मुख्यमंत्री लव-कुश समीकरण को मजबूत करने की रणनीति पर कर रहे कार्य
मजबूत स्थिति में होने के बाद भी राजद में वर्चस्व की तकरार सतह पर
कृष्ण किसलय
पटना: इन दिनों विभिन्न दलों के सियासी शिविरों में राजनीति की अलग-अलग तरह की खिचड़ी पक रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक छवि की लोकप्रियता की पुनर्कसौटी के परीक्षण से गुजर रहे हैं और अपने दल जदयू की कम विधायक संख्या के मद्देनजर लव-कुश समीकरण को मजबूत करने की रणनीति पर कार्य कर रहे हैं। विधायकों की संख्या में इजाफा होने के बावजूद भाजपा अगड़ा-पिछड़ा के अपने अंतर संघर्ष को साधने में जुटी हुई है। जबकि सबसे मजबूत स्थिति में होने के बाद भी लालू प्रसाद यादव के राजद में वर्चस्व की तकरार सतह पर दिखाई देने लगी है। बिहार में प्रतिपक्ष (महागठबंधन) में राजद के साथ कांग्रेस और वामदल हैं। जबकि सत्ता पक्ष में एनडीए (जदयू-भाजपा) के साथ हम और वीआईपी हैं। फिलहाल, रामविलास पासवान (अब स्वर्गीय) की लोजपा और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा अपने अस्तित्व रक्षा के सवाल से जूझ रही है। बसपा का बिहार में एक बार फिर अवसान हो चुका है। जबकि अन्य स्थानीय छोटे दलों की स्थिति अपने फायदा-नुकसान के आधार पर बड़े दलों भाजपा या राजद के साथ के गठबंधनों में से किसी एक के साथ होने या फिर अपनी डफली अपना राग अलापने वाली है।
विधान परिषद में भी लोजपा हुई नेताविहीन
मुख्यमंत्री का चेहरा बनने के मद्देनजर बिहार विधानसभा चुनाव में एकला चलो की नीति अपनाने के कारण चुनाव परिणाम आने के बाद लोजपा लकवाग्रस्त होने की स्थिति में है। लोजपा की बिहार विधान परिषद में एकमात्र सदस्य (एमएलसी) नूतन सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया और लोजपा विधान परिषद में भी नेताविहीन हो गई। इससे पहले विधानसभा चुनाव में लोजपा के एकमात्र चुने गए विधायक राजकुमार सिंह बिहार में भाजपा की सहयोगी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू में शामिल हो चुके हैं। नूतन सिंह के विधान परिषद में भाजपा के सदस्य होने के रूप में मान्यता देने की घोषणा भी विधान परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष अवधेशनारायण सिंह ने 24 फरवरी को कर दी। नूतन सिंह का कार्यकाल 16 जुलाई को समाप्त हो जाएगा। स्थानीय प्राधिकार (सुपौल, सहरसा, मधेपुरा) से चुन कर वर्ष 2015 में एमएलसी बनीं नूतन सिंह ने 22 फरवरी को लोजपा से इस्तीफा दिया था। वह बिहार सरकार के मंत्री नीरज कुमार सिंह की पत्नी हैं और बालीवुड के दिवंगत अभिनेता सुशांत राजपूत की चचेरी भाभी हैं।
पार्टी पर वर्चस्व के लिए परिवार में शीतयुद्ध!
बिहार में लोजपा वह पार्टी है, जिसके नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने एनडीए में रहते हुए एनडीए के घोषित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का चुनाव की सभाओं में साफ-साफ शब्दों में विरोध किया था। यहां तक नल-जल योजना में भ्रष्टाचार का आरोप भी सरकार का मुखिया होने के नाते उन पर लगाया था। नीतीश कुमार के विरोध की नीति और एकला चलो की रणनीति को लेकर लोजपा के संस्थापकों में से एक सांसद पशुपति कुमार पारस ने नाराजगी दिखाई थी। वह इतने नाराज थे कि लोजपा प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार करने नहीं गए। यह रामविलास पासवान के निधन के बाद लोजपा के भीतर पार्टी पर वर्चस्व को लेकर सतह पर दिखने वाला शीतयुद्ध है। चिराग पासवान जहां लोजपा के संस्थापक दिवंगत रामविलास पासवान के बेटा हैं, वहीं पशुपति कुमार पारस रामविलास पासवान के छोटे भाई हैं। सांसद पशुपति कुमार पारस लोजपा के संस्थापक सदस्यों में हैं, जब वर्ष 2000 में लोजपा का गठन हुआ। हाजीपुर के सांसद प्रिंस राज लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं, जो रामविलास पासवान के बड़े भाई भूतपूर्व सासंद रामचंद्र पासवान के बेटा हैं। इस तरह यह परिवारवादी पार्टी हिस्सा और दखल-कब्जा को लेकर अंतरसंघर्ष से गुजर रही है। सासाराम से विधानसभा चुनाव लडने वाले पूर्व विधायक रामेश्वर प्रसाद चैरसिया ने लोजपा से इस्तीफा दे दिया है। चुनाव परिणाम आने के बाद इस पार्टी से दो सौ की तादाद में नेता-कार्यकर्ता इस्तीफा देकर जदयू में जा मिले हैं। नवम्बर में चुनाव परिणाम आने के बाद लोजपा की प्रदेश कार्यसमिति भी भंग की जा चुकी है।
लालू के लाल की किंगमेकर बनने की चाहत
लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद (राष्ट्रीय जनता दल) में किंगमेकर बनने की चाह रखने वाले उनके बड़े बेटे तेजप्रताप यादव ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में से एक प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह पर उनके ही कार्यालय में मीडिया के सामने यह तोहमत मढ़कर नया विवाद खड़ा किया कि इन्हीं (जगदानंद सिंह) जैसे लोगों की वजह से लालू प्रसाद यादव आज बीमार हैं। इसके बाद लालू प्रसाद के छोटे बेटे और बिहार विधानसभा में राजद संसदीय दल के नेता तेजस्वी यादव को स्थिति संभालने के लिए जगदानंद सिंह से बंद कमरे में बात करनी पड़ी। तेजप्रताप यादव तुरंत लालू यादव द्वारा दिल्ली एम्स में बुलाए गए, जहां लालू यादव इलाज के लिए भर्ती हैं। बुलावे के बाद तेजप्रताप यादव 21 फरवरी को दिल्ली गए। इसके बाद तेजप्रताप यादव की सोशल मीडिया पर सक्रियता बेहद कम हो गई है। मामला 13 फरवरी का है, जब प्रदेश कार्यालय में अपने समर्थकों से साथ पहुंचे तेजप्रताप यादव का स्वागत करने के लिए जगदानंद सिंह अपने कार्यालय कक्ष से बाहर नहीं निकले। तेजप्रताप यादव ने आरोप लगाया था कि चारा घोटाला में सजा काट रहे पिता लालू यादव की रिहाई के लिए उनकी ओर से चलाए जा रहे पोस्टकार्ड अभियान में भी जगदानंद सिंह की कोई रूचि नहीं है।
तेजप्रताप ने रामचंद्र पूर्वे का भी किया था विरोध
जबकि जगदानंद सिंह वह शख्स हैं, जिनकी नीतीश कुमार और शरद यादव के साथ मिलकर लालू यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने में अहम भूमिका रही है। 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद लालू प्रसाद यादव को नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए विधायकों को मनाने का काम इन तीनों ने अथक मेहनत के साथ किया था। लालू यादव नेता प्रतिपक्ष बने और फिर मुख्यमंत्री भी बने। समाजवादी आंदोलन के नेता जगदानंद सिंह राममनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर के अनुयायी रहे हैं, जिनकी लालू यादव से मुलाकात 1974 के जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान हुई थी। इसी तरह लालू प्रसाद यादव और वैश्य समुदाय से आने वाले रामचंद्र पूर्वे की दोस्ती सियासत से अधिक व्यक्तिगत भरोसा की रही है। 1997 में लालू प्रसाद यादव द्वारा बनाए गए नए दल का मसौदा बनाने का कार्य रामचंद्र पूर्वे को सौंपा गया था। चारा घोटाला में लालू यादव के जेल जाने की नौबत आई तो लालू यादव की पत्नी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के साथ 1997 में नई राबड़ी सरकार में सबसे पहले मंत्री के रूप में रामचंद्र पूर्वे ने शपथ ली थी। इसके बावजूद तेजप्रताप यादव की वजह से चार बार राजद के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके रामचंद्र पूर्वे को 2019 में फिर से प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया जा सका। इससे पहले राजद से इस्तीफा देने पर रघुवंश प्रसाद सिंह (बाद में निधन) के बारे में भी तेजप्रताप यादव ने कहा था कि समुद्र से एक लोटा पानी निकल जाने से क्या होगा?
वंशवाद के दौर में साथ निभाने का अकेला उदाहरण
वरिष्ठ नेता रामचंद्र पूर्वे से खटास वाले रिश्ते के बाद तेजप्रताप यादव के अब वरिष्ठ नेता जगदानंद सिंह पर आरोप का राजद पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल तो जगदानंद सिंह ने इसे राजद का घरेलू सियासी मसला बताकर मामले को टाल दिया है। राजद के वरिष्ठ नेता जगदानंद सिंह पार्टी के उन कद्दावर नेताओं में हैं, जिन्होंने दशकों से दिवंगत रघुवंश प्रसाद सिंह और रामचंद्र पूर्वे की तरह लालू प्रसाद का साथ नहीं छोड़ा। जगदानंद सिंह की लालू प्रसाद यादव से राजनीतिक मित्रता तो चार दशकों से अधिक समय से है। किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में उन्होंने लालू प्रसाद यादव का साथ नहीं छोड़ा है। वंशवाद के दौर में साथ निभाने का बिहार में अपनी तरह का अकेला उदाहरण भी जगदानंद सिंह के साथ ही जुड़ा हुआ है। जगदानंद सिंह ने 2010 में अपने बेटा सुधाकर सिंह के खिलाफ चुनाव प्रचार किया था। हालांकि सुधाकर सिंह अब राजद के विधायक बन चुके हैं।
बीस साल बाद बिहार में फिर है परिस्थिति की सरकार
भागलपुर दंगा के बाद बिहार में कांग्रेस अपनी ताकत खो चुकी है और चारा घोटाला में जेल की सजा काट रहे लालू प्रसाद यादव चुनाव लडने से अयोग्य हो चुके हैं। इस हालात में भाजपा के प्रबल समर्थन से नवम्बर 2020 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में परिस्थिति की सरकार बनी। हालांकि नैतिकता और नीति की राजनीति करने वाले नीतीश कुमार द्वारा कम विधायक होने के बावजूद मुख्यमंत्री पद स्वीकार करना कहीं से अनैतिक नहीं है, क्योंकि वह एनडीए में शामिल हैं और उन्हें एनडीए ने मुख्यमंत्री बनाया है। वैसे भी एनडीए ने मतदान से पहले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर रखा था। बीस साल पहले भी 2000 में नीतीश कुमार परिस्थिति के मुख्यमंत्री बने थे, जब राजद की राबड़ी देवी (लालू प्रसाद यादव की पत्नी) को सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा निर्णय लिया गया था। तब भी नीतीश कुमार संख्या बल में तीसरी नंबर की समता पार्टी के नेता थे। 2000 में भाजपा विधायकों की संख्या 67 और समता पार्टी के विधायकों की संख्या 34 थी। उस समय 21 विधायकों वाली जदयू अलग पार्टी थी और जदूय में समता पार्टी का विलय नहींहुआ था। 2000 के बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा विधायक संख्या बल में कमजोर होती गई और नीतीश कुमार विधायकों की बढ़ती संख्या के साथ मजबूत होते गए। मगर नवम्बर 2020 में ऐसा नहीं हुआ।
नीतीश सरकार के समक्ष सिद्ध करने की कसौटी
17वीं बिहार विधानसभा चुनाव के लिए जनादेश में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू तीसरे स्थान पर हैं, जिसके पास अब 45 विधायक हैं और भाजपा के 75 विधायक हैं। जबकि विधानसभा चुनाव अपेक्षाकृत साफ-सुथरी छवि और विकास कार्य करने वाली सरकारों का संचालन करने वाले नीतीश कुमार के चेहरे पर ही लड़ा गया। चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार की घटती लोकप्रियता के मद्देनजर प्रधानमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेताओं को यह कहना पड़ा था कि जदयू को कम सीटें मिलने पर नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे। बिहार की जनता ने नीतीश कुमार सरकार के विकास, भ्रष्टाचार निषेध, पारदर्शी शासन और शराबबंदी के दावा को भ्रामक माना। जनता में संदेश यही गया है कि नीतीश कुमार 15 सालों से लालू प्रसाद यादव का भय दिखाकर सवर्ण मतों का मनोवैज्ञानिक दोहन करते रहे हैं। नीतीश कुमार अपने अंतिम चुनावसभा में यह कह चुके हैं कि यह उनका अंतिम चुनाव है। बहरहाल, बिहार की जनता के सामने यही सवाल है कि सुशासन, भ्रष्टाचार, शराबबंदी, विकास की कसौटी पर नीतीश कुमार अपनी सातवीं सरकार को भाजपा के सहयोग से कैसा सिद्ध करते हैं?