक्त होकर करो। दूसरा होली अर्थात्‌ हो गई यानि मैं आत्मा अब ईश्वर अर्पण हो गई, अब जो भी कर्म करना है, वह ईश्वर की मत पर ही करना है। तीसरा होली अर्थात्‌ पवित्रता। हमें जो भी कर्म करने हैं, वे किसी भी विकार के वश होकर नहीं वरन्‌ पवित्र बुद्धि से करने हैं।
होली का त्योहार हिन्दू वर्ष के अंतिम मास फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। जिसे हम सृष्टि चक्र के रूप में भी समझ सकते है।सृष्टि चक्र के दो भाग हैं, ब्रह्मा का दिन और ब्रह्मा की रात्रि। ब्रह्मा का दिन है सतयुग-त्रेतायुग। उस समय सभी देवात्मायें ईश्वरीय रंग में रंगी होती हैं ।लेकिन जब द्वापरयुग आता है और ब्रह्मा की रात्रि का प्रारंभ होता है तो मानवात्मायें  विकारों से ग्रसित हो बदरंग होने लगती हैं। कलियुग के अंत तक तो इतनी बदरंग हो जाती हैं कि अपनी असली पहचान से पूरी तरह दूर चली जाती हैं, तब निराकार परमात्मा शिव धरती पर अवतरित होकर विकारों से बदरंग बनी आत्माओं को अपने संग का रंग लगाते हैं। उन्हें उजला बनाते है।
उनमें ज्ञान, शान्ति, प्रेम, सुख, आनन्द, पवित्रता, शक्ति आदि गुण भरकर देवतुल्य बना देते हैं। चूँकि यह घटना कल्प के अंत में घटती है इसलिए यादगार रूप में होली का त्योहार भी हिन्दू वर्ष के  अंतिम दिन मनाया जाता है। भगवान जब आते हैं तो स्वयं तो ज्ञान-गुणों का रंग आत्माओं पर लगाते  हैं । जिन पर ज्ञान-गुणों का रंग लग जाता है, उन्हें अन्य आत्माओं पर भी यह रंग लगाने की प्रेरणा देते है।  परमात्मा शिव द्वारा ज्ञान के रंग में मनुष्यों को रंगने का कर्त्तव्य केवल एक या दो दिन नहीं, वर्ष भर भी नहीं बल्कि कई वर्षों तक चलता है। ईश्वरीय कर्त्तव्य का यह संपूर्ण काल ही सच्ची होली है।
लेकिन भक्तों द्वारा, कई वर्ष चलने वाले ईश्वरीय कर्त्तव्य की यादगार के रूप में केवल एक या दो दिन गुलाल आदि डालकर, लकड़ियाँ और उपले जलाकर होली मना ली जाती है।होली का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस दिन लोग अपने गिले-शिकवे दूर कर एक दूसरे को गले से लगा लेते हैं और गुलाल, अबीर लगाते हैं। होली का पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। होली से एक दिन पहले होलिका दहन किया जाता है। इस बार होली का पर्व 8 मार्च को मनाया जा रहा और इससे एक दिन पहले यानी सात मार्च को होलिका दहन होगा।
होलिका दहन की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। कहते है, एक समय हिरणकश्यप नाम का असुर था। वह चाहता था कि सब लोग उसे भगवान मानें, लेकिन उसका पुत्र भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जो हिरणकश्यप को पसंद नहीं था। असुर की बहन होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जल सकती, हिरणकश्यप ने अपने पुत्र प्रह्लाद को मारने की इच्छा से होलिका को प्रह्लाद के साथ अग्निकुंड में बैठने को कहा लेकिन प्रह्लाद की भक्ति में इतनी शक्ति थी कि उस अग्नि में होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गए।होलिका दहन का शुभ मुहूर्त  7 मार्च को शाम 6 बजकर 24 मिनट से 8 बजकर 51 मिनट तक है।
यानि होलिका दहन के लिए 2 घंटे 27 मिनट का समय है। इसके साथ ही भद्रा काल का मुहूर्त 6 मार्च 2023 को शाम 4 बजकर 48 मिनट से शुरु होगा और 7 मार्च 2023 को सुबह 5 बजकर 14 मिनट तक रहेगा। इसके बाद ही होलिका दहन के लिए शुभ मुहूर्त शुरू होगा। होलिका दहन से पहले भगवान श्री गणेश का स्मरण करके पूजा की जाती है, फिर उस स्थान को गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया जाता है। पूजा करने वाले व्यक्ति को होलिका के पास पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ मुंह करके बैठना चाहिए।होलिका दहन के लिए लड़कियों को इकट्ठा करके चौराहों पर बसंत पंचमी को रखा जाता है।
जिसे उपलों और पेड़ की सूखी लकड़ियों से ढंक दिया जाता है।होलिका की गेंहूं की सूखी बालियों और मिठाई से पूजा अर्चना की जाती है। इसके बाद होलिका दहन किया जाता है। जो होलिका की अग्नि में सारी बुरी बलाएं जलकर राख हो जाने का प्रतीक हैं।होली पर हिरण्यकश्यप, होलिका तथा प्रह्माद की कथा का भी आध्यात्मिक रहस्य है। जो लोग प्रह्लाद की तरह स्वयं को परमात्मा का पुत्र मानते हैं, उन्हीं से परमात्मा की प्रीत होती है और जो लोग हिरण्यकश्यप की तरह मिथ्या ज्ञान के अभिमानी हैं और स्वयं को भगवान मानते हैं, वे विनाश को प्राप्त होते हैं और होलिका की तरह जो आसुरियता का साथ देते हैं, वे भी विनाश को ही पाते हैं। कहते है कि हिरण्यकश्यप ने वर प्राप्त किया था कि “न मैं दिन में मरूँ, न रात में’, “न अंदर मरूँ, न बाहर’, “न किसी मनुष्य द्वारा मरूँ, न देवता द्वारा’ यह भी संगमयुग की ही बात है। यह संगमयुग अतुलनीय युग है। यह न ब्रह्मा का दिन है और न ब्रह्मा की रात्रि, यह दोनों का संगम है।
यहाँ न मानव हैं, न देव वरन्‌ तपस्वी ब्राह्मण हैं। अत: तपस्या के बल द्वारा मिथ्या ज्ञान के अभिमान और आसुरी वृत्तियों का अंत इसी समय होली के रूप में होता है।होली को ऋतु परिवर्तन के रूप में भी बनाये जाने की परंपरा है।चूंकि इसी समय प्रकृति अपना आवरण भी बदलती है।वही देवभूमि उत्तराखंड में यूं तो होली का रंग खूब जमता है।यहां की प्रसिद्ध बैठी होली बसंत पंचमी के बाद से ही मनानी शुरू हो जाती है।जिसमे होली लोकगीतों के गायन की भी परंपरा है।साथ ही उत्तराखंड में अनेक ऐसे स्थान भी है जहां अपशकुन की आशंका के चलते लोग होली का त्यौहार नही मनाते।उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के तीन गांवों में तो पिछले 374 वर्षों से देवी के प्रकोप के डर से होली नही मनाई जा रही है और न ही अबीर गुलाल नहीं उड़ाया जाता  और न ही किसी पर रंग डाला जाता है।
रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लॉक की तल्ला नागपुर पट्टी के क्वीली, कुरझण और जौंदला गांव में होली का त्योहार मनाया जाना प्रतिबंधित है। तीन शताब्दी पहले जब ये गांव यहां बसे होंगे, तब से आज तक यहां के लोग होली नहीं खेलते है। गांव वालों का मानना है कि मां त्रिपुरा सुंदरी के श्राप की वजह से ग्रामीण होली नहीं मना पाते हैं।गांव वाले मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन मानते हैं।
  चूंकि देवी मां त्रिपुरा सुंदरी को रंग पसंद नहीं है। इसी कारण होली नही मनाई जाती।बताया जाता है कि कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार क्वीली, कुरझण और जौंदला गांवों में आकर बसे गये थे,जिन्होंने 15 पीढ़ियों से यहां के लोगों के साथ अपनी होली न मनाने की परंपरा को कायम रखा हुआ है।स्थानीय लोगो का कहना है कि डेढ़ सौ वर्ष पहले कुछ लोगों ने यहां होली खेली तो गांव में हैजा फैल गया था और कई लोगों की जान चली गयी थी। उसके बाद से दोबारा इन गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया गया। वही उत्तराखंड के कुमाऊं में होली का अलग ही रंग जमता है।
कुमाऊं में होली का त्योहार बसंत पंचमी के दिन से ही शुरू हो जाता है। यहां बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली देश-दुनिया में जानी जाती हैं। घर-घर में बैठकी होली का रंग जमता है लेकिन सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के कई गांवों में होली मनाना आज भी अपशकुन माना जाता है। पिथौरागढ़ जिले की तीन तहसीलों धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट के करीब सौ गांवों में होली नहीं मनाई जाती । यहां के लोग अनहोनी की आशंका से होली खेलने और मनाने से परहेज करते हैं। जिस कारण पिथौरागढ़ जिले में चीन और नेपाल सीमा से लगी तीन तहसीलों में होली का उल्लास गायब रहता है।
इन तहसीलों में होली न मनाने के कारण भी अलग-अलग हैं। मुनस्यारी में होली नहीं मनाने का कारण इस दिन किसी अनहोनी की आशंका रहती है। डीडीहाट के दूनाकोट क्षेत्र में अपशकुन तो धारचूला के गांवों में छिपलाकेदार की पूजा करने वाले होली नहीं मनाते हैं।
धारचूला के रांथी गांव के बुजुर्गों के अनुसार रांथी, जुम्मा, खेला, खेत, स्यांकुरी, गर्गुवा, जम्कू, गलाती सहित अन्य गांव शिव के पावन स्थल छिपलाकेदार में स्थित हैं। स्थानीय लोगो के अनुसार शिव की भूमि पर रंगों का प्रचलन नहीं होने से भी होली न मनाने की परंपरा चली आ रही है। मुनस्यारी के चौना, पापड़ी, मालूपाती, हरकोट, मल्ला घोरपट्टा, तल्ला घोरपट्टा, माणीटुंडी, पैकुटी, फाफा, वादनी सहित कई गांवों में होली नहीं मनाई जाती है। चौना के एक बुजुर्ग  बताते हैं कि होल्यार देवी के प्रसिद्ध भराड़ी मंदिर में वे होली खेलने जा रहे थे। तब सांपों ने उनका रास्ता रोक दिया।
इसके बाद जो भी होली का महंत बनता था या फिर होली गाता था तो उसके परिवार में कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती थी।डीडीहाट के दूनकोट क्षेत्र के ग्रामीण बताते हैं कि अतीत में गांवों में होली मनाने पर कई प्रकार के अपशकुन हुए। पूर्वजों ने उन अपशकुनों को होली से जोड़कर देखा। तब से होली न मनाना परंपरा की तरह हो गया। यहां के ग्रामीण आसपास के गांवों में भी होली के त्योहार में शामिल तक नहीं होते हैं।यानि होली से दूर रहकर सामान्य जीवन व्यतीत करते है।

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