क्या इस बार चलेगा चुनाव हारने पर कमान न मिलने का मिथक

देहरादून। कई मिथकों को धराशायी करने वाले इस बार के चुनाव के बाद क्या इस बार में चुनाव हारने पर सत्ता की कुर्सी से दूर हो जाने मिथक चलेगा। दरअसल, 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद से अब तक के चुनावी इतिहास ने एक मिथक सा गढ़ दिया है कि कोई भी पार्टी जिसे भी सीएम का चेहरा बनाती या वह इस कुर्सी के लिए प्रबल दावेदार माना जाता है वह चुनाव हार जाता है और सत्ता से दूर हो जाता है।

इस बार भी भाजपा ऐसे ही हालात से दो चार है। इस बार भाजपा ने पुष्कर सिंह धामी को सीएम चेहरा घोषित किया था। पर वह खटीमा से चुनाव हार गए हैं। उधर कांग्रेस के स्वयंभू सीएम चेहरा हरीश रावत खुद भी चुनाव हार गए और उनकी पार्टी भी । अब देखना है कि भाजपा आलाकमान अपना पुराना रुख अपनाए रखता है या कोई नया फैसला लेता है।
वैसे बता दें कि 2017 में कांग्रेस ने उनके चेहरे पर चुनाव लड़ा। चुनाव में हरीश रावत दो सीटों से लड़े और दोनो से बुरी तरह हार गए। कांग्रेस की दुर्गति हुई और वह 11 सीट पर सिमट गई। दिलचस्प बात है कि उस वक्त अजय भट्ट भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष दोनो एक साथ थे तो सीएम की कुर्सी के स्वाभाविक दावेदार थे उनकी पार्टी को 57 सीटों का प्रचंड बहुमत मिला मगर वह खुद रानीखेत से चुनाव हार गए। नतीजतन त्रिवेंद्र के हाथ सत्ता लगी।

सूबे के चुनावी इतिहास को देखें तो 2002 में भाजपा ने भगत सिंह कोश्यारी को आगे रखकर चुनाव लड़ा जबकि कांग्रेस ने बिना चेहरे के। कांग्रेस को कामयाबी मिली। कोश्यारी चुनाव जीते मगर सीएम की कुर्सी से वंचित हो गए। चुनाव बाद नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बन गए । 2007 में कांग्रेस के पास तिवारी बड़ा चेहरा थे।

 

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