सुशील उपाध्याय ।
देहरादून में सचिवालय के पास ईस्ट कैनाल रोड पर उडुपी कैफे शाम के खालीपन का मुकाबला करने के लिहाज से अच्छी जगह है। ये बात अलग है कि रेट कार्ड ऐसा नहीं कि पुराने इंडियन कैफे या वामपंथी अड्डों की याद दिला सके। चूंकि, मेरी रुचि केवल बैठने में है इसलिए मैन्यू में उपलब्ध सबसे सस्ती चाय का आॅर्डर करने के बाद कोने की एक टेबल पर जम जाता हूं।
इस टेबल पर किनारे की दो कुर्सी खाली हैं, चार लोगों ने पहले से टेबल को बुक कराया हुआ है। इसलिए मैं अपनी कुर्सी और ज्यादा किनारे खिसका लेता हूं ताकि टेबल के मूल-ग्राहकों को कोई परेशानी न हो। सहज उत्सुकता के चलते लगातार बाहर की ओर देखता रहता हूं कि इस टेबल पर कौन आने वाला है। वेटर की रुचि भी मुझ में ज्यादा नहीं है क्योंकि उसे मेरे खर्च की सीमा-रेखा का अनुमान है।
मेरी उत्सुकता जल्द ही हैरत में बदल गई। चार लोगों का परिवार मंथर-गति से टेबल तक पहुंचा और कुर्सियों पर पसर गया। कुर्सियों का आकार इतना बड़ा है कि मेरे जैसा औसत कद-काठी का व्यक्ति न केवल आराम से बैठ सकता है, बल्कि बैठने के बाद कुछ जगह भी बची रह जाती है। लेकिन, आज इन कुर्सियों को अहसास हुआ होगा कि बड़ा आकार क्या होता है।
वजन के मामले में इस पूरे परिवार पर ईश्वरीय-कृपा बरस रही थी। जब इन लोगों ने कुर्सियों के साथ एडजस्ट होने की कोशिश की तो ऐसा लगा कि कुर्सियां दर्द से कराह रही हैं।
यदि इंसानी आंखें वजन मापने की मशीन की तरह काम कर पाती तो इनमें से कोई भी सदस्य 90-100 किलो से कम नहीं था। सब आधुनिक परिधानों में थे। परिवार के मुखिया ने ठंड को धता-बताते हुए हल्के कपड़े पहने हुए थे, पेट का आकार शर्ट के बटनों को चुनौती दे रहा था, लेकिन उस वक्त तक बटन पूरी ताकत के साथ पेट को थामे हुए थे। महिला के पहनावे को देखकर लगा कि शायद ये लोग लंबे समय तक कहीं विदेश में रहे होंगे। वे फरवाला कोट और लंबी स्कर्ट पहने हुए थीं।
उन्होंने मुझे भी एक निगाह देखा, उनके चेहरे पर हल्की-सी नाखुशी नजर आई और अपनी वेल-वर्सड इंग्लिश में वेटर से पूछा कि कहीं और चार लोगों की टेबल खाली नहीं है क्या ताकि टेबल शेयर न करनी पड़ी। कैफे में शाम को भीड़ रहती है इसलिए उनकी मंशा पूरी नहीं हुई।
सच कहूं तो उन चारों लोगों के सामने मैं ऐसा लग रहा था, जैसे कि कुर्सी पर कोई मकोड़ा बैठा हो। वेटर ने आॅर्डर के लिए रिक्वेट की तो वे भद्र लोग बताते गए और वेटर की आंखें हैरत से फैलती गई। चार पनीर डोसा, दो किंग साइज मंचूरियन बाउल, चार काॅपी विद आइसक्रीम…..।
जल्द ही साारा सामान टेबल पर फैल गया। उस वक्त टेबल को अपने आकार पर शर्मिंदगी हुई होगी। दोनों बच्चों ने, (जिनकी उम्र 15-20 के बीच थी और उनके शुभ-आकार को देखते हुए यह पता करना मुश्किल था कि गर्दन कहां से शुरू होकर कहां खत्म हो रही है और चेहरे किस जगह से उभर रहा है) पनीर डोसा के एक-दो कौर खाने के बाद उसे रिजेक्ट कर दिया और नारियल चटनी की क्वालिटी को खराब बताया। बच्चों की मां ने भी उनकी बात को ताईद किया। वेटर को बुलाया गया और खाने की क्वालिटी पर डांटा गया।
वेटर ने क्वालिटी के पक्ष में कई तर्क दिए, लेकिन वे अपनी बात पर अड़े रहे। फिर उन्होंने एक नया आर्डर दिया, तीन बिग साइज बर्गर। बर्गर आने में भी देर नहीं लगी। मां और दोनों बच्चे बर्गर पर टूट पड़े। इस दौरान पुरुष का फोन लगातार बजता रहा और वो बार-बार यही कहता रहा कि बाद में फोन करता हूं। लगातार फोन आने पर महिला काफी नाखुश दिखी और उसने पति की तरफ आंखे तरेर कर देखा। पति ने समझौते के संकेत देते हुए फोन को स्विच आफ कर दिया।
आधा-आधा बर्गर खाने के बाद बच्चों का पेट भर गया, मुझे ऐसा लगा। पुरुष ने फिर वेटर को बुलाया और पूछा, आज स्पेशल क्या है! कुछ देर पहले ही गाजर के हलवे की परात (गोल आकार की बड़ी ट्रै) को मैंने भी देखा था। वेटर ने बताया, आज गाजर हलवा विद ड्राई फ्रूट्स स्पेशल है। पुरुष ने उंगलियों से इशारा किया कि चार प्लेट ले आओ। गरमा-गरम हलवा भी आ गया।
इस दौरान मेरी चाय ठंडी हो चुकी थी, लेकिन मेरा मन इस दिव्य परिवार के साथ रमा हुआ था। हलवा खत्म हो पाता इससे पहले ही इन लोगों ने चलने का निर्णय ले लिया। सबसे पहले महिला उठी, पर्स कार्ड निकाला और वेटर को कार्ड पेमेंट वाली मशीन लेकर आने को कहा। संभवतः वेटर को निराशा हुई होगी क्योंकि मशीनी-पेमेंट में शायद ही टिप जोड़ी जाती हो। पुरुष और दोनों बच्चे भी मेज का सहारा लेकर खड़े हो गए।
अच्छा-खासा भुगतान करने वाले ग्राहकों को कैफे मैनेजर भी अच्छी निगाह से देखते हैं। इस खानदान को विदाई देने का दायित्व खुद मैनेजर ने निभाया।
वो गेट तक गया और इनसे चीकू के पेड्, जिस पर कुछ चीकू भी लगे थे, के साथ फोटो खिंचवाने का आग्रह किया। ये लोग फोटो खिंचवा रहे थे और मैं उस मेज के एक किनारे पर बैठा हुआ था जो छोड़े गए खाने से पूरी तरह भरी हुई थी। पनीर डोसा, काॅपी विद क्रीम, किंग साइज मंचूरियन बाउल, बिग साइज बर्गर और हलवे की प्लेटें। सब कुछ वहीं था। इतना खाना बचा था कि उसे चार नहीं, बल्कि आठ लोग भी शायद ही खा पाते।
पिछले दिनों यू-ट्यूब पर देखा गया एक वीडियो याद आ गया, जिसमें बाड़े में बंद पिल्लों को खाने के लिए बाहर निकाला जाता है तो दो पिल्ले इस कदर खाने पर टूट पड़ते हैं कि वे अपनी प्लेट खाली होने से पहले ही दूसरी, तीसरी और चैथी प्लेट पर पहुंच जाते हैं। इस दौरान केवल खाना ही बर्बाद नहीं होता, बल्कि कुछ पिल्ले भूखे भी रह जाते हैं। हालांकि, किसी भी इंसान की तुलना जानवर से नहीं की जा सकती और न ही किसी की शारीरिक आकृति-प्रकृति को हंसी का आधार बनाया जा सकता, लेकिन…। और ये लेकिन शब्द बहुत बड़ा हो जाता है। मैं उन लोगों को कार में बैठता देख रहा हूं और सोच रहा हूं कि इस तरह के कैफे में ठंडी चाय को दोबारा गर्म करने की व्यवस्था भी होनी चाहिए।