सुशील उपाध्याय
भाषा का कोई भी दिग्गज और व्याकरण का माहिर व्यक्ति भाषा की गति और स्वयं को परिवर्तित करने की उसकी प्रकृति को नहीं रोक नहीं सकता। यह बात सभी भाषाओं पर समान रूप से लागू होती है और यदि कोई रोक सकता होता तो हिंदी से दीनानाथ शब्द को बाहर निकालना पड़ेगा। इस शब्द का अर्थ है, दीन-दुखियों का नाथ अर्थात ईश्वर। लेकिन संधि-विच्छेद करके देखिए तो कुछ और ही अर्थ निकलेगा। तब दीन और नाथ के स्थान पर दीन और अनाथ शब्द सामने होंगे।
यानि अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। पर, अब दीनानाथ किसी को नहीं अखरता। इसलिए नहीं अखरता क्योंकि इस शब्द का अर्थ तो पुराना ही रहा, लेकिन इसने नया रूप धर लिया है। इसने ही क्यों हिंदी में ऐसे अनेक शब्द हैं। विश्वामित्र को ही ले लीजिए। पुराने लोग कहेंगे इसका अर्थ-विश्व का अमित्र यानी दुनिया का दुश्मन है, लेकिन हम सब इसे विश्वमित्र के तौर पर ही स्वीकार करते हैं।
भले ही भारत में विश्वमित्र अखबार छपता हो, लेकिन ऋषि का नाम विश्वामित्र ही प्रचलित है।हिंदी ने बहुत कुछ संस्कृत से पाया है। वहीं से तीनों गुण भी आए हैं जो हिंदी ने सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण के रूप में स्वीकार किए हैं। अब इन पर संस्कृत व्याकरण लागू कर दीजिए तो तीनों शब्द निरर्थक हो जाएंगे और इन्हें सही साबित करना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे शब्दों की सूची बहुत लंबी है।
हिंदी में खूब लिखापढ़ी होती है, लेकिन यहां क्रियाओं को गौर से देखिए तो यह शब्द लिखपढ़ी होना चाहिए। इसी लिहाज से आवागमन भी गलत है, इसका शुद्ध रूप भी आवगमन है, लेकिन हिंदी न लिखपढ़ी को मानती है और न ही आवगमन को। ये ही स्थिति आवाजाही की है। शुद्ध रूप भले ही आवजाही हो, लेकिन अब किसी को उस शद्ध रूप् की फिक्र नहीं है। यहां तो आवाजाही, लिखापढ़ी और आवागमन ही धड़ल्ले से चलते हैं।
जब बारिश का समय होता है तो मूसलाधार और मूसलधार भी भिड़ जाते हैं। दो वर्ग बन जाते हैं-एक कहता है कि मूसलधार ठीक और दूसरा मानता है कि मूसलाधार ठीक है। बात ये है कि जिसे संस्कृत सही मानती हो तो ये जरूरी नहीं कि वो हिंदी में भी वैसा ही रहेगा। हिंदी के पाणिनि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने इस क्रम में एक सूत्र दिया है।
वे कहते हैं कि हिंदी में पूर्व धातु के अन्त्य स्वर को दीर्घता प्राप्त होती है। इसी आधार पर उपुर्यक्त सभी शब्द पूरी तरह सही हैं। इसी पैमाने पर सत्यानाश और अनापेक्षित शब्द को भी सही माना गया है अन्यथा व्याकरण की दृष्टि से तो इन दोनों को भी गलत ही होना चाहिए।
इन सभी उदाहरणों से इतना ही पता चलता है कि भाषा के विकास के मामले में व्याकरण एक सीमा तक ही अपनी भूमिका निभाता है। ऐसा कई बार होता है, जब भाषा व्याकरण की सीमाओं से आगे जाकर विकास करती है। हिंदी के संदर्भ में उस वक्त चुनौती पैदा होती है जब कुछ लोग उसे संस्कृत व्याकरण के लिहाज से मूल्यांकित करते हैं।
जबकि ऐसा जरूरी नहीं कि एक परंपरा में विकसित हुई भाषा अपनी पूर्ववर्ती भाषा के अनुरूप ही हो। यदि ऐसा हो तो पुष्करणी शब्द कभी पोखर न बनता और इसी से पोखरा और पोखरी वजूद में न आते। यानि ये ऐसा क्रम है जो सतत रूप से गतिमान रहता है।
संस्कृत में अनेक ऐसे शब्द हैं जो हिंदी में भिन्न रूप और भिन्न अर्थ में प्रयुक्त किए जा रहे हैं। मसलन, संस्कृत में विस्तर और विस्तार, दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है, लेकिन विस्तार यानी फैलाव के लिए हिंदी ने विस्तर की जगह पर विस्तार ही स्वीकार किया है। भाषा के मामले में पीछे लौटकर जाने जैसा कुछ नहीं होता। यदि कोई जबरन विस्तर के प्रयोग पर अड़ जाए तो यह संभव है कि इस शब्द को बिस्तर सुना जाए।
जब भी भाषा की बात होती तो राजनीति जरूर घुस आएगी और अब इसी का झगड़ा मचा हुआ है कि सही शब्द राजनीतिक है या राजनैतिक। संस्कृत वाले कहते हैं कि राजनीतिक सही है, राजनैतिक गलत है।
उनका तर्क है कि संस्कृत में नीति शब्द में इक प्रत्यय लगने के बाद नैतिक विशेषण बना है, पर राजनीति का राजनीतिक बनेगा। लेकिन, हिंदी में राजनैतिक चल निकला है। अब कोई इसका संधि-विच्छेद करके और इक प्रत्यय को अलग खड़ा करके अर्थ का निर्वचन करना चाहे तो फिर अनर्थ की काफी आशंका रहेगी।
दैनिक प्रयोग में आने वाले उन शब्दों को लेकर भी काफी दुविधा की स्थिति रहती है जिनमें दो बार आधे त व्यंजन का प्रयोग किया जाता है। जैसे-महत्त्व, तत्त्व, सत्त्व आदि। ये संस्कृत से आए तत्सम हैं, लेकिन हिंदी तद्रूपों अर्थात तद्भवों का खूब प्रयोग करती है। अतः इन्हें महत्व, तत्व, सत्व करने में कोई बुराई नहीं है।
मूल बात यह है कि इनका अर्थ सहजता से समझा और ग्रहण किया जा रहा है इसलिए बदले रूप को गलत बताना ठीक नहीं है। शुरू में इस शब्द के लिखे जाने को लेकर कंप्यूटर भी परेशानी में था, अब कंप्यूटर ये शब्द उपलब्ध करा दिया है, लेकिन बीते 20-25 साल में इसका प्रयोग लोगों के अभ्यास से बाहर हो गया। इसलिए अब महत्त्व, तत्त्व, सत्त्व बेगाने लगते हैं।