किसान आंदोलन के तीखे तेवर

वीरेंद्र सेंगर

नई दिल्ल:तीन केंद्रीय कानूनों के खिलाफ चल रहा किसान आंदोलन हर रोज नए विस्तार लेता जा रहा है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक दिल्ली के मोर्चों पर इस आंदोलन के 80 दिन से ऊपर हो गये हैं। ये आंदोलन आमतौर पर शांतिपूर्ण रहा है। सरकारी तंत्र के जरिए दमन की तमाम कोशिशें जारी हैं, तरह-तरह की अफवाहें फैलाकर इस पूरी मुहिम को बदनाम करने की साजिशें भी जारी हैं। सरकार को भरोसा था कि भयानक ठंडे मौसम में आंदोलनकारी पस्त हो जाएंगे, थक जाएंगे। आंदोलन के अंदर विघ्नकारी तत्वों के जरिए भी तमाम ‘प्रयोग‘ किये गए, लेकिन हर बदनुमा ‘प्रयोग‘ इस आंदोलन की नयी खाद-पानी बनता जा रहा है। किसान आंदोलन अब ‘रेल रोको‘ की तरफ बढ़ रहा है। जाहिर है रार बढ़ने जा रही है।
यूं तो सरकार के आकाओं को पूरी उम्मीद रही है कि ये आंदोलन बिखर जाएगा। इसके खातिर तरह तरह के सियासी ‘यज्ञ‘ भोंपू मीडिया द्वारा किये जा रहे हैं। पूरे देश में समां बांधने की कोशिश हुई कि इस आंदोलन के पीछे कुछ विदेशी ताकतों की भूमिका है। शुरुआती दौर में इस आंदोलन में पंजाब के पगड़ीधारी किसानों की बहुलता थी। इसीलिए ‘नागपुरी‘ तंत्र ने पूरी ताकत से खालिस्तान के नाम से इसे जोड़ दिया। गोदी मीडिया के निहायत काल्पनिक सूचनाओं के आधार पर प्रचारित करना शुरू कर दिया कि इसे ‘आतंकी‘ फंडिंग हो रही है। दूसरे तार कनाडा और आस्ट्रेलिया जैसे देशों से जोड़े गये। क्योंकि इन देशों में प्रवासी सिखों की संख्या काफी है। एक दौर में ‘खालिस्तानी‘ आंदोलन चला था। ये एक तथ्य है। इससे पूरे पंजाब में जमकर हिंसा हुई थी। लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी सरकारों ने इस पर काबू पा लिया था। तंत्र ने लोगों को ये समझाने में सफलता पाई थी कि ‘खालिस्तान‘ की मांगे सर्वथा अनुचित है। धर्म के नाम पर कुछ राष्ट्र विरोधी ताकतें इस आंदोलन के पीछे हैं, जबकि इससे पंजाब के हर शख्स का नुकसान है।
उल्लेखनीय है कि सूबे के किसानों ने ही इस खतरनाक आंदोलन की रीढ़ तोड़ी थी। उन्हें कुछ महीनों में ही समझ आ गया था कि इस आंदोलन से बर्बादी के सिवाय और कुछ हासिल नहीं होने वाला। तब ‘गांवों‘ की कट्टर ताकतों का बहिष्कार शुरू हुआ था। स्थानीय स्तर पर जोरदार विरोध के कारण खालिस्तान आंदोलन की कमर टूट गयी थी। इसे भी तीन दशक हो गये। आंदोलन में सिखों की भागीदारी को खालिस्तानी आंदोलन से जोड़ना एक तरह से खालिस्तानी शिगूफे को नए सिरे से हवा देना जैसा है। चूंकि इस शिगूफे के पीछे कोई ‘सत्य‘ नहीं था, ऐसे में ये दांव भी कारगर होता नजर नहीं आया।
इधर, इस आंदोलन में हरियाणा की भागीदारी बहुत जोरदार रही है। गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर रैली में ‘लाल किला कांड‘ के चलते बट्टा लगा था। इस पूरे मामले में मुख्य खलनायक दीप संधु की असली पहचान तुरंत नहीं हुई होती, तो आंदोलन को झटका लग जाता। लेकिन दीप संधु और उसकी टोली के गहरे रिश्ते भाजपा के शीर्ष महाप्रभुओं से पाए गये। कई सत्ता प्रभुओं के साथ उसकी फोटो वायरल हो गयी। ऐसे में सियासी सत्ता प्रतिष्ठान बचने की मुद्रा में रहा।
संयुक्त किसान मोर्चा के एक प्रमुख नेता डॉ. दर्शन पाल कहते हैं, ‘दीप खुलेआम लाल किले तक जाने की बकवास करता था। उसे फटकारा भी गया था, लेकिन सरकारी सहयोग से वह लाल किले में अपने लोगों के साथ आराम से चला गया। इस चक्कर में कुछ और किसान लाल किले में पहुंच गये थे। पूरे घटनाक्रम से साफ है कि यह प्रकरण कहीं न कहीं एक साजिश के तहत हुआ। ताकि, किसान आंदोलन बदनाम हो सके। दिल्ली पुलिस की भूमिका संदेह से परे नहीं है। असली गुनहगारों को बचाया जा रहा है। हम लोग सरकारी साजिशें सफल नहीं होने देंगे‘।
डॉ. दर्शन पाल का मानना है कि वे लोग सतर्क हैं कि सरकारी तंत्र की कोई भी नयी साजिश सफल न हो पाए। शुरुआत में ये आंदोलन गैर राजनीतिक था। लेकिन अब तमाम विरोधी दलों का समर्थन खुल्लमखुला है। इस प्रसंग में आंदोलन के प्रखर नेता योगेंद्र यादव का नजरिया बहुत स्पष्ट है। वो कहते है कि अपने मूल चरित्र से ये आंदोलन आज भी भटका नहीं है। यदि राजनीति दल हमें समर्थन देते हैं तो इसमें आखिर क्या बुरा है? इन दलों की भी एक जवाबदेही है। इतना तय है कि हमारे आंदोलन का नेतृत्व किसी सियासी दल के हाथ में नहीं होगा। इस मामले में ये आंदोलन आज भी शुद्ध रूप से गैर राजनीतिक है। सत्ता पक्ष केवल भ्रम फैलाने के लिए अनर्गल प्रचार कर रहा है। इसमें ‘गोदी मीडिया‘ की भूमिका भी है। लेकिन देश की जनता सच्चाई जानती है। इसी का परिणाम है कि आंदोलन हर रोज और धारदार होता जा रहा है। अब कांग्रेस और रालोद जैसे दलों ने भी समर्थन में पंचायतें आयोजित करनी शुरू कर दी हैं।
इस आंदोलन ने जमीनी स्तर पर अपना फलक पिछले पंद्रह दिनों में व्यापक कर लिया हैं। देश के आधे से ज्यादा राज्यों की व्यापक भागीदारी इसमें हो गयी। भले इन सब प्रदेशों के किसान दिल्ली के मोर्चों पर दूरी की वजह से नहीं आ पाए हों, लेकिन वे अपने-अपने क्षेत्रों में छोटे-बड़े प्रदर्शन कर रहे हैं। सोशल मीडिया से इनकी जानकारी मिलती रहती है। यह अलग बात है कि मुख्य मीडिया लगभग ‘गोदी‘ में बदल गया है। ऐसे में यहां उसकी कवरेज नहीं होती। मीडिया का यह कलंकी चरित्र अब ज्यादा छिपा नहीं रहा है। किसान आंदोलन में ‘गोदी मीडिया‘ को धिक्कारने वाले बैनर भी दिखते हैं। इसके बाद भी इस भोपूं मीडिया को लाज नहीं आती।
सरकार के पक्ष में डंका बजाने वाले मुख्य मीडिया का नया नामकरण ‘गोदी मीडिया‘ एनडीटीवी के चर्चित पत्रकार रवीश कुमार ने दिया था। धीरे-धीरे इसकी चर्चा बढ़ती रही। लेकिन गांवों तक ‘गोदी‘ की ‘कीर्ति‘ नहीं फैली थी। इस आंदोलन की देन है कि दूरदराज के गांवों तक ‘गोदी‘ मीडिया की पहचान पहुंची है। वे खासतौर पर टीवी मीडिया को सरकारी भोपूं कहने लगे हैं। सोशल मीडिया ज्यादा भरोसे लायक माना जा रहा है, हालांकि इनके भी अपने खतरे हैं, यह अलग बात है। लेकिन दूर दराज के गांवों में भी गुस्सा इस कदर बढ़ा है कि वे मीडिया को सरकारी ‘जोकर‘ धड़ल्ले से कह रहे हैं। कह सकते हैं कि दिल्ली के किसान आंदोलन का यह नया फलित है।
बजट सत्र में प्रधानमंत्री ने दोनों सदनों में लंबे भाषण दिए। उनके तेवरों से यही संदेश गया है कि अभी सरकार विवादित तीनों कानूनों को रद्द करने के मूड में कतई नहीं है। उल्टे इस आंदोलन को नासमझी के तमाम नए मुहावरे गढ़े गये। इनमें ये भी है कि इस आंदोलन में तमाम आंदोलनजीवी यानी जिनकी जीविका इसी पर है वे घुस गये हैं। इस तरह प्रधान सेवक ने किसान आंदोलन में एक नयी ‘खोज‘ सामने रख दी। जाहिर है कि उनके निशाने पर दर्शन पाल, मेघा पाटकर और योगेंद्र यादव जैसे प्रबुद्ध जन नेता होंगे।
योगेंद्र यादव चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनका संगठन किसानों और मजदूरों के लिए ‘ग्राउंड जीरो‘ पर सालों से संघर्ष कर रहा है। विनम्र भाषी योगेंद्र यादव संयुक्त किसान मोर्चा के प्रमुख नेताओं में एक हैं। उन्हें आंदोलन का ‘थिंक टैंक‘ भी माना जाता है। दरअसल, योगेंद्र यादव जैसे प्रबुद्ध नेता सरकार के खास निशाने पर इसलिए हैं कि ‘वार्ताओं‘ के दौरान सरकारी झांसे कारगर नहीं होते। ऐसे में कुछ खास नेताओं के चरित्र हनन की मुहिम भी चली। पिछले महीने पंजाब के एक कांग्रेसी सांसद को आंदोलन के मंच से भाषण नहीं देने दिया गया था। उन्हें उतार दिया गया था। इस पर खूब हंगामा हुआ था। योगेंद्र यादव की अगुआई में सांसद बिट्टू महाशय को बाहर का रास्ता दिखाया गया था। इसकी खीझ सांसद महोदय ने संसद में उतारी और कहा दिया कि योगेंद्र यादव ही लाल किला कांड का मुख्य सरगना है। सरकार उसे ही पकड़े।
यह अलग बात है कि सांसद की राय पार्टी की लाइन नहीं है। खबर है कि पंजाब के मुख्यमंत्री ने अपने सांसद को फटकार भी लगायी है, लेकिन भाजपा का खेमा खुश है कि एक कांग्रेसी सांसद ने ही यादव पर धावा बोल दिया। पिछले कई दिनों से योगेंद्र बीमार हं।ै वे बीच-बीच में अस्पताल जाते रहते हैं। वे कांग्रेसी सांसद के हमले से व्यथित हैं और कहते हैैं, सभी किसान नेता सच्चाई जानते हैं। ऐसे में वे इस प्रकरण को लेकर चिंतित नहीं हैं।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का कद, इस आंदोलन से खासा बढ़ गया है। जबकि ‘लाल किला कांड‘ के बाद उनका तंबू लगभग उखड़ने वाला था। लोग हताश हुए थे। टिकैत गिरफ्तारी के लिए भी लगभग तैयार हो गये थे। लेकिन कुछ संघ परिवारी तत्वों ने जिस तरह का बाहुबल दिखाया, उससे टिकैत के आंसू छलक पड़े थे। टीवी मीडिया ने इन आंसुओं पर जमकर भद्दे तंज कसे। रोते हुए टिकैत को बार-बार दिखाया। जाने-अनजाने ‘गोदी मीडिया‘ से ये चूक हो गयी। क्योंकि टिकैत के आंसू आंदोलन का जन सैलाब बन गये। रातों रात गांवों से लोग गाजीपुर धरना स्थल पर जुटने लगे। हालांकि, प्रशासन ने तमाम रोक-टोक की, लेकिन सैलाब को रोक पाना आसान कहां होता है? ‘आंसुओं‘ ने नयी प्राण-वायु दे दी है।
इस तरह 28 जनवरी के बाद इस आंदोलन का नया चरण शुरू हुआ हैं। हजारों किसान मोर्चों पर आ डटे है। वे ‘करो या मरो‘ वाली भावना से जुटे है। बच्चे तक कह रहे हैं, ‘कानून वापसी नहीं तो घर वापसी नहीं‘। यह नारा संकल्प सूत्र बन गया है। सरकार और किसानों के बीच वार्ताओं का दौर थमा रहा। यह अलग बात है कि प्रधान सेवक ने संसद सत्र शुरु होते ही एलान किया था। किसान नेता और वे महज एक फोन की दूरी पर हैं। इससे आसार बने थे कि शायद सरकार नरमी पर है। इससे बात बन सकती है।
किसान नेता राकेश टिकैत को भी इसमें खासी उम्मीद बंधी थी। लेकिन वे अब गुस्साए हैं और कहते हैं कि सरकार किसानों को थकाना चाहती है। लेकिन ये सरकार की गलतफहमी है। हम थकने वाले नहीं हैं। हक की लड़ाई जीतकर ही लौटेंगे। अक्टूबर तक आंदोलन की हमारी तैयारी है। अब जगह-जगह किसान पंचायतें हो रही हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में दर्जनों किसान पंचायतें हो चुकी हैं। लाखों किसान संघर्ष के लिए जुट रहे हैं। टिकैत बताते हैं कि वे लोग अब महाराष्ट्र, बिहार, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात जाकर किसान पंचायतों को ताकत देंगे। क्योंकि अब यह आंदोलन किसानों तक सीमित नहीं रहा। ये जन आंदोलन बनने जा रहा है। यदि आंदोलन ने सरकार से गद्दी छोड़ने का नारा दिया, तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
हैरानी की बात है कि जिस टिकैत का नेतृत्व महज कुछ जिलों तक सीमित था। ‘आंसू विस्फोट‘ के बाद वे बड़े कद के हो गये हैं। पूरे हरियाणा में भी हीरो बन गये हैं। जबकि राकेश टिकैत शुरुआत में एक ‘कमजोर‘ कड़ी माने जाते थे। टिकैत के खांटी तेवरों को देखकर उनको बदनाम करने की मुहिम चलाई जा रही है। ‘गोदी मीडिया‘ उनकी अरबों की सम्पत्ति बता रहा है। ताकि वे शक के दायरे में आएं। टिकैत इस संदर्भ में इतना ही कहते हैं, ‘संघी मानसिकता वाले अफवाहें फैलाने में उस्ताद हैं, लेकिन इनकी पोल खुल जाती है। वे डर नहीं रहे‘। उनका सवाल था कि दो सौ किसानों की शहादत पर सरकार को एक भी आंसू नहीं आया। ये है इनका पत्थर होना। लेकिन किसान आंदोलन नया इतिहास लिखने जा रहा है। ये सरकार अंधी और बहरी है। किसान मुकम्मल इलाज करके ही लौटेंगे‘।

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