- पिछले कुछ वर्षों में भाजपा को बांड राशि सर्वाधिक बढ़ी
चाणक्य मंत्र ब्यूरो
नई दिल्ली।केन्द्रीय चुनाव आयोग ने इस बार के विधान सभा चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की चुनाव खर्च सीमा 30 लाख 80 हजार से बढ़ाकर अब 40 लाख रूपये तय की है। 2017 के विधान सभा चुनाव में यह 28 लाख रुपये थे जिसमें बाद में आयोग ने दस प्रतिशत की बढ़ोतरी करके इसे 30 लाख 80 हजार रुपये कर दिया था।
अब इसे बढ़ाकर 40 लाख रुपये कर दिया गया है।बताया जा रहा है कि कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए ये सीमा बढ़ाई गई है। उम्मीदवारों को नए व तकनीकी तरीकों से अपने मतदाताओं तक पहुंचना पड़ सकता है जो कि कुछ खर्चीला हो सकता है।
कुल मिलाकर पार्टियां चुनावी चंदे से संभावित जिताऊ प्रत्याशियों के लिए चुनावी बिसात बिछाने में जुट गई हैं।
वैसे भारतीय राजनीति में चुनावी चंदे का मामला हमेशा ही विवादों में रहा है। कभी इसे राजनीति में कालेधन के उपयोग से जोड़ा जाता है, तो कभी राजनीति के अपराधीकरण के लिये भी इसे दोषी माना जाता है।
हालांकि, चुनावी चंदा देने के तरीकों में हमेशा ही तब्दीलियाँ होती रही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि चुनावी बांड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक पारदर्शी टूल है। क्योंकि, दाता इस बॉण्ड को डिज़िटल या चेक के ज़रिये भुगतान करके ही खरीद सकता है।
लिहाज़ा, अगर कोई व्यक्ति किसी दल को चंदा देता है तो उसके खाते में चंदे की रकम साफ तौर पर देखी जा सकेगी। यही कारण है कि चंदा लेने वाले और चंदा देने वाले दोनों के ही द्वारा बैंक खाते के इस्तेमाल किये जाने की वज़ह से इस दिशा में पारदर्शिता आने की उम्मीद रही है। हालांकि, विपक्षी दल ऐसे चुनावी बांड के माध्यम से चंदे में कथित पारदर्शिता की कमी को लेकर चिंता जताते रहे हैं।
कुछ माह पहले एक खबर आई, खबर थी एक इत्र व्यापारी की। वह कानपुर में रहता तो अपने आसपास वालों से भी मतलब न रखता। 80 किलोमीटर दूर कन्नौज वाले घर जाता तो स्कूटर पर घूमता।
उसके राजनीतिक कनेक्शन भी लोगों ने तब जाना था, जब उसने सूबे के एक पुराने लंबरदार के साथ समाजवादी इत्र लांच किया। पर अब उसे पूरा देश जान गया है। हम बात कर रहे हैं, इत्र व्यापारी पीयूष जैन की, जिसके घर के जर्रे-जर्रे से नोट निकले हैं।
पीयूष नोटों की निकासी के मामले में अकेला नहीं है। पीयूष के घर तलाशी के बाद समाजवादी पार्टी के विधायक सहित कई अन्य कारोबारियों के घरों पर छापे पड़े तो नोटों की बरसात सी हुई। अब इन नोटों को लेकर सियासत शुरू हो गयी है किन्तु यह गलत भी नहीं है।
लो प्रोफाइल रहने वाले एक कारोबारी के घर से जब 300 करोड़ के आसपास धनराशि मिल जाए तो सियासत होगी ही। वह भी चुनाव से ऐन पहले जब दीवारें नोटों के ढेर उगलने लगें, तो सवाल भी उठेंगे ही।
कानपुर के व्यापारी पीयूष जैन के घर से नोटों का जखीरा बरामद होना सामान्य घटना नहीं है।
वैसे जिस पीयूष जैन के घर से नोटवर्षा हुई है, उसे डेढ़ महीने पहले तक बस उसके कुछ रिश्तेदार या व्यापारिक साझीदार ही जानते थे। पीयूष जैन मूलतः कन्नौज के रहने वाले हैं। उसी कन्नौज के, जहां से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव स्वयं सांसद रह चुके हैं।
पीयूष का कारोबार भले ही कन्नौज से कानपुर और फिर मुंबई से खाड़ी देशों तक फैल गया हो, किन्तु कन्नौज का समाजवादी कनेक्शन कहां पीछे छूटने वाला था। पिछले महीने समाजवादी पार्टी के विधायक पुष्पराज जैन के समाजवादी इत्र को स्वयं अखिलेश यादव ने लांच किया था। ऐसे में जब बमुश्किल डेढ़ महीने बाद इत्र व्यापारी पीयूष के आस-पास नोट ही नोट मिले तो लोगों ने उसे समाजवादी इत्र से भी जोड़ दिया।
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने हैं।
चुनाव से ठीक पहले समाजवादी इत्र की लांचिंग से लेकर नोट पकड़े जाने के इस मसले पर हो रही सियासत तो कालांतर में शांत पड़ जाएगी, किन्तु नोटों की बरामदगी एक बार फिर तमाम सवाल खड़े कर रही है। जिस तरह नोटबंदी के बाद घरों में नोटों के भंडार कुछ कम होने की उम्मीद जगी थी, इन बरामदगियों ने वह उम्मीद भी धुंधली कर दी है।
यदि एक व्यापारी के घर में तीन सौ करोड़ रुपये की नकदी मिल सकती है, तो अभी कितने घरों में ऐसे ही नकदी छिपी होगी, यह नहीं कहा जा सकता। कानपुर-कन्नौज की इस बरामदगी ने एक बार फिर काले धन की मौजूदगी को भी याद दिलाया है।
यह तय है कि आज भी लोग काला धन एकत्र कर रहे हैं। एक व्यापारी के पास इतनी अधिक धनराशि मिल सकती है, तो करोड़ों रुपये कहां-कहां छिपे होंगे, इसे समझना कठिन है।
इन स्थितियों में नोटबंदी के लक्ष्य की प्राप्ति न हो पाने और काले धन पर रोक न लग पाने जैसे सवाल उठने अवश्यंभावी हैं। हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग लाखों-करोड़ों रुपये पकड़ने का दावा करता है किन्तु चुनाव में धनबल पर रोक लगाने में प्रभावी सफलता नहीं मिल पा रही है।
इस बार रुपये उगलने वाली दीवारों का समाजवादी कनेक्शन सामने आ गया है, इसलिए अन्य राजनीतिक दल खुलकर आलोचना कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि गरीबों का पैसा दीवारों से निकल रहा है। ऐसे में सिर्फ बातों से काम चलने वाला नहीं है।
उन सभी गड़बड़ लोगों की तलाश करनी होगी, जिन्होंने गरीबों से वसूला काला धन दीवारों में चुन रखा है। इसके अलावा यह समय चुनावों को धन बल, विशेषकर काले धन से मुक्ति का पथ प्रशस्त करने पर चिंतन का भी है। चुनावों में हर राजनीतिक दल पानी की तरह पैसे बहाता है। प्रत्याशी भी मनमाने ढंग से धन खर्च करते हैं। राजनीतिक दलों की चंदा उगाही भी सरकार केंद्रित ही होती है।
केंद्र सरकार इलेक्टोरल बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा देने का नियम बना चुकी है। पिछले कुछ वर्षों के इलेक्टोरल बांड का विश्लेषण करें तो केंद्र की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को ही सर्वाधिक राशि मिली है।
चुनाव सुधार के क्षेत्र में काम करने वाली ग़ैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आंकड़ों की मानें तो अनुसार वित्तीय वर्ष 2017-18 और 2019-20 के बीच तीन वित्तीय वर्षों में देश के सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड से छह हजार करोड़ से अधिक राशि प्राप्त हुई। इसमें भी 65 प्रतिशत से अधिक भारतीय जनता पार्टी को मिली। इन तीन वित्तीय वर्षों में अंतिम दो वित्तीय वर्षों की तुलना करें तो वर्ष 2018-19 में भारतीय जनता पार्टी को इलेक्टोरल बांड से 1450 करोड़ रुपये मिले थे और वर्ष 2019-20 में यह राशि बढ़कर ढाई हजार करोड़ के आसपास पहुंच गयी थी।
ये हालात तब हैं, जबकि देश का चुनाव आयोग बार-बार पारदर्शी व ईमानदार व्यवस्था का दावा करता रहता है।
चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बांड्स में भी पारदर्शिता लाने को कहा है किन्तु इस पर अमल होता नहीं दिखता। जमीनी धरातल पर भी चुनाव इतने महंगे हो गए हैं कि आम कार्यकर्ता चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं पाते। राजनीतिक दल भी टिकट वितरण के समय धन खर्च कर पाने की योग्यता को भी परखते हैं।
उत्तर प्रदेश सहित देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव जल्द होने वाले हैं, और हम देश की आजादी की 75वीं सालगिरह भी मना चुके हैं। आजादी के इस अमृत महोत्सव वाले वर्ष में हमें चुनाव पर हो रहे मनमाने खर्च पर लगाम लगाने की पहल भी करनी होगी।
राजनीतिक दलों की तो इस दिशा में जिम्मेदारी है ही, आम मतदाता को भी देखना होगा कि कहीं वह धन के प्रलोभन व अधिक धन खर्च की चकाचौंध में आकर वोट का फैसला तो नहीं कर रहा है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम लोकतंत्र के मूल स्वरूप को खो बैठेंगे।
राजनीतिक दल चुनावी चंदे के मामले को कभी ठीक नहीं करेंगे। यह तभी ठीक हो सकता है जब राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएंगे। पहले ही धनबल व बाहुबल के आगे जनता निराश है, अब काले धन से चुनावी गणित का नियोजन खासा चिंताजनक प्रतीत हो रहा है। सरकारों को भी निरपेक्ष भाव से काले धन के खिलाफ मुहिम लानी होगी। साथ ही राजनीतिक दलों को भी टिकट वितरण में पैसे खर्च कर पाने जैसे मापदंडों से मुक्ति पानी होगी।
ऐसा न हुआ तो चुनाव महज दिखावा बन जाएंगे और जनता काले धन की कठपुतली बनकर लगातार छली जाती रहेगी।
क्या होते हैं इलेक्टोरल बांड
इलेक्टोरल बांड यानी चुनावी चंदा हासिल करने वाले बांड । सरकार ने इस दावे के साथ साल 2018 में इस बॉन्ड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा। इसमें व्यक्ति, कॉरपोरेट और संस्थाएं बांड खरीदकर राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में देती हैं और राजनीतिक दल इस बॉन्ड को बैंक में भुनाकर रकम हासिल करते हैं।
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड की खूबी
कोई भी डोनर अपनी पहचान छुपाते हुए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से एक करोड़ रुपए तक मूल्य के इलेक्टोरल बांडस खरीद कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकता है।
ये व्यवस्था दानकर्ताओं की पहचान नहीं खोलती और इसे टैक्स से भी छूट प्राप्त है। आम चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट हासिल करने वाले राजनीतिक दल को ही इस बांड से चंदा हासिल हो सकता है। केंद्र सरकार ने इस दावे के साथ इस बांड की शुरुआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा।
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जनवरी 2018 में लिखा था, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था में ‘साफ-सुथरा’ धन लाने और ‘पारदर्शिता’ बढ़ाने के लिए लाई गई है।
दरअसल, सरकार ने राजनीतिक प्रायोजन की प्रचलित संस्कृति में पारदर्शिता लाने के मकसद से चुनावी बांड योजना की शुरुआत की थी। लेकिन सरकार की इस पहल पर कई सवालिया निशान लगने से इसकी सकारात्मकता और पारदर्शिता फिर सवालों के घेरे में है।
देश की सबसे अमीर राजनीतिक पार्टी बनी भाजपा
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के एक विश्लेषण से यह जानकारी मिलती है कि मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी सबसे ज्यादा अमीर राजनीतिक पार्टी है।
एडीआर के रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए 4,847.78 करोड़ की संपत्ति घोषित की है। इसके बाद बहुजन समाज पार्टी (इरढ) का स्थान रहा, जिसने 698.33 करोड़ रुपये (9.99 फीसदी) की संपत्ति घोषित की है और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) ने 588.16 करोड़ रुपये (8.42 फीसदी) की संपत्ति घोषित की।
44 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में से, शीर्ष 10 दलों ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए सभी क्षेत्रीय दलों द्वारा घोषित कुल संपत्ति का 2,028.715 करोड़ रुपये या 95.27 प्रतिशत की संपत्ति घोषित की।
पिछले दिनों आई रिपोर्ट सामने आई है। विश्लेषण के अनुसार, इस दौरान सात राष्ट्रीय और 44 क्षेत्रीय दलों द्वारा घोषित कुल संपत्ति क्रमशः 6,988.57 करोड़ रुपये और 2,129.38 करोड़ रुपये थी. क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी द्वारा सबसे अधिक संपत्ति 563.47 करोड़ रुपये (26.46 प्रतिशत) घोषित की गई।
इसके बाद तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने 301.47 करोड़ रुपये और अन्नाद्रमुक ने 267.61 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषणा की।
2019-20 में 74.27 करोड़ की देनदारी
एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में सभी पार्टियों की देनदारी का भी पूरा ब्योरा दिया है. बताया गया है कि वर्ष 2019-20 में कुल 74.27 करोड़ रुपये की देनदारी राष्ट्रीय दलों द्वारा घोषित की गई है।
इस कड़ी में भी जो संपत्ति उधार के जरिए ली है वो आंकड़ा 4.26 करोड़ बैठा है, वहीं अन्य देनदारियों के तहत 70.01 करोड़ रुपये की कमाई हुई है। कांग्रेस ने सबसे अधिक 49.55 करोड़ रुपये (66.72 प्रतिशत) की देनदारी घोषित की, जिसके बाद अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (एआईटीसी) ने 11.32 करोड़ रुपये (15.24 प्रतिशत) की घोषणा की।
फिक्स्ड डिपोजिट में भी इखढ आगे
फिक्स्ड डिपोजिट श्रेणी के मामले में बीजेपी ने सबसे ज्यादा संपत्ति घोषित की है. दूसरे पायदान पर बहुजन समाज पार्टी रही है। बीजेपी ने 3,253.00 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की तो वहीं बसपा ने भी 618.86 करोड़ घोषित कर दिए हैं।
क्षेत्रीय दलों की बात की जाए तो समाजवादी पार्टी द्वारा 434.219 करोड़ घोषित किए गए हैं। इसके अलावा टीआरएस ने 256.01 करोड़, एआईएडीएमके ने 246.90 करोड़, डीएमके ने 162.425 करोड़, शिवसेना ने 148.46 करोड़ और बीजेडी ने 118.425 करोड़ रुपये घोषित किए हैं।
दिशा-निर्देशों का पालन करने में विफल रहीं पार्टी
एडीआर के विश्लेषण में कहा गया है, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आईसीएआई) के दिशा-निर्देशों का पालन करने में विफल रहे हैं, जो पार्टियों को वित्तीय संस्थानों, बैंकों या एजेंसियों के विवरण घोषित करने के लिए निर्देशित करता है, जिनसे ऋण लिया गया था।
दिशा-निर्देश निर्दिष्ट करते हैं कि पार्टियों को देय तिथि जैसे एक वर्ष, 1-5 वर्ष या 5 वर्षों के बाद देय के आधार पर सावधि ऋणों के पुनर्भुगतान की शर्तों का उल्लेख करना चाहिए।