- आशंका के माहौल में अर्थव्यवस्था की बेहतरी की उम्मीद बेमानी
- डब्ल्यूपीआई का गिरता ग्राफ और रुपए का अवमूल्यन भी बढ़ा रही चिंता
आलोक भदौरिया, नई दिल्ली।
दो साल से कोरोना महामारी से जूझ रहे देश के सामने चुनौतियां आसानी से कम नहीं होने वाली हैं। नए साल का आगाज भी कोरोना के साए में ही हो रहा है। इस बार ओमीक्रॉन का खतरा है। यह खतरा कितना गंभीर है इसका सटीक अंदाजा लगाना फिलहाल मुमकिन नहीं है। फौरी तौर पर इसे डेल्टा-2 के मुकाबले कम जानलेवा माना जा रहा है।
लेकिन, अनहोनी की आशंका किसी को भी अच्छी नहीं लगती है। हर पल उसे बेदम किए रहती है। यह सिर्फ व्यक्ति पर ही नहीं बल्कि देश पर भी लागू होता है। कोई भी अर्थव्यवस्था आशंका के माहौल में सरपट नहीं दौड़ सकती है। उसे भरोसा चाहिए कि आने वाला समय अर्थव्यवस्था के लिए बेहतर मौके मुहैया कराएगा।
पर, क्या ऐसा होने जा रहा है? महंगाई आसमान छू रही है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) दहाई का आंकड़ा पार कर चुका है। इतना कि पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। नवंबर माह में 14.3 पर पहुंच गया।
यह पिछले बारह साल का उच्चतम स्तर है। वैसे यह आठ माह से बदस्तूर दहाई पर ही है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक नवंबर में 4.91 पर है। रिजर्व बैंक के मुताबिक अभी यह छह फीसदी से कम है। रिजर्व बैंक ने इसीलिए रेपो और रिवर्स रेट में इस बार कोई बदलाव नहीं किया है।
इसे लेकर भी ज्यादा खुशफहमी नहीं पाली जा सकती। क्योंकि देर-सबेर बढ़ती कीमतों का असर आम उपभोक्ताओं पर पड़ना तय है। कंपनियां बढ़ी लागत उपभोक्ताओं पर ही डालेंगी।
यानी खाद्य और अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ना तय है। हाल में केंद्र सरकार और फिर तमाम राज्य सरकारों ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कुछ कटौती की थी। बावजूद इसके उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बढ़ोतरी देखी गई। अक्तूबर में यह 4.48 पर था।
यदि सेक्टर वार कीमतों पर नजर डालें तो पता चलता है कई वाहन निर्माताओं ने पहले ही दाम बढ़ा दिए हैं। आटोमोबाइल की दिग्गज कंपनियां जैसे मारुति, टाटा ने पहले से ही जनवरी में कीमत बढ़ने की घोषणा कर रखी है। कई एफएमसीजी कंपनियों ने 2021 में ही कई मर्तबा अपने कुछ उत्पादों के दाम बढ़ाए थे।
यह सिलसिला नए साल में भी जारी रहेगा। इस बार किसी उत्पाद के दाम नहीं बढ़ते हैं तो उनके वजन पर जरूर ध्यान रखिएगा। कहीं इसमें कटौती तो नहीं कर दी गई। रोजमर्रा के खाने पीने के सामान से लेकर साबुन, शैंपो तक इसके शिकार होंगे।
लॉजिस्टिक खर्चे बढ़ने का खमियाजा आम उपभोक्ताओं की परेशानी बढ़ाने वाला ही नजर आ रहा है। क्रूड आयल के दाम बढ़ने के कारण पहले ही इसमें काफी वृद्धि हो चुकी है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के दाम घटाने की कवायद भी रस्मी साबित हो चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि पिछले दो माह से डीजल के दाम कमोबेश स्थिर हैं।
लेकिन, अब यह खेल भी सबको समझ में आने लगा है कि देश में उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसलिए कुछ माह तो लोगों को राहत देने वाले होंगे। लेकिन, ज्यादातर कंपनियों ने पिछले छह माह में डीजल दाम में वृद्धि के बाद भी ट्रांसपोर्टरों की मामूली मदद की थी। परिवहन लागत का अधिकांश भार ट्रांसपोर्टरों को ही उठाना पड़ा था।
देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले कपड़ा उद्योग के लिए नए साल का आगाज बढ़ी जीएसटी दरों से हो रहा है। अब जीएसटी की दर पांच के बजाय 12 फीसदी कर दी गई है। इसके अलावा हजार तक के जूते-चप्पल पर भी पांच के स्थान पर 12 फीसदी जीएसटी लगाई जा रही है।
पिछले 17 सितंबर को जीएसटी काउंसिल ने कपड़ा उद्योग में टैक्स की विसंगति दूर करने का फैसला लिया था। इस बारे में सेंट्रल बोर्ड आफ इनडायरेक्ट टैक्सेस एंड कस्टम्स ने अधिसूचना 18 नवंबर को जारी की थी।
पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री अमित मित्रा का मानना है कि इस फैसले से लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे। हजारों छोटे कारीगरों का काम बंद हो जाएगा। उनके मुताबिक एक लाख टेक्सटाइल यूनिट बंद हो जाएंगी। सात फीसदी की वृद्धि कमर तोड़ देगी। मित्रा ममता सरकार के सलाहकार हैं।
वैसे इसे लेकर विरोध भी हो रहा है। अब देखना है कि सरकार इस पर अमल करेगी या कदम पीछे हटा लेगी?
सवाल यह उठता है कि क्या उपभोक्ता को कोई राहत देने वाली खबरें भी आने की उम्मीद है। साल की शुरूआत उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों से होगी। साल का समापन गुजरात जैसे राज्य विधानसभा चुनाव से होना है। काबिलेगौर है कि मोदी सरकार उत्तर प्रदेश को किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहेगी। एक साल से राजधानी की सीमाओं पर बैठे किसानों की सुनवाई भी इसीलिए हुई। जिस अंदाज में यह संसद से पारित कराए गए थे, उसी अंदाज में आनन-फानन वापस भी ले लिए गए। ऐसी परिस्थितियों में लोगों का राहत की उम्मीद लगाना बनता है। पर, क्या ऐसा होगा?
दिसंबर में देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ने अपने बेस रेट में दस बेसिस प्वांइट्स की बढ़ोतरी कर दी। बेस रेट बढ़ने का असर लोन की दरों में बढ़ोतरी के रूप में सामने आता है। दरअसल, बेस रेट वह न्यूनतम दर होती है जिसके आधार पर बैंक लोन देते हैं। जिन लोगों ने फ्लोटिंग दर पर होम लोन ले रखा है उन्हें अब ज्यादा भुगतान करना पड़ेगा। उनकी किस्त की रकम बढेगी या लोन की अवधि।
तो क्या सस्ते लोन का दौर खत्म होने के करीब है? नए साल की यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। रिजर्व बैंक ने लगातार नवीं बार अपनी रेपो और रिवर्स रेपो दर में कोई बदलाव नहीं किया है। लेकिन, देश के अग्रणी बैंक का यह कदम अन्य बैंकों के लिए भी लोन दरें बढ़ाने का मौका मुहैया कराता है।
एक और बड़ी समस्या रुपए का अवमूल्यन भी है। दिसंबर के दूसरे पखवारे में यह गिरकर 76.32 के स्तर पर पहुंच गया था। हालांकि इसमें बाद में थोड़ा सुधार हुआ। लेकिन, जानकारों का मानना है कि यह गिरकर 77 रुपए के स्तर के पार भी जा सकता है। यह स्थिति चिंताजनक है। निर्यातकों को भले ही इससे थोड़ा फायदा हो जाए। पर, आयातकों के मुनाफे में सेंध लगती है।
आयात के लिए रुपए में पहले के मुकाबले ज्यादा भुगतान करना पड़ता है। देश में क्रूड आयल का बड़ी मात्रा में आयात होता है। पेट्रोल, डीजल के महंगे होने का असर सभी वस्तुओं पर पड़ता है। परिवहन लागत बढ़ जाती है।
एक और बड़ा खतरा अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा नए साल में ब्याज दरों में बढ़ोतरी के संकेत देने से जुड़ा है। दिसंबर में हालांकि ब्याज दरों में कोई वृद्धि नहीं की है। लेकिन, नए साल में तीन दफा और 2023 में दो दफा ब्याज दरों में वृद्धि की तैयारी है। मार्च में बॉंड की खरीदारी बंद कर दी जाएगी।
फेडरल बैंक का यह कदम महंगाई पर लगाम थामने के लिए है। नवंबर में महंगाई 6.8 का स्तर छू चुकी है। पिछले चार दशक में पहली बार ऐसा हुआ है। ब्रिटेन समेत दुनिया के कई देशों में महंगाई बढ़ रही है।
तो क्या भारत में भी इसे सामान्य मान लिया जाए? रिजर्व बैंक का मानना है कि अभी अर्थव्यवस्था में तेजी टिकाऊ नहीं है। हालांकि, विकास की गति बरकरार रखने के लिए उसने दरों में बदलाव नहीं किया है। महंगाई के बारे में आकलन है कि यह इस तिमाही में पांच फीसद तक भी हो सकती है। बावजूद उसे उम्मीद है कि यह छह फीसद की सीमा रेखा पार नहीं करेगी।
सवाल उठता है कि रिजर्व बैंक की उम्मीद फेडरल बैंक के कदम के मद्देनजर कब तक कायम रहती है? विकास और महंगाई के बीच संतुलन साधना भी रिजर्व बैंक के लिए इस साल बड़ी चुनौती रहने वाली है।
लेकिन, पिछला इतिहास बताता है कि अमेरिकी फेडरल बैंक की ब्याज दरें बढ़ाने का असर दुनिया के बाजारों पर पड़ता है। खासकर, उभरते बाजारों और विकासशील देशों पर ज्यादा असर पड़ता है।
हालांकि, यह उम्मीद बरकरार है कि इस समय मौजूद भारत के पास विशाल विदेशी मुद्रा भंडार देश अगले एक साल तक अपने भुगतान करने में सक्षम है। लेकिन, अर्थव्यवस्थाएं अवधारणा के आधार पर भी चलती हैं।
इसे नहीं भूलना चाहिए।
इन सब हालात के बावजूद ओमीक्रॉन की भयावहता और इससे निपटने की तैयारी के दावों की भी खासी अहमियत होगी। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में नाइट कर्फ्यू का दौर फिर से शुरू हो चुका है। दुआ करें कि डेल्टा-2 के दूसरे दौर जैसे हालात दोबारा न पैदा हों।