वीरेंद्र सेंगर
ये किस्सा एक केंद्रीय राज्यमंत्री के बंगले का है। समय रहा होगा सुबह दस बजे का। सम्मान देने या मलाई मक्खन लगाने के लिए गांव-गंवई के लोग लक्ष्मण बाजपेई को पीए साहब कहते हैं। बाजपेई जी को साहब कहलाना ज्यादा भाता है। वे अपने अन्नदाता के वास्ते दिन रात तरह-तरह के झूठ बोलते हैं…
मंत्री जी दो दिन तक थकान उतारेंगे, केवल बहुत जरूरी फोन कॉल ही लेंगे। सुबह-सुबह ही पधारे कृपा याचकों से पीए महोदय बार-बार बता रहे हैं। जमावड़े से एक ने पूछ लिया आखिर मंत्री जी! ऐसा कौन सा पहाड़ खोदकर लौटे हैं? जो दो दिन तक आराम ही आराम करेंगे। पीए साहब ने इस असभ्य मुलाकाती को ऊपर से लेकर नीचे तक तिरछी नजर से घूरा, फिर भी वो सकुचाया तक नहीं। पीए साहब ने तल्ख स्वर में कहा, कौन हो? वो बोला, वही हूं जिसने मंत्री के चुनाव में तमाम काले-सफेद काम की सेवा दी थी। अब तनिक सेवा लेने भर आया हूं। तो नखरे क्यों दिखा रहे हैं? इस बात पर पीए साहब को गुस्सा आया तो उनका स्वर तेज हो गया।
दरअसल, ये किस्सा एक केंद्रीय राज्यमंत्री के बंगले का है। समय रहा होगा सुबह दस बजे का। सम्मान देने या मलाई मक्खन लगाने के लिए गांव-गंवई के लोग लक्ष्मण बाजपेई को पीए साहब कहते हैं। कुछ पंडित जी भी कहते हैं। बाजपेई जी को साहब कहलाना ज्यादा भाता है। वे अपने अन्नदाता के वास्ते दिन रात तरह-तरह के झूठ बोलते हैं। पंडित इस झूठ को झूठ नहीं मानते। अपना ड्यूटी धर्म बताते हैं। उनके शब्दों में बहुतों को गोली देनी पड़ती है। पिछले कई सालों में मीठी गोली देने के वे आदी हो गये हैं। नेताजी अभी मीटिंग में हैं या बाथरुम में हैं। ये शब्द फोन पर अक्सर ‘आटो मोड‘ में रहते हैं। कभी-कभी टाइमिंग को लेकर लोचा भी हो जाता है, लेकिन पंडित जी हैं कमाल के, उन्हें जरा भी हिचक नहीं होती। कहते हैं कि बाथरूम जाने और मीटिंग करने का कोई तय वक्त नहीं हो सकता। फिर मंत्री जी हैं, वीआईपी। वे कोई गुरुचरन या राम भरोसे जैसे साधारण मानुष तो है नहीं जिन्हें अपने घर परिवार से ही मतलब है। अभी अपने संसदीय क्षेत्र से पांच दिन का दौरा करके लौटे हैं। दस शादियां और छह तेरहवीं निपटा कर आए हैं। चालीस शादियां छूट गयी हैं, उनके यहां शुभकामनाएं चिट्ठी भिजवा रहा हूं।पंडित जी की बातें मजेदार थीं। मैंने कुछ शुभकामना संदेश देखना शुरू किया। ये क्या मंत्री जी की तरफ से चिड़िया भी बैठा दिए? ये जिज्ञासा जगी। पंडित जी मुस्कराए, ‘अब आम जनता की हर चिट्ठी पर साहब! साइन करें। इतना समय वी.आई.पी. के पास भला कहां होता है।’ उन्होंने बड़े सहज भाव से कुबूल किया। लगे हाथ ये भी बता दिया कि बस लेटरपैड पर लिखा होना चाहिए। इतने से अपने गांव में जातक का सम्मान बढ़ जाता है। नेताजी का भी वोट बैंक मजबूत बना रहता है।पंडित जी! रह रहकर बेचैन हो रहे थे। कह रहे थे अंदर खबर कर दूं, आप आए हैं! वर्ना मुझे डांट लग जाएगी। मैंने कहा, आपको चर्चा में मजा नहीं आ रहा। मंत्री जी से फिर किसी दिन मुलाकात हो जाएगी। सामने अल्मारी में कई तरह के छपे कार्ड रखे थे। एक को उठाकर देखा, ‘आपके इलाके में ओलावृष्टि हुई है। प्रकृति की मार पड़ी है। इस विपदा में मैं आपके साथ हूं। ईश्वर से अनुकंपा का प्रार्थी हूं।’ मैं कार्ड पर गौर कर ही रहा था, पंडित जी ने कार्ड हाथ से झपट लिया।
पंडित जी से कह दिया, आप तो पीआर के पंडित भी हो। सब कुछ एडवांस में तैयारी। इस प्रेमवाणी से वे और गदगदाए मान हुए। बोले, सर! इन सबको मैनेज करना आसान नहीं होता। पिछले महीने, दस दिन की छुट्टी पर गांव चला गया था। एक ट्रेनी पीए काम देख रहा था। उसने तमाम गड़बड़ कर दिया। उसने उन गांव प्रधानों को ओलावृष्टि वाला कार्ड भेज दिया, जहां एक ओला भी नहीं गिरा। शादी की शुभकामनाओं की जगह तेरहवीं का शोक संदेश कार्ड भेज दिया। वो तो समय पर लौट नहीं आता, तो पता नहीं कितना और कचूमर निकाल देता?
मंत्री जी का इसी बीच अंदर से बुलावा आ गया। फुरसत के क्षण थे, मैंने छेड़ दिया। वाकई, आप जैसे जन नेताओं को भी कितने सिर दर्द रहते हैं? अपने सांसद से वोटरों की कितनी अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं। वे खुश हो गये। बताने लगे आपसे छिपाना क्या? सच तो यह है कि जनसेवा बहुत कठिन काम हो गया है। दिन भर छल-कपट करना पड़ता है। मीडिया तो हमारे महान नेता की कीर्ति से काबू में हैं, लेकिन ये सोशल मीडिया चुगली कर देते हैं। गांव के लोग भी तीखे सवाल मुंह पर मार देते हैं। वे डरते ही नहीं। अजब जमाना है।वे बोलते गये, किसानों के नये कानूनों पर तांडव मचा है। कई राज्यों के किसान आंदोलन पर हैं। अपने क्षेत्र में सरकार के पक्ष में हवा बनाने गया था। पता, नहीं अपने लोग भी भड़क गये। कई जगह गालियां मिलीं। समझाया कि कुछ लोचा हुआ है। कानून गलत नहीं है, लेकिन कई जगह काफिला खदेड़ा गया। कल पार्टी प्रमुख को रिपोर्ट भेज दी है कि क्षेत्र में सब ठीक ठाक है, क्या करें ये भी मजबूरी का जो लोचा है।