मलिक साहब और घोड़े की टांगों के बीच में टोंटी

सुशील उपाध्याय
मलिक साहब मुहल्ले के मालिक थे। ठसक के साथ रहते थे। ऐंठ कर चलते थे। पड़ोसियों पर रौब गालिब करने के लिए छत पर चढ़कर, अपने पिताजी की दी हुई एकनली बंदूक को साफ करते रहते थे। अक्सर नौकर को मां-बहन की गाली देकर बात करते थे। नेक्कर-बनियान पहनकर गली में घूमना उनका शौक था। इसी दौरान वे टांगों के बीच की खुजली को खुजलाते रहते थे।

मुहल्ले के मुहाने पर ही उनका घर था। घर की छत पर एक घोड़ा, एक बाज और एक जंगली चीड़िया की आकृति की टंकियां बनवाई हुई थी। इतने रचनाधर्मी थे कि बाज के पिछवाड़े पर और घोड़े की पिछली टांगों के बीच में टोंटी फिट करवाई हुई थी। मेरा उनसे ज्यादा परिचय नहीं था। वजह, मैं मुहल्ले में नया था। वे राह चलते अक्सर नमस्ते की उम्मीद में देर तक मुझे घूरते रहते थे।
सर्दियों की एक रात में वे मुहल्ले की सड़क के एक ओर निर्माण करा रहे थे। साफ-साफ अतिक्रमण था। 30 फीट की सड़क का आठ-नौ फीट हिस्सा उन्होंने पहले ही कब्जा रखा था। अब इतना ही कब्जाने जा रहे थे। मैंने आदतन पूछा तो भड़क गए। बोले, 15 फीट की सड़क है। बाकी मेरी है, हिम्मत है तो कोई रुकवाकर देखे।

मैंने कोशिश तो की, लेकिन मुहल्ले का कोई आदमी उनके खिलाफ शिकायत को तैयार न हुआ। आखिर में, कुल जमा तीन लोग-एक मैं, मेरा भाई और भाई का एक दोस्त तैयार हुए। निगम को शिकायत की। वहां से कोई कारिंदा आया और आकर (बल्कि खा-पीकर) चला गया। निर्माण जारी रहा और मलिक साहब का अपनी मूंछों पर ताव देना बढ़ता गया।

हम तीनों ने एक बार फिर कोशिश की और मामला निशाने पर लग गया क्योंकि उन्हीं दिनों हाईकोर्ट ने अतिक्रमण के खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए थे। मलिक साहब का निर्माण भी टूट गया, लेकिन उसके बाद जब भी मैं घर से निकलता तो वो हवा में गालियां देने लगते-स्सालों मिट्टी में मिला दूंगा, बहन चै…क्या समझ रखा है, निकलना भूल जाओगे माद……एक से एक रचनात्मक गालियां उनके मुंह से सुनने को मिलती। अपनी प्रकृति के विपरीत मैंने धीरज बनाए रखा और मलिक साहब नित-नूतन गालियों से अपनी शान का ऐलान करते रहे।
मेरा तबादला शहर से बाहर हो गया। सप्ताहांत में घर पहुंचा। रात के दस बजे होंगे। मलिक साहब के घर के बाहर भीड़ लगी थी। शायद कोई घटना हुई थी। घर पहुंचा तो पिताजी ने बताया, सामने वाला मलिक मर गया!
मलिक साहब मर गए ? यकीन नहीं हुआ। 50-52 साल उम्र रही होगी।
कैसे मर गए ? शायद दमे का अटैक पड़ा, इनहेलर पास नहीं था। दम घुटने से मर गए।
ओह! बुरा हुआ।
अगले दिन सुबह घर से निकला तो जो जमीन मलिक साहब ने कब्जाई हुई थी, ठीक उसी जगह पर उनका शव रखा था, शमशान ले जाने की तैयारी हो रही थी। मैंने, हाथ जोड़कर उन्हें अंतिम प्रणाम किया। कितना विचित्र है, सब कुछ। जो चला गया, वो सारी जगह का मालिक होने का दावा करता था। मलिक साहब अब नहीं हैं। उस जगह को देखकर अक्सर उनकी याद आती है और उनकी गालियां भी। अब उस जगह पर छोटे बच्चे खेलते हैं, उन्हें देखकर अच्छा लगता है। मलिक साहब को भी अच्छा लगता होगा, हालांकि जिंदा रहते उन्हें कभी अच्छा नहीं लगा।

Leave a Reply