दो ध्रुवों में बंट जाएगी दुनिया, रूस-यूक्रेन जंग से बढ़ेगा चीन का जलवा!
आर्थिक तौर पर गंभीर नुकसान के अंदेशे के बावजूद रूस का अभियान जारी
- अमेरिका और यूरोपीय देशों की सर्वोच्चता की छवि को भी पहुंच रहा नुकसान
आलोक भदौरिया
नई दिल्ली।रूसकी यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई दुनिया में बहुत कुछ बदल देगी। इतिहास गवाह है कि अपने को सुपर पॉवर समझने वाले देश कभी भी घोषित उद्देश्य पाने में कामयाब नहीं हो सके हैं। दूसरे शब्दों में महाशक्ति कहलाने वाले देश जंग में छोटे देशों को निर्णायक तौर पर हराने में सफल नहीं हुए हैं।
भले ही जंग किसी भी बहाने से लड़ी क्यों न जा रही हो। लंबी खिंचती लड़ाई रूस को नि:संदेह आर्थिक तौर पर गंभीर चोट पहुंचाने वाली है। लेकिन, क्या यही हालात दुनिया की दूसरी बड़ी आर्थिक ताकत चीन को अपने राजनीतिक रसूख को अमेरिका के समकक्ष खड़ा करने में सहायक नहीं होंगे?
विश्व युद्ध के बाद दुनिया दो ध्रुवीय हो चुकी थी। अमेरिका की छतरी के नीचे सभी लोकतांत्रिक देश इकट्ठे हो गए थे। साम्यवाद के समर्थक देश सोवियत संघ के साथी बन गए थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस की राजनीतिक हैसियत कम हो गई थी। आर्थिक ताकत तो कतई नहीं बची थी।
सैन्य ताकत के तौर पर वह दूसरी महाशक्ति जरूर था। लेकिन, इतिहास के पन्नों को पलटने पर यह पता चलता है कि दुनिया में पिछले दशकों में जितने भी युद्ध हुए कमोबेश सभी में बड़ी शक्ति माने जाने वाले देश छोटे देश को हराने में सफल नहीं हो सके हैं।
अफगानिस्तान में अमेरिका आतंकवाद के खात्मे के नाम पर घुसा। तालिबानी सत्ता को जरूर कुछ समय के लिए बेदखल किया। पर, अंतत: आनन-फानन में अफगानिस्तान छोड़ गया। यहां तक कि अपने सैन्य साजोसामान भी छोड़ कर चला गया। तालिबानी हुकूमत फिर से वहां आ गई। इतनी तेजी से सत्ता पर काबिज हुई कि खुद अमेरिका को भी इसका अंदाज नहीं लगा। हवाई जहाज में चढ़ने की कोशिश में लोगों के आकाश से गिरने की तस्वीर लोग भुला नहीं सकते हैं।
चाहे इराक पर हमला हो या वियतनाम की लड़ाई, अमेरिका को मुंह की खानी पड़ी। सीरिया में तो अमेरिका खुद ही पीछे हट गया था। बयानों से ज्यादा कुछ नहीं किया। अलबत्ता सीरिया में गृहयुद्ध के हालात अर्से से बने हुए हैं। अफगानिस्तान में तो सोवियत संघ के हाथ जल चुके थे। माना जाता है कि उसकी आर्थिक हालात जर्जर होने और विघटन में अफगानिस्तान पर कब्जे की कार्रवाई अहम वजह थी।
तो क्या रूस ऐसी गलती फिर से दोहराने जा रहा है? क्या राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का होमवर्क गलत हो गया? जितने समय में उसे यूक्रेन से समर्पण की उम्मीद थी वह गणना गलत साबित हो गई। रूस के पास अब क्या रास्ते बचे हैं?
रूस ने शुरूआती दौर में ही पश्चिम देशों को आगाह किया था कि वह न्यूक्लीयर युद्ध से पीछे नहीं हटेगा। उसने अमेरिकी अगुवाई वाले नाटो देशों से ऐसे हमले की आशंका के मद्देनजर अपनी सेना को इसका जवाब देने के लिए सतर्क कर दिया था। यह पेशबंदी उसके काम आई। नाटो देशों को वैसे भी यूक्रेन के पक्ष में युद्ध में नहीं उतरना था। क्योंकि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं था। यूरोपीय देशों ने हालांकि उसे सैन्य साजो सामान जरूर उपलब्ध कराया। अमेरिका ने तो स्टिंगर मिसाइलें भी दे दीं।
जाहिर है यह लंबे युद्ध की पश्चिमी देशों की तैयारी थी। वैसा ही हो भी रहा है। लेकिन, यूक्रेन की नाटो में शामिल होने की मंशा हसरत ही रह गई। राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की का बयान हताशा दशार्ता है। उन्होंने नाटो से साफ करने को कहा है कि यूक्रेन को शामिल करेंगे कि नहीं।
जहां तक रूस की बात है तो उसने हाइपरसोनिक मिसाइल किंझल से हमला किया है। यह आवाज से बीस गुना तेज गति से चलती है। अभी तो पारंपरिक हथियार से ही हमला कर भूमिगत शस्त्रागार को तबाह कर दिया है। यूरोपीय देशों से मिले हथियार यहां रखे गए थे। काबिलेगौर है कि इस हाइपरसोनिक मिसाइल से परमाणु बम भी दागे जा सकते हैं। शायद यही वजह है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश खुलकर यूक्रेन का साथ देने से कतरा रहे हैं।
अलबत्ता, अमेरिका और मित्र देश दुनिया को बताना चाहते हैं कि रूस को इस कार्रवाई के गंभीर नतीजे भुगतने पडे़ंगे। रूस पर आनन-फानन में आर्थिक प्रतिबंध को घोषणा कर दी गई। उसे बैंकिंग लेनदेन की स्विफ्ट प्रणाली से बाहर कर दिया गया। कई अमेरिकी कंपनियों के रूस की कंपनियों के साथ व्यापार करने पर रोक है। इन सबकी दिक्कत यह है कि एक ओर तो रूस को सख्त संदेश देना चाहते हैं, साथ ही नैतिकता की दुहाई भी देना चाहते हैं। यह धर्मसंकट अमेरिका और यूरोपीय देशों की सर्वोच्चता की छवि को नुकसान पहुंचा रहा है।
लेकिन, रूस के लिए भी इन हालात को लंबा खींचना संभव नहीं है। यदि पश्चिमी मीडिया की बातों पर आंख बंद कर यकीन करें तो रूस को प्रतिरोध के कारण हजारों सैनिकों की जान गंवानी पड़ रही है। इससे बड़ी समस्या मजबूत सैन्य ताकत होने की यानी महाशक्ति होने की छवि को चुनौती मिलना भी है। अपने से बहुत कमजोर छोटे देश पर हमला आकार में छोटे कई देशों के लिए परेशानी का सबब बन रहा है। हाइपरसोनिक कींझल का इस्तेमाल यही हताशा दशार्ता है।
दुविधा यही है कि यह स्थितियां लंबी चलती हैं तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन कब तक बड़े मारक हथियार न चलाने के सब्र पर कायम रह सकेंगे?इस सबके बावजूद इस मौके पर पुतिन से न्यूक्लीयर बम या इसके समकक्ष हथियार चलाने की बचकानेपन की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। याद रखें कि सीरिया में गृहयुद्ध के दौरान एक रूसी बमवर्षक विमान को तुर्की ने उड़ा दिया था।
तब वह तुर्की एयरस्पेस के ऊपर से गुजर रहा था। लेकिन, रूस ने तुर्की पर कोई कार्रवाई नहीं की। सिर्फ बयान भर देकर चुप बठ गया। इसकी वजह तुर्की से ठन जाने पर रूस का अधिकांश व्यापार ठप हो जाने की संभावना थी।
दरअसल, तुर्की का बोस्फोरस खाड़ी पर नियंत्रण है। 31 किलोमीटर लंबी इस खाड़ी से सालाना कोई पचास हजार मालवाहक पानी के जहाज गुजरते हैं। यूं कहें कि दुनिया की सबसे व्यस्त संकरी खाड़ी है। तुर्की चाहे तो इससे मालवाहक जहाजों के गुजरने पर रोक लगा सकता है।
इसका अर्थ होगा कि रूस की नौसेना भी बगैर मंजूरी यहां से निकल नहीं सकती है। यही रूस की बड़ी चिंता है। क्योंकि उसके पास जो समुद्र हैं वह बफीर्ले हैं। सिर्फ इसी रास्ते से ही उसके लिए व्यापार करना मुमकिन है।
रूस पर प्रतिबंध के मामले में चीन खुलकर उसका साथ दे रहा है। उसने दो टूक कह दिया है कि यह रोक गलत है। अंतरराष्ट्रीय नियमों के खिलाफ है। चीन रूस के साथ पहले की भांति व्यापार करता रहेगा। यह स्थिति नि:संदेह प्रतिबंधों के बरअक्स अमेरिका की सत्ता को चुनौती देने वाली है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौर में भी दोनों देशों ने कई मामलों में एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिबंध लगाए थे।
यहां यह सवाल उठता है कि रूस यदि प्रतिबंधों के कारण आर्थिक तौर पर बदहाली का शिकार होता है तो अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए उसे चीन के साथ व्यापारिक रिश्ते और मजबूत करने होंगे। चीन और रूस दोनों बैंकिंग लेनदेन की अपनी खुद की प्रणाली लाने की तैयारी कर रहे हैं। रूस ने 2014 में क्रीमिया पर कब्जे के बाद से इस पर काम शुरू कर दिया था।
चीन जिस तरह से दुनिया पर अपना प्रभाव फैला रहा है, उसके लिए यह मुफीद हालात हैं। तो क्या महज चीन के सहारे अपनी नैया कब तक रूस चला सकेगा? क्या वह चीन का जूनियर पार्टनर नहीं बन जाएगा? क्या यह स्थिति रूस को कबूल होगी? और होगी तो कब तक?
इन सवालों का जवाब तो भविष्य के गर्भ में है। इतना जरूर तय है कि अपनी इस कूटनीतिक चाल के कारण चीन अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी उपस्थिति मजबूत तरीके से दिखा रहा है। वैसे इसकी कोशिश वह अर्से से कर रहा है। याद करें कि कोरोना महामारी के दौरान चीन ने न सिर्फ अपने लोगों के लिए, बल्कि दुनिया के कई देशों में इसका टीका मुहैया कराया था। तब अमेरिका, यूरोपीय देशों और ब्रिटेन ने सिर्फ अपने देशवासियों को ही टीका मुहैया कराया था। अफ्रीका समेत कई देशों में लोगों को एक भी टीका नहीं मिल पाया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कहा था कि गरीब देशों को भी टीका मुहैया कराए बगैर इस महामारी से निजात नहीं मिलने वाली है। टीकाकरण शुरू होने के काफी समय बाद अन्य देशों को इसे मुहैया कराया गया था।
जहां तक भारत का सवाल है। अमेरिका और मित्र देशों का दबाव बढ़ रहा है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भारत से असमंजस की स्थिति से जल्द बाहर निकलने की अपील की है। जल्द ही संयुक्त राष्ट्र महासभा, सुरक्षा परिषद और मानवाधिकार परिषद की बैठक होनी है। पिछली दफा तो भारत ने अपना मत नहीं दिया था। लेकिन यह स्थिति लंबे वक्त तक नहीं चलने वाली है।
हाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा की रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पर 193 में से 141 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया था। 35 देश अनुपस्थित रहे थे। इस बार फ्रांस और मैक्सिको संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार को लेकर प्रस्ताव लाने वाले हैं। दक्षिण अफ्रीका भी प्रस्ताव ला रहा है। क्या भारत अब भी किसी भी धड़े में शामिल नहीं होगा? यह भारत के कूटनीतिक कौशल की अग्निपरीक्षा की घड़ी है। भारत की रूसी सैनिक साजो सामान पर निर्भरता कोई 49 फीसद तक है। चीन की सीमा पर चुनौती के मद्देनजर रूस से किनारा करना व्यावहारिक नहीं होगा।
बहरहाल, हालात तमाम देशों को दो पक्षों में बांट रहे हैं। जर्मनी और जापान अपनी रक्षा प्रणाली मजबूत करने में जुट गए हैं। स्विट्जरलैंड, स्वीडन जैसे देश भी तटस्थता का रुख छोड़ रहे हैं। यूक्रेन पर रूस को खुल कर समर्थन क्या ताइवान पर चीन की नजर टेढ़ी होने का बायस बनेगा?
क्या शीत युद्ध काल की वापसी हो रही है? यही सवाल है जो सबको परेशान कर रहा है। क्या दुनिया फिर से दो ध्रुवीय हो जाएगी? दुनिया में बनने जा रहे नए वर्ल्ड आॅर्डर की आहट साफ सुनी जा रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी कहने लगे, नया वर्ल्ड आॅर्डर बन रहा है। अमेरिका को इसे नेतृत्व देना है। तो तय मानिए कि रूस भले ही कुछ पाकर यानी अपनी मनमाफिक सत्ता यूक्रेन में बिठाकर अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश करे। लेकिन मामला यहां रुकने वाला नहीं है।
यूक्रेन के पड़ोसी स्लोवाकिया में अमेरिकी पट्रियट मिसाइलें सुरक्षा के लिए तैनात की जा रही हैं। पोलंड में जाकर जिस तरह से जो बाइडेन मानवाधिकार पर चर्चा करने वाले हैं, नाटो देशों की सैनिकों की तादाद वहां बढ़ाई जा रही है, खतरे का साफ संकेत है। बाइडेन का रूस द्वारा बॉयोलॉजिकल और केमिकल हमले का अंदेशा जताना कहीं तीसरे युद्ध की आहट का संकेत तो नहीं है? चीन ने अपने पत्ते खोल दिए हैं। अमेरिका अब अपने पत्ते खोलने शुरू कर रहा है। क्या दादागिरी साबित करने का वक्त आ गया है? क्या दुनिया वाकई बदल जाएगी ?
तेल का खेल, डॉलर को चुनौती
रूस पर आर्थिक प्रतिबंध भी अमेरिका आधे-अधूरे मन से लागू कर रहा है। प्रतिबंधों के मामले में यूरोपीय देश भी एकमत नहीं हैं। स्विफ्ट बैंकिंग प्रणाली से भले ही रूस को बाहर कर दिया गया हो, तेल के आयात के मामले में उतनी सख्ती नहीं बरती जा रही है। जर्मनी ने साफ कह दिया है कि उसकी प्राकृतिक गैस की निर्भरता रूस पर है। इसे आसानी से एकबारगी नहीं बदला जा सकता है।
यूरोपीय देशों की तेल और प्राकृतिक गैस की चालीस फीसदी जरूरतें रूस पूरी करता है। जर्मनी ने बन रही नार्डस्ट्रीम-2 गैस पाइपलाइन पर तो रोक लगा दी है। लेकिन, नॉर्डस्ट्रॉम-1 से सप्लाई जारी है। ब्रिटेन ने भी साफ कर दिया है कि साल के अंत तक ही रूस से ईंधन का आयात क्रमश: खत्म किया जा सकता है। चीन को रूस की गैस और तेल की सप्लाई चालू है।
चीन की मंशा है कि अमेरिकी प्रतिबंधों के मद्देनजर रूबल और युआन में भुगतान शुरू कर दिया जाए। अमेरिकी डॉलर के स्थान पर चीन की अपनी युआन मुद्रा को स्थापित करने की यह गंभीर कोशिश है। चीन खाड़ी देशों में भी युआन और संबंधित देश की मुद्रा में लेन-देन की कोशिश में जुटा है। भारत ने भी रूस से तीस लाख टन बैरल के आयात की तैयारी कर ली है।
हालांकि, यह देश की कुल जरूरत की महज एक दिन की मात्रा है। इसमें बढ़ोतरी की तैयारी है। भारत के लिए फायदे की बात है कि यह भी डॉलर की बनिस्पत रूबल और रुपए में लेनदेन होगा। इसके अलावा बीस फीसदी की भारी छूट और परिवहन, इंश्योरेंस की जिम्मेदारी रूस की होगी। पहले भी रूबल और रुपये में व्यापार होता आ रहा है।
दरअसल, रूस की तेल की सप्लाई में हिस्सेदारी कोई 13 फीसद है। इसकी भरपाई कैसे होगी, कौन करेगा? माना जा रहा था कि ईरान पर से प्रतिबंध हटने के बाद क्रूड की सप्लाई बढ़ जाएगी। लेकिन, इसमें छह से आठ माह लगने हैं। तो क्या अमेरिका सप्लाई बढ़ाएगा? भारत के लिए अमेरिकी तेल का आयात लॉजिस्टिक खर्च ज्यादा होने के कारण महंगा होता है।जहां तक डॉलर के मुकाबले चीन की युआन को कई देशों में व्यापार की करेंसी बनाने की बात है तो दो ध्रुवीय दुनिया में डॉलर को गंभीर चुनौती तय है।