चमोली। गोपेश्वर में बीते रविवार को हुई त्रासदी को स्थानीय निवासी और रैणी में बन रहे पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ हाईकोर्ट की शरण में जाने वाले सोहन सिंह राणा का कहना हैं कि यह आपदाएं मानव जनित हैं। अगर इन संवेदनशील क्षेत्रों में प्रदूषण ना हो और परियोजनाएं बनाने के नाम पर ब्लास्ट और पेड़ों का कटान न हो तो इन त्रासदियों से बचा जा सकता है। रैणी में ऋषिगंगा में पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करने वाले सोहन सिंह राणा ने बताया कि यह पावर प्रोजेक्ट बनने की शुरुआत 1998 में हुई थी, हमारे दादा की 8 नाली जमीन भी इस के लिये गैर कानूनी ठंग से छीन ली गई थी। जिसके लिये वह आज तक कोर्ट में मुकदमा लड़ रहें हैं।
परंपराओं की अनदेखी तबाही का सबब तो नहीं?
उत्तराखंड में प्रारंभिक दौर में जब बसावट शुरू हुई थी, तभी नागरिकों ने प्रकृति के मिजाज को समझने और उसके अनुरूप जनजीवन चलाने को प्राथमिकता दी थी। यहां तक कि ब्रिटिश शासकों ने भी उन परंपराओं को महत्व दिया, जिससे यहां का पर्यावरण सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रहा, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में स्थापित परंपराओं की जो अनदेखी हुई, उसने यहां तमाम आपदाओं को आमंत्रित किया है। उत्तराखंड में बसासत की शुरुआत रिवर वैली सेटलमेंट के तहत नदियों के तटों पर हुई, लेकिन बागेश्वर, श्रीनगर जैसी तमाम जगहों पर गर्मियों में बहुत गर्मी पड़ने के कारण तत्कालीन समाज ने ठंडी जलवायु की तलाश में टीलों (रिज) का रुख किया।
सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्रों में वर्षों के अध्ययन के बाद पानी वाली जगहों में बसासत से पहले वहां भारी तादाद में उतीस और बांज के वृक्ष रोपित किए गए जो जल को रोकने में सक्षम थे। इन लोगों के पास क्षेत्र की जैव विविधता और नदियों, झीलों, पर्वतों, ग्लेशियर और उनमें होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों आदि की महत्वपूर्ण जानकारी थी। ब्रिटिश शासकों ने जब यहां विकास कार्य किए तो इसके लिए ईआईए यानी एन्वायरनमेंटल इंपैक्ट असेसमेंट को आवश्यक रूप से लागू किया। इसके तहत सड़क, विद्युत परियोजना या अन्य निर्माण से पूर्व क्षेत्रीय बुद्धिजीवियों सहित बुजुर्गों और आमजनों के अनुभवों और सुझावों के बाद ही योजनाएं बनाई गईं। पर्यावरणविद् प्रो. अजय रावत कहते हैं कि आधुनिकता की दौड़ में पारंपरिक ज्ञान और अनुभव की भारी अनदेखी की जा रही है। ईआईए की महत्वपूर्ण प्रथा अंग्रेजों के जाते ही समाप्त हो गई। अब किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में पर्यावरण संरक्षण नजर नहीं आता। उनका कहना है कि क्षेत्र विशेष की जरूरत के अनुरूप पौधरोपण नहीं किया जाता। सड़कों के कटान का मलबा नदियों में फेंका जाता है। इससे उनके आसपास की पौध और जलस्रोत नष्ट हो रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्र में एक किमी सड़क निर्माण में 40 से 80 हजार क्यूबिक मीटर मलबा उत्पन्न होता है। इसका निस्तारण गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया जाता है।
13 गावों की मुश्किलें कम नहीं हुईं
चमोली। आपदा के दस दिन बाद भी नीति घाटी के अलग-थलग पड़े 13 गांवों की मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। गांवों को जोड़ने वाले मलारी हाईवे के क्षतिग्रस्त होने से गांवों का संपर्क अब भी देश-दुनिया से कटा है। वह अन्य गांवों तक नहीं जा पा रहे हैं। गांव के अंदर ही जाने के लिए अब वाहनों में पेट्रोल भी खत्म हो गया है। ग्रामीण अब पूरी तरह प्रशासन की मदद के भरोसे ही बैठे हैं।
ग्रामीणों की आवाजाही के लिए यह सड़क ही एकमात्र साधन थी। सड़क न होने से नीति घाटी में कई ग्रामीणों के वाहन भी फंसे हैं। शुरुआत के दो-तीन दिन ग्रामीणों ने गांव के आसपास इन्हीं वाहनों से आवाजाही की, लेकिन अब वाहनों में तेल भी खत्म हो गया है, जिससे ग्रामीण कहीं आ जा नहीं पा रहे हैं। गांव में फंसे लोग गांव में ही रहने को मजबूर हैं। पल्ली रैणी, लाता, पैंग मुरंडा, तोलमा, जुग्जु, जुवा ग्वाड़, लौंग, तमक सहित भंग्यूल गांव के ग्रामीण सड़क मार्ग के खुलने का इंतजार कर रहे हैं। इस आपदा में सबसे दुर्गम गांव जुवाग्वाड़ गांव का झूला पुल बह चुका है, जिससे ग्रामीण सात किमी की पैदल पगडंडियों से होकर अपने गांव पहुंच रहे हैं।
आईटीबीपी के जवानों की ओर से गांव में राशन किट और आपदा सामग्री पहुंचाई जा रही है। ग्रामीणों की सबसे बढ़ी मुश्किल गांव तक पहुंचने की है। झूला पुल से आवाजाही कर ग्रामीणों को अपने गंतव्य तक जाने के लिए सिर्फ दो किमी की दूरी ही नापनी पड़ती थी, लेकिन अब पुल बह जाने से ग्रामीण रोजमर्रा की सामग्री के लिए सात किलोमीटर की पैदल दूरी नाप रहे हैं। जोशीमठ-मलारी हाईवे नीति घाटी के गांवों के साथ ही भारत-चीन सीमा को जोड़ता है। ऋषि गंगा की बाढ़ में हाईवे पर रैणी गांव में स्थित मोटर पुल बह गया था। सीमा क्षेत्र की सड़क होने के कारण सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की पूरी मशीनरी और मैन पावर रैणी में वैली ब्रिज बनाने में जुटी है। यहां ऋषि गंगा का मलबा हटाने ओर दूसरे छोर पर एबेटमेंट निर्माण का काम चल रहा है। बीआरओ के उच्च अधिकारियों का कहना है कि दस दिनों में वैली ब्रिज बनाने का काम पूरा हो जाएगा और वाहनों की आवाजाही सुचारु कर दी जाएगी।
कहीं परमाणु ऊर्जा वाली डिवाइस तो नहीं हादसे का कारण
उत्तराखंड के चमोली जिले में 7 फरवरी को आई तबाही के पीछे देश की दूसरी सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी ग्लेशियर है। जोशीमठ के पास इस ग्लेशियर का एक हिस्सा टूटकर धौलीगंगा नदीं में गिरा, इसकी वजह से ऋषिगंगा नदी में तेज सैलाब आया, पावर प्रोजेक्ट बर्बाद हुये और 200 से अधिक लोगों की जान चली र्गइं। इसी स्थान पर अमेरिका ने भारत सरकार के साथ मिलकर एक परमाणु ऊर्जा से चलने वाले टेलीमेट्री रिले लिस्निंग डिवाइस लगाने की कोशिश की थी, जो बर्फीले तूफान के कारण नहीं लगा पाये थे, लेकिन परमाणु उर्जा से लैस पांच या सात कैप्सूल वहीं बर्फ में दब गये थे, जिनका आज तक पता नहीं चल पाया है।
हाल ही में उत्तराखंड के पयर्टन मंत्री सतपाल महाराज ने प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिख कर इन डिवाइस का पता लगाने की गुहार लगाई थी, लेकिन अब तक इस पर कोई कदम केंद्र सरकार की ओर से नहीं उठाए गए। जानकारों का कहना है कि इस प्रकार के हादसों की जांच के दौरान इन डिवाइस से होने वाले नुकसान का भी पता लगाने को जांच की जा सकती है।
आइये जानते है कि कहां हैं नंदा देवी
ग्लेशियर! नंदा देवी ग्लेशियर नंदा देवी पहाड़ पर स्थित है। कंचनजंघा के बाद यह देश की दूसरी सबसे ऊंची चोटी कहलाती है। यह ऊंची चोटी गढ़वाल के हिमालय क्षेत्र है। उत्तराखंड के सीमांत जिले चमोली में स्थित नंदा देवी ग्लेशियर के पश्चिम में ऋषिगंगा नदी और पूर्व में गौरीगंगा घाटी है। यहां दो बड़े ग्लेशियर है। पहला नंदा देवी नॉर्थ और दूसरा नंदा देवी साउथ। दोनों की लंबाई 19 किलोमीटर के करीब है। इनकी शुरुआत नंदा देवी की चोटी से ही हो जाती है, जो इधर-उधर फैलते हुए नीचे घाटी तक आती हैं। नंदा देवी ग्लेशियर से पिघल कर जो पानी ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों से बहता है, वह आगे चल कर देवप्रयाग में गंगा नदी में मिल जाता है। नंदा देवी ग्लेशियर कई ग्लेशियरों का मिश्रण है। यहां पर सात अलग-अलग ग्लेशियर मिलकर नंदा देवी ग्लेशियर को बनाते हैं। इन ग्लेशियरों के नाम हैं- बारतोली, कुरुर्नटोली, नंदा देवी नॉर्थ, नंदा देवी साउथ, नंदाकना, रमानी और त्रिशूल। इनमें से नंदा देवी नॉर्थ (उत्तरी ऋषि ग्लेशियर) और साउथ (दक्षिणी नंदा देवी ग्लेशियर) दोनों की लंबाई 19 किलोमीटर है। ये समुद्र तल से 7108 मीटर ऊपर है। ये दोनों ही ग्लेशियर और चोटी देश और उत्तराखंड की कई नदियों के स्रोत है।
नंदा देवी चोटी को उत्तराखंड की देवी की तरह पूजा जाता है। यहां हर साल धार्मिक यात्राएं भी निकलती हैं, नंदा देवी ग्लेशियर के समूह ग्लेशियरों पर साल में एक सीमित समय के दौरान ट्रैकिंग भी होती है। नंदा देवी पहाड़ की दो चोटियां हैं, जिन्हें नंदा और सुनंदा देवी कहा जाता है। नंदा देवी की चढ़ाई अत्यधिक कठिन मानी जाती है। इस चोटी के नीचे पूर्वी तरफ नंदा देवी सैंक्चुरी है। यहां कई प्रजातियों के जीव-जंतु रहते हैं। इसकी सीमाएं चमोली, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों से जुड़ती हैं। नंदा देवी की कुल ऊंचाई 7816 मीटर यानी 25,643 फीट है। नंदा देवी पहाड़ के उत्तरी तरफ नंदा देवी ग्लेशियर है, यह उत्तरी ऋषि ग्लेशियर से जुड़ती है, दक्षिण की तरफ दक्षिणी नंदा देवी ग्लेशियर है जो दक्षिणी ऋषि ग्लेशियर से जुड़ती है। इन्हीं दोनों ग्लेशियरों का पानी ऋषिगंगा नदीं में जाता है। पूर्व की तरफ पाचू ग्लेशियर है, दक्षिण पूर्व की तरफ नंदाघुंटी और लावन ग्लेशियर हैं, इन सबका पानी बह कर मिलाम घाटी में जाता है। दक्षिण में स्थित पिंडारी ग्लेशियर का पानी पिंडार नदी में जाता है।