- विपक्ष हवा बनाता रहा, भाजपा ने जमीन बनाई
- मोदी के राशन और योगी के प्रशासन ने ढहाया जातीय गणित
उमेश चतुवेर्दी
नई दिल्ली।उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने एक वर्ग को चौंकाया है। लेकिन जिनकी नजर सियासी सतह पर थी, उन्हें योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में बीजेपी की जीत पर कोई संशय नहीं था। इन चुनाव नतीजों ने राजनीति में बीजेपी को केंद्रीय तत्व के रूप में स्थापित कर दिया है। समाजवादी विचारक रजनी कोठारी कांग्रेसी वर्चस्व के दौर में शासन की कांग्रेसी अवधारणा की बात करते थे।
उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में बीजेपी की वापसी के बाद कहा जा सकता है कि जनता ने अब शासन की बीजेपी वाली अवधारणा को स्वीकार कर लिया है। राजनीतिक पंडितों को इस जीत को इस संदर्भ में भी देखना होगा।
कानून व्यवस्था की भूमिका
बीजेपी की शासन की इस अवधारणा को बल मिला है कानून व्यवस्था को सुधारने की दिशा में उठाए गए कदमों से। नोएडा और गाजियाबाद राजधानी दिल्ली से सटे हुए हैं। कुछ साल पहले तक यहां कानून व्यवस्था बेहद खराब होती थी। क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के हिसाब से गाजियाबाद आपराधिक ग्राफ के मामले में नंबर वन बना रहता था। लेकिन योगी राज में उत्तर प्रदेश के लिए यह अवधारणा बदली है।
इसका असर यह है कि नोएडा-गाजियाबाद तक के लोग कई बार दिल्ली की कानून व्यवस्था की तुलना में अपनी कानून व्यवस्था को बेहतर बताते नहीं थकते। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छिनतई और लूटपाट की घटनाओं के चलते एक दौर में रात को गुजरने वाली बसों को भी बेड़े में भेजा जाता था। महिलाएं चाहे गांव की हों या शहर की, गहने पहन बाहर निकलने से हिचकती थीं।
लेकिन योगी के शासन के दौरान इस स्थिति में बदलाव आया। महिलाएं चूंकि पहले की तुलना में निर्भय हुईं, जब उन्हें मौका मिला उन्होंने ईवीएम मशीनों पर कमल का बटन दबाकर आभार जताया। हाल के कुछ वर्षों में महिलाएं अपनी स्वतंत्र राजनीतिक सोच रखने लगी हैं।
जाति और धर्म आधारित उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई जातियों के बारे में मान लिया जाता है कि वे फलां पार्टी की ही समर्थक हैं। लेकिन महिलाओं ने अपनी जातीय पृष्ठभूमि की अवधारणा के खिलाफ मतदान किया है। इसकी बड़ी वजह कानून व्यवस्था में आया बदलाव है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने जो शासन का मॉडल प्रस्तुत किया, उसमें तमाम कल्याणकारी योजनाएं भी सामने आईं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत राज्य में पैंतालीस लाख मकान दिए गए।
अगर औसतन एक परिवार में छह लोगों के ही हिसाब से देखें तो मकानों के लाभार्थियों की संख्या दो करोड़ सत्तर लाख बैठती है। कोरोना के दौरान देशभर से मजदूरों की जो वापसी हुई, उनमें सबसे ज्यादा लोग इसी इलाके के थे। उनके सामने घर वापसी के बाद खाने-पीने की बड़ी समस्या थी।
लेकिन यहां रहने वाली महिलाओं के जनधन खाते में सरकार की ओर से पैसे मिले, लोगों को लगातार मुफ्त राशन मिला।
इसकी वजह से लोगों की जिंदगी की दुश्वारियां काबू में रहीं। लाभार्थी वर्ग बीजेपी के लिए बड़े वोट बैंक के रूप में उभरा।बीजेपी का हिंदुत्व का एजेंडा छुपी हुई बात नहीं है। विपक्षी दलों की ओर से कभी सांप्रदायिकता के उभार के प्रतीक के तौर पर इसकी आलोचना की जाती है तो कभी दूसरे मुद्दों से ध्यान भटकाने के नाम पर। लेकिन यह मुद्दा भी खूब दौड़ा। काशी, मथुरा, अयोध्या जैसे धार्मिक स्थलों पर बीजेपी की जीत के पीछे इसे ही बड़ा कारक माना जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में दो जिले गाजीपुर और आजमगढ़ ऐसे हैं, जहां बीजेपी का खाता भी नहीं खुला। लेकिन गोरखपुर मंडल में पार्टी की जैसे लहर चली। योगी आदित्यनाथ इसी इलाके से आते हैं। वीर बहादुर सिंह के बाद गोरखपुर को योगी के रूप में अपने बीच का दूसरा मुख्यमंत्री मिला। इसमें शक नहीं कि उत्तर प्रदेश में पश्चिमी इलाकों में तीन कृषि कानूनों से उपजे किसान आंदोलन का असर था। लेकिन नानक जयंती के दिन प्रधानमंत्री ने तीनों कानूनों को वापस ले लिया।
इसके बाद भी आंदोलन जारी रहा जिसे किसानों ने उचित नहीं माना। रही-सही कसर गन्ना किसानों के बकाये के दस हजार करोड़ के भुगतान ने पूरी कर दी। इसका असर यह हुआ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुकसान होने की जो आशंका थी, वह समाप्त हो गई। 2014 के बाद से बीजेपी लगातार सारे चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ती रही है। लेकिन उत्तर प्रदेश पहला चुनाव रहा, जहां मोदी के साथ योगी का भी चेहरा पार्टी ने आगे किया।
मुस्लिम समुदाय ने थोक के तौर पर समाजवादी पार्टी का समर्थन किया। बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवारों पर मुस्लिम समुदाय ने भरोसा नहीं किया। बीएसपी के पास अपना कैडर वोट बैंक रहा है। लेकिन इस बार वह भी धराशायी हो गया। उसका एक हिस्सा बीजेपी के साथ लाभार्थी समुदाय के रूप में जुड़ गया तो दूसरा हिस्सा समाजवादी पार्टी के पास चला गया। अखिलेश के 2012 से 2017 के कार्यकाल के कानून व्यवस्था की दुर्गति का मसला चुनाव प्रचार के दौरान छाया रहा।
अखिलेश लोगों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहे कि अगर उनकी वापसी हुई तो दोबारा ऐसा नहीं होगा। उन्होंने सार्वजनिक मंचों से जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, उनके समर्थकों की भाषा जिस तरह आक्रामक हुई, उसने मतदाताओं को आशंकित ही किया।
जाति-धर्म के मुद्दे
उत्तर प्रदेश में चाहे हाथरस का मामला हो या उन्नाव और लखीमपुर खीरी का, हर बार प्रियंका गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ही विपक्ष की भूमिका निभाती नजर आई। लेकिन कांग्रेस को तीन प्रतिशत से भी कम मत मिले। दूसरी तरफ तकरीबन चार साल विपक्षी भूमिका से गायब रहे अखिलेश बीजेपी की चुनौती बनकर उभरे। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों ने यह भी संकेत दिए हैं कि विकास पर भी राजनीति हो सकती है।
लोकतंत्र के लिए यही बेहतर स्थिति होती है। लेकिन ऐसा विकास की राजनीति को भी जाति-धर्म का सहारा लेना ही पड़ता है। ऐसे में लगता नहीं कि जाति और धर्म केंद्रित राजनीति से जल्दी पीछा छूटने वाला है।