आफरीन हुसैन
ज्यों-ज्यों बिहार 11 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण की ओर बढ़ रहा है, त्यों-त्यों माहौल जोश से अधिक अनिश्चितता से भरा नजर आ रहा है। मतदाता यानी जनता थकी हुई लग रही है, जर्नादन अथवा नेता कुछ बेचैन और राज्य खुद अपने राजनीतिक इतिहास के बोझ और अनिश्चित भविष्य के खींचतान के बीच खड़ा है।
भले ही रैलियां विशाल हैं और भाषण आग उगलते हैं, लेकिन मतदाताओं के बीच एक अजीब सी खामोशी है। बिहार की राजधानी पटना के अतिरिक्त सूबे में हर जगह बस एक ही सवाल गूंज रहा है-
ये चुनाव असल में क्या बदलेगा !
राजनीति के सबसे बड़े चेहरों राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव, जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह अमित शाह
सभी पर चिंतित नजर आ रहे हैं। हर किसी के पास खोने को बहुत कुछ है। तेजस्वी की राजनीतिक किस्मत एक धागे पर टिकी है। नीतीश कुमार के लंबे शासन का शायद अब अंतिम अध्याय चल रहा है और भाजपा भले ही बोलचाल में आत्मविश्वास से भरी हो, लेकिन अंदर ही अंदर बेहद सतर्क है यह जानते हुए कि जरा सी चूक उसे भारी नुकसान पहुंचा सकती है या क्षेत्रीय समीकरणों को फिर से उभार सकती है।
पटना के राजनीतिक गलियारों में अफवाहें तेज हैं अगर अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलता है, तो क्या नीतीश कुमार को पूरी तरह हटा दिया जाएगा ? क्या पार्टी दिल्ली की तरह इस बार भी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम आख़िरी पल तक गुप्त रखेगी, ताकि अंत में किसी ‘संघ-स्वीकृत’ चेहरे को सामने लाया जा सके। इन सियासी खेलों के पार एक और गहरी बात छिपी है वह यह है कि। बिहार की जनता असल में क्या महसूस कर रही है ?
लोकतंत्र की इस शोर-शराबे के बीच आम मतदाता थका हुआ है। उसने देखा है कि वादे कैसे हवा में उड़ते हैं और बैनर की तरह गिर जाते हैं। जनता ने मतदान केंद्रों को रणभूमि बनते देखा है और मतदाता सूची से नामों को ऐसे गायब होते देखा है जैसे खुद लोकतंत्र के हाथ में कोई रबर का पुतला हो।
सालों से चुनावी हेराफेरी का साया केवल बिहार ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान और दूसरे राज्यों पर भी मंडराता रहा है।
लाख टके का सवाल यह है क्या भारत ने अब तक असल में ऐसा चुनाव देख है जो वास्तव में निष्पक्ष लगे या केवल दिखने में निष्पक्ष हो?
इस संशय के बीच भी बिहार एक विरोधाभास बना हुआ है प्रतिभा और उपेक्षा का संगम।
वह राज्य, जिसे अक्सर पिछड़ा कहा जाता है। उसी ने देश को दिए हैं आईएएस, वैज्ञानिक, लेखक और स्वप्नद्रष्टा, जिन्होंने दिल्ली, मुंबई, लंदन और न्यूयॉर्क तक अपनी छाप छोड़ी है।
कहना गलत न हो कि बिहार की बुद्धि अपनी सीमाओं से बहुत आगे जाती है। उसकी बुनियादी सुविधाओं से कहीं आगे। यहां के युवाओं का गर्व राजनीति में नहीं, बल्कि उनकी जिद और संघर्ष में है। जैसे-जैसे 11 नवंबर करीब आ रहा है, सबकी निगाहें चाहे वो बिहार के मतदान केंद्र हों या दिल्ली के मीडिया स्टूडियो एक ही सवाल पर टिकी हैं-
क्या यह चुनाव लोकतंत्र का उत्सव होगा या बस उसका एक और झूठा प्रयास ? 14 नवंबर को जब नतीजे आएंगे, तब भारत को सिर्फ यह नहीं पता चलेगा कि बिहार पर कौन शासन करेगा, बल्कि यह भी कि क्या बिहार का लोकतंत्र अब भी खुद पर भरोसा रखता है।