करवट लेता बिहार!

  • चुनावी महारथियों ने फिर सपनों की खूब चमकीली पैकेजिंग की
  • सांप्रदायिकता का भावनात्मक मुद्दा उभारने की कोशिशें हुईं 

वीरेंद्र सेंगर

नई दिल्ली। बिहार में है चुनाव की निर्णायक बेला। बड़े-बड़े सियासी महारथी चुनाव मैदान में डटे रहे। शांत, उदास और भारी दुख-दर्द में जी रही प्रदेश की जनता के घाव फिर कुरेद दिए गए हैं। 15 साल से सत्ता के बैकुंठ में बैठे छलिया एक बार फिर अपना जाल फैला चुके हैं। वह बोल कुछ भी रहे हों, उनका मूलमंत्र यही है ‘फिर फंसो, फिर फंसो’ इसके लिए ना पूरे होने वाले सपनों की फिर चमकीली पैकेजिंग की गई है। इन्हें झुनझुने के तौर पर सुनाया जा रहा है, लेकिन इस बार बिहार ने करवट सी ली है। आम जनता बोलने लगी है। उसका मौन दशकों बाद टूटा है। एक हद तक जातिवादी दीवारों में भी दरार आई है। सो, नेताओं के अजमाये फार्मूले फेल होते नजर आए। गांव-गांव में मैकू और घसीटा ने भी मंत्री जी का गिरेबान पकड़ कर जवाब मांगा। पूछा कि उनकी बदहाली का जिम्मेदार कौन है? मंत्री जी! बड़े-बड़े अकड़ू मंत्रियों को भी गिड़गिड़ाना पड़ा। यह दृश्य सोशल मीडिया में खूब वायरल हुए। पांसा पलटता नजर आया, हालांकि आखिरी क्षणों तक सत्ता महाप्रभु ने अपने तरकश के शातिर तीर चलाए। नए-नए झांसे दिए। इस चुनाव में दिल्ली के ‘अवतारी’ पुरुष की इज्जत भी दांव पर लगी है। सो, कुछ भी असंभव नहीं है। फिलहाल, बिहार की दबंग जनता ने पहली बाजी मार ली है। आगे और लड़ाई जारी है।

प्रदेश में 243 विधानसभा क्षेत्र हैं। 122 का है जादुई आंकड़ा। जो इसे पार करेगा उसी की सरकार बनेगी। बहुमत का आंकड़ा छूने के लिए सियासत तेज रही। तरह-तरह के दांव चलाए गए। बेशर्म नौटंकी रचाई गई। हर तरह से मतदाताओं को लुभाया गया। सत्ता के दावेदार दोनों बड़े मोर्चों की तरफ से ऐसी कोशिशें र्हुइं। राजद प्रमुख तेजस्वी यादव के नेतृत्व में विपक्षी मोर्चा मजबूती से डटा रहा। तमाम कोशिशों के बावजूद नीतीश कुमार और भाजपा के कर्णधार इस बार चुनाव के मुख्य मुद्दे को बदल नहीं पाए। इसमें उनके पसीने छूटे। संघ परिवार ने सियासी किश्ती डूबते देखकर पूरी ताकत लगा दी। हिंदू-मुस्लिम वाले मुद्दे उठाए। खुद प्रधानमंत्री ने पहले चरण की तीन रैलियों में यहां गलवान घाटी और जम्मू कश्मीर का राग अलापा।

रणनीति यही रही किसी तरह सांप्रदायिकता का भावनात्मक मुद्दा उभारा जाए, ये काम यहां सालों से इनके गिरिराज सिंह जैसे नेता बखूबी करते आए हैं, वे केंद्रीय मंत्री हैं। धुर हिंदुत्ववादी हैं। विवादित बयानों के लिए कुख्यात हैं। वे भूमिहार नेता हैं, खुद खुलेआम जातिवादी राजनीति करते हैं, लेकिन जातिवादी राजनीति का ठीकरा विपक्ष पर फोड़ते हैं। भाजपा नेताओं की यही सबसे बड़ी काबिलियत रही है, कि वह हिंदू-मुस्लिम का सियासी विमर्श मुख्य चुनावी मुद्दा बना देते हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद बिहार में यह दांव नहीं चला। सही मायने में मुख्य चुनावी मुद्दा बन गया बेरोजगारी। इसका श्रेय जाता है मुख्यमंत्री पद के मजबूत दावेदार तेजस्वी यादव को, जिन्होंने प्रचार अभियान के शुरुआती दौर से ही इसे मुद्दा बना दिया। संकल्प पत्र में भी ऐलान कर दिया कि उनका मोर्चा सत्ता में आया तो 10 लाख बेरोजगारों को सरकारी नौकरियां दी जाएंगी। जब इस ऐलान ने वाहवाही पाई तो तेजस्वी का उत्साह और बढ़ गया। पहले तेजस्वी के बयान का मजाक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जमकर बनाया। यह कहा कि उतनी सरकारी नौकरी देंगे तो पैसे कहां से आएगा? क्या जेल में बंद अपने बाप के खजाने से लाएंगे या नकली नोट छापेंगे?

इस तरह से ओछी प्रतिक्रिया दी गई। भाजपा नेताओं ने भी तीखे तंज किए। इसके बावजूद जब मुद्दा लोकप्रिय होने लगा तो सत्ता पक्ष में बेचैनी बढ़ी। मुकाबले के लिए भाजपा ने अपने चुनावी संकल्प पत्र में दस लाख नौकरियों के जवाब में 19 लाख रोजगार पैदा करने की बात कही।

मुख्य मीडिया में यह बात ‘नहले पर दहला’ के रूप में प्रचारित भी हुई। बाद में खुलासा हुआ कि भाजपा ने पक्की नौकरियों की नहीं, रोजगार पैदा करने का संकल्प जताया है। बात चली कि नाला साफ करना, शौचालय साफ करना, पकौड़ा बेचना, भीख मांगना आदि भी भाजपा नेताओं की नजर में रोजगार सृजन होगा। ‘पकौड़ा रोजगार’ का जुमला तो स्वनाम धन्य मोदी जी सालों पहले उठाकर लाभ कमा चुके हैं। अब यह बातें उठीं तो सफाई आई कि इसमें साढ़े चार लाख की पक्की नौकरियां भी होंगी। इस पर विपक्षी नेताओं ने तंज किया कि अब इसके लिए पैसा कहां से आएगा? इसका ठीक-ठीक जवाब नीतीश कैंप नहीं दे पाया। इस तरह बेरोजगारी के मुद्दे पर तेजस्वी ने सियासी बढ़त हासिल की।

बिहार में बेरोजगारी दर करीब 45 प्रतिशत पहुंची है, जो कि देश में सबसे भयंकर कहीं जा सकती है। यह मुख्य चुनावी मुद्दा बना तो सत्ता पक्ष के विधायकों को जगह-जगह विरोध का सामना करना पड़ा। कई विधानसभा क्षेत्रों में नीतीश सरकार के मंत्रियों को भी नाराज बेरोजगार युवाओं ने गांव में ही नहीं घुसने दिया। इसके वीडियो भी वायरल हुए। इतना ही नहीं, स्टार प्रचारक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनसभाओं में ‘मुर्दाबाद-मुर्दाबाद’ के नारे लगे तो नीतीश एकदम उखड़ गए। सुशासन बाबू नीतीश अपनी शालीन भाषा के लिए जाने जाते रहे हैं, लेकिन अब वह बदल गए हैं। जनसभा में टोका-टाकी से इतने नाराज हो जाते हैं, कि कई बार भाषा की मर्यादा भी भूल गए। यह बेचैनी उनकी निराशा मानी गई। वह 15 साल से सत्ता में है। अब 2005 पहले की लालू-राबडी सरकारों की याद दिलाते हैं। कहते हैं उन्हें हराया तो फिर जंगलराज आ जाएगा। लेकिन उनकी ऐसी दलीलें लचर साबित होती दिखीं।

तमाम सरकारी तंत्र और सत्ता संसाधनों के बावजूद नीतीश कुमार की चुनावी रैलियां तेजस्वी की रैलियों के मुकाबले फीकी देखी गई। जदयू के एक कद्दावर नेता ने अनौपचारिक बातचीत में कहा कि सत्ता विरोधी रुझान होना स्वाभाविक है। फिर भी ‘मोदी महिमा’ के चलते गाड़ी पार लग सकती है। नीतीश एंड कंपनी की सियासी मुश्किल केवल धुर विपक्ष से नहीं है। एनडीए के अंदर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। जदयू और भाजपा के बीच अंदरूनी खींचतान है। अब यह निर्णायक दौर में बाहर भी झलकने लगी। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है।

लोक जनशक्ति पार्टी यानी एलजेपी के चिराग पासवान इस बार औपचारिक तौर पर एनडीए का हिस्सा नहीं है, लेकिन वे प्रधानमंत्री मोदी जी को अपना नेता बताते हैं। वह जगह-जगह अपनी जनसभाओं में अपने समर्थकों से कहते हैं कि भाजपा उम्मीदवारों को वोट दो, लेकिन नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को चोट दो। वह यह भी अपील कर रहे हैं कि भाजपा समर्थक उनकी पार्टी को अपना समर्थन दें जहां जदयू के उम्मीदवार हैं। इसे वे अपनी सियासी रणनीति करार दे रहे हैं। (देखें बाक्स ) केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की मौत पिछले दिनों ही हुई है। पासवान के वारिस के रूप में चिराग सहानुभूति का लाभ लेने की फिराक में हैं। इसके चलते भाजपा और जदयू कार्यकर्ताओं के बीच जमीनी स्तर पर अविश्वास बढ़ गया है। इसका नुकसान नीतीश खेमे को होना तय है।

इस बार तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन में तीन प्रमुख वामदल भी हैं। प्रदेश के कई इलाकों में इनकी मजबूत पकड़ है। पूरे प्रदेश में करीब आठ प्रतिशत तक मतों में इनकी हिस्सेदारी है। यह वोट भी तेजस्वी कैंप में जुड़ सकते हैं। सीपीआई के चर्चित युवा नेता हैं कन्हैया कुमार। जोरदार भाषण देने के लिए विख्यात हैं। इस बार जम कर चुनावी रैलियां कर रहे हैं। विपक्ष के स्टार प्रचारक हैं। अपने भाषणों में वे प्रधानमंत्री मोदी की ज्यादा खबर लेते हैं। कन्हैया कुमार जेएनयू छात्र संघ के चर्चित अध्यक्ष रहे हैं। कई सालों से वे जुझारू युवा नेता के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं। कहते हैं संघ परिवार की राजनीति ने देश को बर्बादी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। पीएम मोदी की राजनीति लफ्फाजी की है, झूठे सपनों की है, फरेब की है। इनकी सत्ता के छह सालों में आर्थिक तबाही आई है। मुल्क की एकता को गंभीर खतरा है। नीतीश जैसे नेता तो महज इनकी लटकन हैं। ऐसे में बेहतर है कि बिहार सहित पूरा देश सांप्रदायिक राजनीति करने वालों को खदेड़े, वरना बहुत देर हो जाएगी। वे कहते हैं कि उनका समर्थन किसी व्यक्ति विशेष को नहीं है। उनकी पार्टी जो आदेश देती है, वह वही करते हैं। कन्हैया को उम्मीद है कि इस बार बिहार की राजनीति ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है। उसकी करवट से पूरे देश में बदलाव की हवा रहेगी।

इस बार जदयू 144 और कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव मैदान में हैं। राजनीतिक हलकों में यह चर्चा जरूर रही है कि कांग्रेस के पास जमीनी कार्यकर्ता कम है। आठ़-दस सीटों में उनके उम्मीदवार भी हल्के हैं। तेजस्वी यादव का मानना है कि किसी भी दल के सभी उम्मीदवार बहुत मजबूत नहीं होते। हवा का रुख अनुकूल होता है तो सब पार लग जाते हैं। इस बार बिहार में बदलाव के बयार है। मुजफ्फरपुर की एक रैली के बाद मीडिया ने यह सवाल उनसे उछाला था। इसके जवाब में वे यही बोले थे। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजद और कांग्रेस के बीच गजब का अंदरूनी सद्भाव भी है।

23 अक्टूबर को राहुल गांधी और तेजस्वी साझा रैली कर चुके हैं। दोनों दलों में खासा उत्साह देखा गया। दोनों नेताओं की रणनीति एकदम तय है। तेजस्वी के निशाने पर नीतीश की सरकार रहती है, जबकि राहुल पीएम मोदी और संघ परिवार पर सीधा निशाना साधते हैं। इन दोनों युवा नेताओं की जोड़ी ने विपक्ष में नया दम भर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने पहले चरण में 23 अक्टूबर को सासाराम, गया और भागलपुर में रैलियां की थीं। इसी दिन राहुल और तेजस्वी की रैलियां थीं, जो कि पीएम की रैली से ज्यादा जोरदार थी। प्रधानमंत्री जी की रैली 28 अक्टूबर को दरभंगा, मुजफ्फरपुर और पटना में हुई। इसके बाद पश्चिमी चंपारण, समस्तीपुर, छपरा, चंपारण और सहरसा में भी रैलियां हुईं। एनडीए के रणनीतिकार इसके भरोसे हैं कि मोदी जी के करिश्मे से सरकार बच जाएगी लेकिन जमीनी हालात देखने के बाद इस खेमे की बेचैनी छिप नहीं पा रही है।

केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद अब फिर सपनों की सियासी खेती करते नजर आए। 27 अक्टूबर की रैलियों में वे कहने लगे पांच लाख युवाओं को नौकरी अगले पांच साल में केवल यहां के नए आईटी सेक्टर में मिल जाएगी। बिहार के कई शहर नोएडा और दिल्ली की तर्ज पर विकसित हो जाएंगे। इस बड़े वायदे पर जन समूह ने ज्यादा तालियां तक नहीं बजाई। भाजपा नेता तेजस्वी यादव के राज में संभावित खतरे बताने में ज्यादा लगे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि यहां गलवान घाटी और कश्मीर का मुद्दा ज्यादा चला नहीं। सब जगह लोग रोजगार, सड़क और बिजली-पानी की बात कर रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूर परिवारों के साथ केंद्र सरकार के असंवेदनशील रवैये पर भी तीखे सवाल कर रहे हैं। इसका जवाब देते नहीं बन रहा।

स्थानीय विरोध दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। हालात यह बने हैं कि दूर के ग्रामीण इलाकों में भाजपा और जदयू के उम्मीदवार कड़े विरोध का सामना करते रहे। कई विधायक तो पूरी तरह अपमानित भी हुए। हैदराबाद के चर्चित मुस्लिम सांसद असदुद्दीन ओवैसी भी यहां एक सियासी किरदार हैं। उपेंद्र कुशवाहा और बसपा के साथ उनका साझा मोर्चा बना है। उपेंद्र कुशवाहा चर्चित दलबदलू नेता । मोदी सरकार में राज्यमंत्री भी रहे हैं। उन्हें ओवैसी ने अपना मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया है। सीमांचल के कुछ जिलों में मुस्लिम आबादी खासी है। ओवैसी का ज्यादा वोट यहीं रहता है, इस बार बसपा भी साथ है। उपेंद्र कुशवाहा के सजातीय वोट का भरोसा है। मुस्लिम मतदाताओं को बांटने की रणनीति है। कन्हैया कुमार कहते हैं ओवैसी जैसे अवसरवादी नेता किसके इशारे और पैसे पर सेकुलर वोट बांटने की चाल चल रहे हैं? वह किसी से छुपा नहीं है। सो, वे बिहार के अल्पसंख्यकों को मूर्ख नहीं बना पाएंगे।

ओवैसी अपने पर लग रहे आरोपों को अनर्गल प्रलाप करार देते हैं। उनका कहना है कि पिछले साल उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव में यहां नहीं थी। फिर भी 39 सीटों में एनडीए की जीत हुई थी। ऐसे में उन पर वोट बांटने का आरोप गलत है। बिहार का मुसलमान राजद और कांग्रेस के गुलाम नहीं है। वैसे कई सालों से ओवैसी यहां अपनी सियासी जमीन तैयार कर रहे हैं, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली। दो साल पहले किशनगंज के उपचुनाव में एक विधानसभा सीट उनकी पार्टी ने जरूर जीत ली थी। यहां आम चर्चा रही कि वह भाजपा के इशारे पर ‘वोटकटवा’ के रोल में रहते हैं। ओवैसी इसे अपने साथ नाइंसाफी करार देते हैं।

कांग्रेस यहां करीब दो दशकों बाद 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। राजद के संस्थापक लालू यादव की कृपा पर ही कांग्रेस यहां दशकों से टिकी थी। लालू यादव चारा घोटाले में रांची जेल में सालों में हैं। उनकी सेहत भी अच्छी नहीं है। लालू की अनुपस्थिति में उनके छोटे बेटे तेजस्वी ने पार्टी की कमान मजबूती से संभाल ली है। महागठबंधन की तरफ से वही सीएम चेहरे हैं। भले में पढ़ाई-लिखाई में फिसड्डी रहे हों, लेकिन सियासत में खासे दक्ष हो गए हैं। अपने पिताश्री के मुकाबले शिष्ट भी हैं और विनम्र भी। इसी के चलते कांग्रेसजनों को मोर्चे में खूब इज्जत मिल रही है।

कांग्रेस ने इस बार चर्चित नेता शरद यादव की बेटी सुभाषिनी को मधेपुरा संसदीय क्षेत्र में आने वाली बिहारीगंज विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव जीवन भर कांग्रेस विरोध की राजनीति करते रहे हैं। सेकुलर नेता शरद यादव अपने सहयोगी रहे नीतीश से अलग हो गए थे, तब उन्होंने भाजपा से दोबारा हाथ मिला लिया था। जबकि 2015 का विधानसभा चुनाव राजद, जदयू व कांग्रेस ने एक साथ लड़ा था। जीते थे, सरकार बनाई थी, लेकिन डेढ़ साल बाद नीतीश फिर भाजपा से जुड़ गए थे। इस पर शरद यादव तुनक गए थे। इन दिनों वे सख्त बीमार है। उनकी बेटी कांग्रेस से मजबूती से लड़ी, क्षेत्र में हवा भी उनके पक्ष दिखाई पड़ी। बाकी तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा जब जादुई पिटारा खुलेगा।

मशहूर अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा चर्चित नेता हैं। एक दौर में वह भगवा दल के सुपरस्टार थे। अटल मंत्रिमंडल में मंत्री भी थे, लेकिन पीएम मोदी से उनकी नहीं बनी। स्वाभिमानी सिन्हा ने बगावत की। बाद में कांग्रेसी बन गये। बिहारी बाबू के तौर पर जाने जाते हैं। विधानसभा चुनाव में बिहारी बाबू कांग्रेस के स्टार प्रचारक रहे। उनके जोशीले भाषण समा बांध देते हैं। इस बार हवा का रुख अनुकूल रहा तो बिहारी बाबू की सभाओं में खूब धूम रही। उनके बेटे लव सिन्हा भी सियासत में उतरे हैं। पटना के बांकीपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेसी टिकट पर लड़ रहे हैं। अपने पापा की तरह वह भी रौबदार भाषण कर लेते हैं। बेखौफ भी हैं। नीतीश बाबू के साथ ‘छोटे मोदी’ और ‘बड़े मोदी’ की जमकर खबर लेते रहे।

प्रथम चरण में 28 अक्टूबर को यहां 71 सीटों पर मतदान हुआ। शुरुआती प्रचार- रुझान में महागठबंधन ने बढ़त बनाई। राजनीतिक प्रेक्षकों का ताजा आकलन यही है। बाकी के दो चरणों में हालात भविष्य की गोद में है, लेकिन भाजपा और जदयू की बढ़ती बेचैनी कुछ संकेत तो दे ही रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि बिहार ने निर्णायक सियासी करवट बदली तो एक बड़े बदलाव की शुरुआत हो रही है। वैसे भी बिहार की धरती इस खासियत के लिए जानी जाती है।

 

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